सोशल मीडिया और जहां- तहां बहस छिड़ी हुई है कि हैदराबाद केस में पुलिस ने जो कदम उठाया, क्या उसे सही ठहराया जाना चाहिए। सच कहूं , तो पीड़िता को न्याय जल्द से जल्द मिलना चाहिए था पर इस तरीक़े से मैं सहमत नहीं होती, क्योंकि इस तरह तो पुलिस की निरंकुशता और बढ़ जाएगी। आज जनता का मन भांप कर पुलिस ने ये कदम उठाया, तो हम ख़ुश हो रहे हैं, पर सोचिए, अपराधियों के हौसले बढ़ने देने में किसका हाथ है।
पुलिस अब भी पीड़िताओं के साथ अच्छा सुलूक नहीं करती। पुलिस वाले ज़्यादातर मामलों में तो FIR तक लिखने से मना कर देते हैं। जनता में ये विश्वास नहीं जगा पाते, कि पुलिस की तरफ से उन्हें कोई मदद मिलेगी। इसलिए अब एक एनकाउंटर करके पाक-साफ़ होने का स्वांग करना सही नहीं है।
व्यवस्थाओं को सही जगह सही वक्त पर सही तरीक़े से बदलने की ज़रूरत है। ये सही है कि इंसाफ़ क़ानून के ज़रिए मिलना चाहिए था, न्याय का मूल सिद्धांत भी यही है कि पीड़ित को लगना चाहिए, कि उसे न्याय मिला है और अपराधी को लगना चाहिए कि उसे सज़ा मिली है।
दूसरे शब्दों में अब कानून का मतलब justice delayed is justice denied हो गया है लेकिन फिर भी यही कहूंगी, कि ऐसे मामलों में फ़ेयर ट्रायल होना चाहिए, क़ानूनी ढंग से जल्द से जल्द फांसी मिलनी चाहिए, वरना कल को पुलिस इस तरह से किसी निरपराध का भी एनकाउंटर कर सकती है। इसलिए सब क़ानून के तहत ही होना चाहिए, लेकिन अक्सर बहुत से मामलों में कानून कुछ नहीं करता।
कल ही 2018 में एक नाबालिग से हुए रेप के मामले में दोषी को अलवर की कोर्ट ने 10 साल जेल की सजा सुनाई है। कोर्ट में साबित हुआ कि वो आदतन अपराधी है और छोटी बच्चियों को शिकार बनाता है। न्याय तो हुआ लेकिन 10 साल बाद ये दरिंदा जेल से छूट जाएगा फिर कई और बच्चियों की जिंदगी तबाह करेगा। निर्भया केस में भी जो हुआ, वो सबको पता है। मतलब अगर यही न्याय है तो शायद इसलिए इस बार हैदराबाद केस में जो हुआ, वो गलत नहीं लग रहा।
जिस तरह न्यायालयों के निर्णय में देर होती है, आरोपियों के हौसले तो बुलंद होते ही हैं, संभावित आरोपियों की संख्या भी बढ़ती जाती है। इसलिए क़ानून का नहीं, तो पुलिस एनकाउंटर का डर अगर रेप के हादसों पर लगाम लगा सकता है तो यही सही।