उच्चतम न्यायालय सबसे बड़ी उम्मीद थी। हालांकि जिनने कृषि कानूनों के विरोध में जारी आंदोलन में प्रकट और परोक्ष रूप से सक्रिय शक्तियों को जांचा-परखा है उनका मानना रहा है इस आंदोलन को आसानी से ना स्थगित कराया जा सकता है न खत्म ही।
वास्तव में उच्चतम न्यायालय भले कहे कि हमें लोगों की जान और माल की चिंता है, आंदोलन के कारण लोग मर रहे हैं, कोविड का भी खतरा है और इन कारणों से हम समाधान चाहते हैं इन पर ऐसे संवेदनशील बातों का कोई असर नहीं है। ये उच्चतम न्यायालय पर भी प्रश्न उठा रहे हैं। पहले इनका स्टैंड था कि हम तो उच्चतम न्यायालय गए नहीं थे, हमें उच्चतम न्यायालय नहीं चाहिए... हम तो इन तीनों कानूनों को पूरी तरह खत्म करने की मांग कर रहे हैं और यह सरकार कर सकती है। जब उच्चतम न्यायालय ने कानूनों के लागू होने पर अगले आदेश तक रोक लगाते हुए चार सदस्य समिति गठित कर दी समिति गठित कर दी तो उन्होंने उनके सदस्यों पर ही प्रश्न उठाना शुरू कर दिया कर दिया। वैसे आंदोलनरत संगठनों के अनेक नेता बयान दे चुके थे कि हमको समिति नहीं चाहिए और हम समिति में जाएंगे नहीं। निश्चित रूप से उच्चतम न्यायालय के माननीय न्यायमूर्तियों के सामने भी ये सारे बयान रहे होंगे। बावजूद उसने एक पहल की है।
उच्चतम न्यायालय पर कोई टिप्पणी काफी सोच-विचारकर की जानी चाहिए। संविधान और कानूनों की समीक्षा की वह शीर्षतम संवैधानिक इकाई है। अगर हमने उच्चतम न्यायालय को ही प्रश्नों के घेरे में या कटघरे में खड़ा करना शुरू कर दिया तो फिर कौन सी संस्था देश में बचेगी? लेकिन आप देख लीजिए जो कांग्रेस 11 जनवरी को न्यायालय के माननीय न्यायाधीशों की टिप्पणियों को उद्धृत करके सरकार की निंदा कर रही थी, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को जिद्दी और अधिनायक तक करार दे रही थी.... नसीहत दे रही थी कि अब तो सुधर जाओ कानून वापस कर लो, वही समिति पर प्रश्न खड़ा करने लगी।
कांग्रेस के मुख्य प्रवक्ता रणदीप सिंह सुरजेवाला ने चारों सदस्यों पर कृषि कानूनों के समर्थक होने का आरोप चस्पां कर दिया। आंदोलन से जुड़े नेता तो कर ही रहे थे। यह उच्चतम न्यायालय की अवमानना नहीं तो और क्या है? अगर आंदोलन कृषि कानूनों को लेकर किसानों के मन में उठती आशंकाओं को दूर करने के लिए होता, उन आशंकाओं के आधार पर कानून में बदलाव या संशोधन कराने के लिए होता और कुल मिलाकर यह किसानों का आंदोलन होता तो 9 दिसंबर 2020 को सरकार की ओर से 20 पृष्ठों में जो 10 सूत्रीय प्रस्ताव दिया गया था उसके बाद समाप्त हो चुका होता। उन प्रस्तावों में न केवल इनके द्वारा उठाई गई आशंकाओं का समाधान था, बल्कि इनकी मांगों के अनुरूप कानूनों में संशोधन करने की भी बात स्वीकार की गई थी।
