पचास साल से ज़्यादा का वक्त होने आया! जिस एक व्यक्तित्व का चेहरा देश के इन कठिन दिनों में सबसे अधिक स्मरण हो रहा है, जिसकी छवि आंखों की पुतलियों में तैर रही हैं, वह जयप्रकाश नारायण (जेपी) का है। ऐसा होने के पीछे कुछ ईमानदार कारण भी हैं! जेपी के सान्निध्य में गुज़रा एक लंबा अरसा, उनके साथ विमान, ट्रेन और कार में की गईं यात्राएं आज भी स्मृतियों में ज्यों-की-त्यों क़ायम हैं।
साल 1972 में जेपी के समक्ष हुए दस्युओं के ऐतिहासिक आत्मसमर्पण के पहले चंबल घाटी में बिताया गया लगभग 3 महीने का समय और फिर 1974 में बिहार आंदोलन के दौरान जेपी के सान्निध्य में गुज़रा एक लंबा अरसा, उनके साथ विमान, ट्रेन और कार में की गईं यात्राएं आज भी स्मृतियों में ज्यों-की-त्यों क़ायम हैं।
हाल ही की एक यूट्यूब चैनल की बहस में मैंने ज़िक्र किया था कि 'भारत जोड़ो यात्रा' के दौरान मैसूर में भारी बारिश के बीच ज़रा भी विचलित हुए बिना भाषण करते 52 साल के राहुल गांधी का चित्र जब दुनिया ने देखा और वायरल हुए उस सभा के वीडियो में हज़ारों ग़ैर-हिन्दी भाषी श्रोताओं की भीड़ को निहारा तो मुझे 1974 के इलाहाबाद की एक ऐतिहासिक जनसभा की याद हो आई।
जून 1974 में इलाहाबाद के टंडन पार्क में 'संपूर्ण क्रांति' आंदोलन के समर्थन में आयोजित हुई छात्रों की विशाल सभा में 72 वर्षीय जेपी ने मूसलधार बरसात के बीच भी अपने उद्बोधन को जारी रखा था और श्रोता भी शांत भाव से लोकनायक के कहे एक-एक शब्द के साथ भीगते रहे थे। मेरा लिया जेपी का उस समय का चित्र आज की तरह तब वायरल नहीं हो पाया था। परिस्थितियां तब भिन्न थीं। उस समय न मोबाइल था, न टीवी चैनल्स थे और न ही सोशल मीडिया था। इस सबके बावजूद जेपी की 'संपूर्ण क्रांति' सफल हो गई।
स्मृतियों से बिंधा हुआ है कि 1974 में जेपी के साथ पटना से कलकत्ता के लिए ट्रेन में यात्रा के दौरान मैं देखता था कि रात के 12-1 बजे भी किस तरह लोकनायक की एक झलक पाने के लिए स्टेशनों पर जगह-जगह लोगों की भीड़ उनके डिब्बे के बाहर जमा हो जाती थी। जेपी और प्रभावतीजी के साथ जून 1972 में चुरू (राजस्थान) की यात्रा पर निकलते वक्त पुरानी दिल्ली के प्लेटफ़ॉर्म पर उपस्थित लोग अपने आपको आश्वस्त नहीं कर पा रहे थे कि ट्रेन की प्रतीक्षा में बिना किसी सुरक्षा और भीड़ के खड़े हुए शख़्स लोकनायक जयप्रकाश नारायण भी हो सकते हैं!
चुरू में उस शाम जेपी ने अचानक से पूछ लिया था : श्रवण कुमार, टहलने के लिए चलते हो? यह एक दुर्लभ क्षण था। मेरे मुंह से शब्द ही नहीं फूट पाए। शहर के बाहर शांत एकांत में जेपी और प्रभावतीजी के साथ टहलते वक्त लोकनायक से पूछे गए कई सवालों में साहस करके किया गया एक यह भी था कि 'क्या इंदिरा गांधी की हुकूमत आपको स्वतंत्रता सेनानी नहीं मानती?' यह वह वक्त था, जब दिल्ली में आज़ादी की 'रजत जयंती' मनाई जा रही थी और स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों को ताम्रपत्र दिए जा रहे थे, उनका सम्मान किया जा रहा था।
मेरे सवाल के उत्तर में जेपी कुछ क्षणों के लिए मौन हो गए थे, जैसे शून्य में कुछ तलाश कर रहे हों। फिर अपनी चिर-परिचित विनम्रता के साथ बग़ैर मेरी ओर देखे जवाब दिया : 'शायद ऐसा ही हो।' जेपी ने 2 शब्दों में बहुत बड़ा उत्तर दे दिया था। मैं आगे कुछ भी बोल नहीं पाया। प्रभावतीजी जेपी के कहे हरेक शब्द को ध्यान से सुन रही थीं।
