गुलजार : रात के हाथों पर चांद की मिश्री

'कसैली रात के हाथों पर रख दी चांद की मिश्री
ये दिन रूठा हुआ था धूल में लिपटा हुआ कब से
तेरे आंचल से चेहरा पोंछकर बहला लिया उसको
मैं अपने ही गले से लग गया, नाराज सा खुद से।'
 
चांद की मीठी उपमा यह बताने में समर्थ है कि नज्म की यह खूबसूरती किस शायर की कलम से टपकी है। 'गुलजार' यही नाम है। उस शब्द बाजीगर का, जिसका होना ही फिल्मोद्योग में खास अर्थ रखता है। उनके भावुक दिल से उठी हर नज्म में एक कलात्मक ताजगी है। रचनात्मक संतोष है और संवेदना की गहरी अनुभूति है।

रातभर सर्द हवा चलती रही
रातभर बुझते हुए रिश्तों को तापा हमने
 
इन पंक्तियों पर लेखिका अमृता प्रीतम ने लिखा था- 'उनकी नज्मों में एक खामोशी है, जो अक्षरों को पाकर भी बोलना नहीं जानतीं। उनके इन अक्षरों से गुजरते हुए एक जलते और बुझते रिश्तों का कंपन, हमारी रगों में उतरने लगता है, इतना कि आंखें उस कागज की ओर देखने लगती हैं, जो इन अक्षरों के आगे खाली हैं और लगता है कि एक 'कंपना' है, जो उस खाली कागज पर बिछा हुआ है। 
 
बहरहाल, शब्दों और भावों के इस कुशल कलाकार का जन्म 18 अगस्त सन् 1936 में दीना (पाकिस्तान) में हुआ। परवरिश उनकी दिल्ली में हुई। 
 
रूपहली दुनिया में गुलजार का प्रवेश बिमल राय की फिल्म बंदिनी (1963) के गीत 'मोरा गोरा अंग लई ले' के लेखन से हुआ। ऋषिकेश मुखर्जी और बिमल राय जैसे प्रतिभावान निर्देशकों के साथ चलते हुए कोमल और अर्थपूर्ण गीत लिखे। 
 
पटकथा/ कथा लिखने का जौहर भी दिखाया। मेरे अपने/ आंधी/ मौसम/ खुशबू/ किनारा/ मीरा/ परिचय/ लेकिन/ लिबास/ माचिस और हूतूतू जैसी फिल्मों की सुनहरी सूची है, जो उनके निर्देशक रूप को चमक देती है। 50 से अधिक फिल्मों की पटकथा लिख चुके गुलजार ने दूरदर्शन के लिए धारावाहिक 'मिर्जा गालिब' और 'किरदार' बनाए हैं। 
 
अपने लेखन की विविधता के विषय में गुलजार फरमाते हैं- जब एक ही व्यक्ति ये सारे काम करता है, तो वह स्वयं चरित्रों की मन:स्‍थिति को जीता है, साथ ही उनकी संवेदना का स्पर्श श्रोताओं/ दर्शकों/ पाठकों को देने का प्रयास करता है।
 
चल गुड्डी चल बाग में/ पक्के जामुन टपकेंगे और जंगल-जंगल बात चली है/ पता चला है/ चड्डी पहनकर फूल खिला है, जैसी रचनाएं बच्चों के प्रति उनके आकर्षण को दर्शाती हैं। वे कहते हैं, 'बच्चों के लिए लिखना अच्‍छा लगता है, बल्कि हर लिखने वाले को उनके लिए लिखना चाहिए। वे संवेदनशील होते हैं। उनसे बतियाना मेरा प्रिय शगल है। कभी-कभी तो लगता है कि मैं आज भी बच्चा ही हूं।' 
 
लेखन में उर्दू शब्दों की बहुलता पर गुलजार कहते हैं, मेरे लिखने की भाषा हिन्दुस्तानी है। जिस भाषा का प्रयोग बोलने में करता हूं, उसी में लिखता हूं। इसमें बुराई क्या है। 
 
लेखन की प्रेरणा गुलजार अपने परिवेश से लेते हैं। अलग-अलग घटनाएं, माहौल, लम्हें, भावनाएं यही सब वे चीजें हैं, जो उनके अनुसार रचनात्मकता को जन्म देती हैं। 
 
आओ फिर नज्म कहें
फिर किसी दर्द को सहलाके सुजा लें आंखें
फिर किसी दुखती हुई रग से छुआ दें नश्तर
या किसी भूली हुई राह पे मुड़कर एक बार
नाम लेकर किसी हमनाम को आवाज ही दे लें
फिर कोई नज्म कहें।
 
गुलजार ने नज्में लिखीं, तो कहानियां छपीं। गीत लिखे, तो निर्देशन में आ गए। कहा‍नियां लिखीं, तो पटकथाओं में ख्याति पाई। ऐसा ही कुछ सिलसिला अब तक जारी है। 
 
गुलजार की ही कलम से- 
 
इस मोड़ से जाते हैं, कुछ सुस्त कदम रस्ते, 
कुछ तेज कदम राहें/ पत्थर की हवेली को/ 
शीशे के घरौंदे में/ तिनकों के नशेमन तक/
उस मोड़ पे बैठा हूं जिस मोड़ से जाती है, 
हर-एक तरफ राहें। 

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