वास्तव में अगर आप गहराई से इस आंदोलन की शुरुआत से लेकर अब तक की गतिविधियों पर नजर रखेंगे तो साफ हो जाएगा यह कृषि कानूनों के विरोध में आरंभ किया गया आंदोलन अवश्य दिखता है, इसमें किसानों और कृषि के मुद्दे उठाए जा रहे हैं लेकिन इसके पीछे सुनियोजित गहरी राजनीतिक रणनीतियां है। कृषि कानूनों के लागू होने के साथ ही पंजाब की कैप्टन अमरिंदर सिंह सरकार ने जिस तरह इसका विरोध शुरू किया, धीरे-धीरे अन्य कांग्रेसी और दूसरी विरोधी पार्टियों की सरकारों ने भी इसकी मुखालफत आरंभ की... जिस तरह दूसरी गैरदलीय शक्तियों, समूहों, एक्टिविस्टों, एनजीओवादियों, वामपंथी संगठनों-चेहरों ने इसके विरुद्ध गोलबंदी शुरू की.... उन सबसे साफ होता गया कि आने वाले समय में ये सब इसके बारे में गलतफहमी और भ्रम पैदा करके प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर सीधा और उनकी सरकारके विरुद्ध घेरेबंदी और माहौल निर्मित करने की हरसंभव कोशिश करेंगे।
सामान्य राजनीति में कोई समस्या नहीं किंतु यह तो किसानों को मोहरा बनाना है। उच्चतम न्यायालय ने अपनी कुछ सीमाओं का ध्यान रखते हुए इसमें व्याप्त राजनीति की अनदेखी कर किसी तरह गतिरोध खत्म करने और विश्वास का वातावरण बनाकर बातचीत के जरिए हल करने की कोशिश की है। मुख्य न्यायाधीश एस ए बोबडे, न्यायमूर्ति ए एस बोपन्ना और वी राम सुब्रमण्यम की पीठ ने आदेश देते हुए यह कहा कि दोनों पक्ष इसे सही भावना से लेंगे और समस्या का निष्पक्ष, न्यायसंगत व उचित हल निकालने का प्रयास करेंगे ऐसी उम्मीद हम करते हैं। न्यायालय के आदेश को किसी की पराजय या विजय के रूप में नहीं देखा जा सकता। सरकार की ओर से समिति बनाने का प्रस्ताव दिया गया था। ध्यान रखिए, न्यायालय द्वारा समिति गठित करने का महाधिवक्ता ने समर्थन किया।
दूसरे, न्यायालय ने कानून के केवल अमल पर रोक लगाई है। उसे न खारिज किया है और ना उसकी संवैधानिकता पर कोई प्रश्न उठाया है। अगर किसान संगठन या किसानों के नाम पर खड़े किए गए संगठन सोचते हैं कि उनके अनुरूप ही न्यायालय भी कार्रवाई करें तो यह संभव नहीं। उनकी मांग तीनों कृषि कानून रद्द करने की है।
न्यायालय इसके पक्ष में नहीं दिखता। समिति बनाने का उसका कदम इसी दिशा की ओर इशारा कर रहा है। संभवतः न्यायालय इसमें कुछ संशोधन परिवर्तन को तो वाजिब मानता है लेकिन पूरी तरह कानूनों को रद्द करने को नहीं।
हमारे देश में कोई ऐसा व्यक्ति नहीं हो सकता जिसकी हर बात से हम सहमत हों। लेकिन न्यायालय की पहल पर कोई व्यक्ति समिति में शामिल होता है तो उसका सम्मान होना चाहिए।