डॉक्टर लोहिया के बारे में पूछे गए एक सवाल का जवाब अब 5 दशकों के बाद तो ठीक से याद नहीं, पर वह दिवंगत समाजवादी राजनेता के प्रति खूब आदर से भरा हुआ था। जेपी की चुरू में उपस्थिति से अणुव्रत आंदोलन के प्रणेता आचार्य तुलसी की पुस्तक 'अग्निपरीक्षा' को लेकर उत्पन्न हुआ सांप्रदायिक तनाव समाप्त हो गया था। जेपी के आग्रह पर आचार्य तुलसी ने अपनी विवादास्पद पुस्तक वापस ले ली थी।
'बिहार आंदोलन' के दौरान पटना में रहते हुए मैं आंदोलन से संबंधित सामग्री के प्रकाशन आदि के कामों में जेपी की मदद कर रहा था। कदमकुआं स्थित जेपी के निवास स्थान पर उनके 2 अत्यंत विश्वस्त सहयोगी (श्री अब्राहम और सच्चिदा बाबू) काफ़ी पहले से कार्यरत थे। प्रभाष जोशीजी ने मुझे बिहार आंदोलन की रिपोर्टिंग के लिए दिल्ली से कुछ दिनों के लिए भेजा था, पर जेपी ने अपने काम में सहयोग के लिए पटना में ही रोक लिया।
पटना में दोपहर बाद अथवा शाम का कोई वक्त रहा होगा। जेपी अपने निवास स्थान के निचले खंड (ग्राउंड फ़्लोर) पर स्थित बैठक से काम निपटाकर विश्राम के लिए ऊपरी तल पर पर बने शयन कक्ष के लिए सीढ़ियां चढ़ रहे थे। पटना पहुंचे मुझे तब ज़्यादा समय नहीं हुआ था। 15 अप्रैल 1973 को प्रभावतीजी के चले जाने के बाद से जेपी अकेले पड़ गए थे। सीढ़ियों के पास खड़ा हुआ मैं जेपी को धीरे-धीरे कदम उठाकर शयन कक्ष की ओर सीढ़ियां चढ़ते देख रहा था।
मैंने तभी अत्यंत विनम्रतापूर्वक कहा: 'बाबूजी मैं दिल्ली वापस लौटना चाहता हूं।' जेपी कुछ क्षणों के लिए रुक गए, जैसे कुछ समझने की कोशिश कर रहे हों। फिर धीमे से बोले: 'तुम जवान लोग ही अगर चले जाओगे तो फिर यह आंदोलन क्या हम बूढ़े चलाएंगे?' मैंने ज़ाहिर नहीं होने दिया कि उनके कहे के बाद मैं अंदर से कितना संताप कर रहा था।
जेपी ने बाद में बुलाकर दिल्ली वापस लौटने की मंशा का कारण पूछा। मैंने बताया कि सर्वोदय के कुछ स्थानीय पदाधिकारी काम में सहयोग नहीं कर रहे हैं इसलिए आंदोलन के प्रकाशनों का काम ठीक से नहीं हो पा रहा है। वे सब कुछ समझ गए। मुझे अपने साथ शयन कक्ष में रखी अपनी निजी अलमारी तक ले गए। फिर चाबी से अलमारी खोल उसमें से रुपयों की एक गड्डी निकाल मुझे सौंप दी और कहा: 'ये ख़त्म हो जाएं तो और मांग लेना।' जेपी ने मेरे पैर बिहार की ज़मीन के साथ हमेशा के लिए बांध दिए थे।
कुछ महीनों के बाद जेपी ने मुझे कहा कि बिहार आंदोलन का एक विश्वसनीय इतिहास लिखा जाना चाहिए। बिहार छोड़ने से पहले मैंने 'बिहार आंदोलन, एक सिंहावलोकन' लिखकर पुस्तक की पांडुलिपि जेपी को सौंप दी। जेपी ने पूरी पांडुलिपि पढ़ी और उसे पुस्तक रूप में सर्व सेवा संघ से प्रकाशित करवा दिया।
किताब के पहले पन्ने पर जो शब्द उन्होंने अपनी कलम से लिखे, मैं जीवन की अंतिम सांस तक के लिए जेपी के स्नेह का ऋणी हो गया। जेपी ने लिखा: 'बड़े परिश्रम और सावधानी से यह पुस्तिका श्रवण कुमार ने लिखी है। बिहार आंदोलन का यह निष्पक्ष और सहानुभूतिपूर्ण सिंहावलोकन है।'
महान वैज्ञानिक अल्बर्ट आइंस्टीन ने गांधीजी के बारे में 1944 में कहा था: 'आने वाली नस्लें शायद मुश्किल से ही विश्वास करेंगी कि हाड़-मांस से बना हुआ कोई ऐसा व्यक्ति भी धरती पर चलता-फिरता था।' जेपी एक ऊर्जा थे, रोमांच थे, आत्मीयता से भरी हुई एक प्रतीक्षा थे।
आज़ादी के इतिहास को नए सिरे से लिखने की क्रूरता जब किसी दिन थककर पस्त हो जाएगी, आइंस्टीन जैसा ही कोई संवेदनशील वैज्ञानिक ही विनोबा और जेपी जैसे हाड़-मांस वाले व्यक्तियों की उपस्थिति के चमत्कार के बारे में भी लिखेगा।
(इस लेख में व्यक्त विचार/ विश्लेषण लेखक के निजी हैं। इसमें शामिल तथ्य तथा विचार/ विश्लेषण 'वेबदुनिया' के नहीं हैं और 'वेबदुनिया' इसकी कोई जिम्मेदारी नहीं लेती है।)