आ रहा है स्वतंत्रता दिवस : सवाल फिर वही...

धीरेन्द्र गर्ग
 
हम लोकतंत्र में रहते हैं और अगर लोकतंत्र में सभी को बराबर भागीदारी और साथ न मिले तो सच्चा जनतंत्र नहीं कहा जा सकता है। आने वाले पंद्रह अगस्त को भारतीय स्वतन्त्रता के अध्याय में एक और साल जुड़ जाएगा। इसी दिन हमने अत्याचारी ब्रितानी हुकूमत के बाद आजादी का पहला सूरज देखा था। आज़ाद होने के बाद यह सोचा गया था कि हिन्दुस्तान एक धर्मनिरपेक्ष देश होगा। इसमें साम्प्रदायिकता अतीत की चीज़ होगी लेकिन यह दुर्भाग्य रहा कि ऐसा हक़ीक़त में हो नहीं पाया।


अब तक देश ने कई प्रधानमंत्री व सरकारें देखी। देश में प्रगति भी हुई परन्तु आज जब मैं इस अज़ीम देश के 68 वर्षों का इतिहास देखता हूं तो मेरे ज़ेहन में कुछ ख़लिश होने के साथ कुछ सवाल भी कौंधते हैं जिसका जवाब कहीं भी नहीं मिलता दिख रहा है। यहां एक प्रश्न इन नीति नियंताओं से है कि स्वतंत्रता प्राप्ति के इतने सालों बाद भी देश का एक बड़ा हिस्सा गरीब क्यों है? क्या इसके लिए वे लोग जिम्मेदार हैं जिन्होंने प्रतिनिधि चुनकर एक समृद्धशाली देश का स्वप्न देखा! एक रिपोर्ट के अनुसार आबादी के मात्र 18 प्रतिशत के पास ही इक्कीसवीं सदी की मूलभूत सुविधाएं जैसे स्वच्छ पानी, सफाई तथा भोजन है जबकि अनेक योजनाएं सरकार जनहित में चला रही है। आज देश का एक बड़ा तबका शिक्षा, स्वास्थ्य, सड़क, बिजली तथा पानी जैसी सुविधाओं से महरूम क्यों है? क्या यह उन मरहूम महान सेनानियों का अपमान नहीं है? जिन्होंने हमें आज़ाद कराने के लिए अपनी बलि दे दी। मैं विकास का झुनझुना थमाने वाले राजनीति के खिलाड़ियों से जानना चाहता हूं कि आज भी देश की लगभग 33 करोड़ की आबादी गरीब क्यों है?


जबकि कुबेरपतियों की संख्या में लगातार इज़ाफ़ा हो रहा है। इस तथाकथित कृषि प्रधान देश में आज अन्नदाताओं की हालत इस कदर ख़राब है कि वे आत्महत्या करने पर मज़बूर हैं। एनसीआरबी की माने तो अब तक देश के 2 लाख किसानों ने आत्महत्या कर ली है और 41फीसदी किसान खेती छोड़ना चाहते हैं। ऐसे में हमारे सामने खाद्यसुरक्षा की जबरदस्त चुनौती होगी। मंहगाई ने सबका गला दबा रखा है, दिनोंदिन आतंकवाद देश में जड़ें जमा रहा है फिर भी आज़ादी का जश्न!

इन सब का ज़िम्मेदार कौन है? क्या इन सबके बाद भी हम महान हैं? ऐसे में हालत में शायद सोचनीय है। यदि सिलसिला ऐसा ही रहा तो नीति-निर्माताओं से जनता का विश्वास भी उठ जाएगा। सिर्फ विश्वगुरु बनने का आलाप भरकर भारत को विश्व का अगुआ नहीं बनाया जा सकता। उसके लिए सरकारों को योजनाओं की रस्मअदायगी से ऊपर उठकर देश की आवश्यक आवश्यकताओं और समस्याओं पर ध्यान केंद्रित करना होगा।

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