अपनी बात वहां रखी जानी चाहिए और समिति क्या रिपोर्ट देती है इसकी प्रतीक्षा होनी चाहिए। समिति की रिपोर्ट की समीक्षा के लिए भी तो न्यायालय है ही। समिति के चारों सदस्य भूपिंदर सिंह मान, अशोक गुलाटी, डॉ प्रमोद कुमार जोशी और अनिल धनवट लंबे समय से कृषि और किसान केंद्रित कार्य करते रहे हैं। हम- आप इनके कई विचारों से असहमत हो सकते हैं और हुए भी हैं लेकिन इनमें एक भी व्यक्ति ऐसा नहीं है जिसके बारे में कहा जाए कि उनको कृषि और किसानों की समस्या का अनुभव नहीं है। जिन अशोक गुलाटी का सबसे ज्यादा विरोध हुआ है उनसे ज्यादातर सरकारें जिसमें सभी पार्टियां शामिल हैं कृषि को लेकर सलाह मशविरा करते रहे हैं। यह कहना कि चूंकि ये लोग कृषि कानूनों के समर्थक हैं इसलिए उनको समिति में नहीं होना चाहिए न्यायसंगत नहीं है। सच यही है कि कृषि पर काम करने वाले ज्यादातर लोग, विशेषज्ञ ही नहीं, समझ-बूझ वाले देशभर के किसान कृषि कानूनों के पक्ष में हैं। वे यह तो मानते हैं कि इसमें कुछ प्रावधान जोड़े जाने चाहिए, कुछ प्रावधानों में संशोधन होना चाहिए लेकिन इसे पूरी तरह खत्म करने का मतलब होगा किसानों को हर हाल में केवल सरकारी मंडियों पर निर्भर बनाए रखना।
शालीन व्यवहार में न्यायलय की संवेनशील पहल के बाद आंदोलन कम से कम स्थगित किया जाना चाहिए था। न्यायालय ने भले आंदोलन को खत्म करने का आदेश नहीं दिया लेकिन उसकी इन पंक्तियों को अवश्य ध्यान में रखना चाहिए- हम शांतिपूर्ण प्रदर्शन को दबाना नहीं चाहते लेकिन कृषि कानूनों के अमल पर रोक के इस असाधारण आदेश से प्रदर्शन का कथित उद्देश फिलहाल के लिए पूरा हो जाता है।
अब प्रदर्शनकारियों को वापस चले जाना चाहिए। जब एक किसान संगठन की ओर से पेश वकील ने यह कहा कि किसान संगठन समिति के सामने नहीं आना चाहते तो न्यायालय ने कहा कि हम समाधान चाहते हैं।.. राजनीति और न्यायिक प्रक्रिया में अंतर को समझा जाना चाहिए।.. अगर आप अनिश्चितकाल तक धरना देना चाहते हैं तो आपको कोई रोक नहीं सकता। हमारा उद्देश्य विवाद का हल निकालना है।
सभी निष्पक्ष लोग स्वीकार करेंगे कि लंबे समय से किसानों की फसलों को आवश्यक वस्तु अधिनियम से मुक्त किया जाने की मांग की जाती रही है। इसी तरह यह मांग भी लंबे समय से थी कि किसानों को सरकारी मंडियों के परे अपनी फसल बेचने तथा उनको वाजिब दाम मिल सके इसके लिए कानून और उसके साथ उपयुक्त ढांचों का निर्माण किया जाए। कृषि क्षेत्र को बेहतर करने, उसे सम्मानजनक कार्य बनाने और किसानों की आय वृद्धि के लिए निजी निवेश की मांग तो सभी पार्टियों और ज्यादातर संगठनों की रही है। तीनों कानून इन्हीं मांगों को पूरा करती हैं।
तो फिर इनके तीखे विरोध का कारण क्या हो सकता है? विरोधी दलों और गैर दलीय कुछ समूहों और व्यक्तियों की गलत राजनीति । ये सारी शक्तियां नागरिकता संशोधन विरोधी कानून में इकट्ठी हो गईं थीं। इन्होंने ही कृषि कानूनों के विरोध में हो रहे आंदोलन को अपने शिकंजे में कस लिया है। वास्तविक किसान संगठनों में जो समझौते के पक्ष में थे वे भी कन्नी काट रहे हैं। क्यों? वस्तुतः ऐसा माहौल बना दिया गया है कि वास्तविक किसान संगठनों का कोई नेता अगर समझौते की बात करता है तो वह हाशिए पर फेंक दिया जाएगा। न्यायालय का काम राजनीति से निपटना नहीं है।