किसी पार्टी को चुनाव से पहले क्या चाहिए? उसका कार्यकर्ता एक्टिवेट हो जाए और सड़कों पर मिठाई बांटने या रोने का उसे मौका मिल जाए। दोनों ही स्थितियां सपा की वर्तमान नौटंकी ने पार्टी को दे दी है। जो जमीनी हालात देख रहे हैं, वे जानते हैं कि मुलायम की विरासत बहुत चतुराई से अखिलेश को ट्रांसफर हो गई। जितनी उठापटक है, वह किसी शुद्धिकरण प्रक्रिया जैसी लगती है। अखिलेश ने कुछ किया या नहीं किया से ज्यादा जोर इस बात पर आ गया है कि वे अपने बाप से लड़ाई जीतते हैं या नहीं।
मुलायम अखिलेश को लेकर अब भी मुलायम हैं। इस बात का सबूत मुलायम सिंह यादव ने खुद ही अपनी कल जारी की गई चिठ्ठी के जरिए दे दिया। उन्होंने अखिलेश खेमे पर आरोप लगाते हुए कहा कि यह सब सीबीआई के डर से हो रहा है। रामगोपाल का बकायदा नाम लिखते हुए उनके निष्कासन को अब भी वैध ठहराया गया लेकिन इस चिठ्ठी में अखिलेश का नाम नहीं लिखा गया। इस चिठ्ठी में पहले ही लिखा गया कि रामगोपाल और अखिलेश द्वारा बुलाए गए कथित अधिवेशन में लिए गए सभी फैसले असंवैधानिक हैं। गौर करने वाली बात यह है कि अखिलेश का निष्कासन वापस लेने की बात भी इसी अधिवेशन में कही गई थी।
यदि सभी प्रस्ताव अमान्य कर दिए गए, तब तो अखिलेश भी निष्कासित ही माने जाएंगे। मुलायम से अखिलेश की मुलाकात के बाद निलंबन वापसी की घोषणा की गई थी। फिर शिवपाल और अन्य लोगों ने भी सांप्रदायिक ताकतों से मिलजुल कर लड़ने की बात कही थी। यह दिखाने की कोशिश की गई, कि सबकुछ सामान्य हो गया है। रामगोपाल यादव और शिवपाल यादव दोनों को मुहरों की तरह इस्तेमाल किया जा रहा है। एक ने रामगोपाल को अपना वजीर बना रखा है तो दूसरे ने शिवपाल यादव को। अखिलेश जो कुछ कर रहे हैं वो मुलायम के इशारे पर ही कर रहे हैं। ऐसा न होता तो मुलायम जैसे बड़े नेता बहुत पहले ही इस सियासी ड्रामे पर लगाम लगाने का इंतजाम कर चुके होते।
सियासी दंगल में यदि समाजवादी पार्टी नहीं भी उतरती तो साथ रहकर कौन-सा झंडा गाड़ देती? ये बात अखिलेश और मुलायम दोनों जानते हैं। अब बात को इतना बढ़ाया गया कि चुनाव आयोग तक यह बात पहुंच गई। इस पूरे मामले में एक बात तो साफ है कि नेताजी सिर्फ परिवार के बारे में नहीं सोच रहे हैं। वो एक तीर से दो निशाने साधने में लगे हुए हैं। अखिलेश को एक ऐसे नेता के तौर पर प्रोजेक्ट किया जा रहा है, जिसने नेताजी का तख्ता पलट कर दिया। नेताजी अपना दर्द बताते हुए कहते हैं कि अखिलेश पहले उन्हें बाप तो मानें। वहीं नरेश अग्रवाल की बात पर भी गौर करिए कहते हैं अखिलेश हमेशा मुलायम के बेटे रहेंगे लेकिन मुलायम कभी अखिलेश के बाप नहीं बन पाएंगे। कहना यह चाह रहे हैं कि वर्तमान सियासी खेल में मुलायम सियासत में अखिलेश के बाप साबित नहीं हो पाएंगे।
पार्टी के बयानवीर नेता भी इस पूरे ड्रामे से वाकिफ हैं। सुबह किसी को कुछ बनाया जाता है तो शाम को दूसरा धड़ा उसे निकाल देता है। मुलायम ने अखिलेश को अभी तक इतना ताकतवर बना दिया है कि वो खुद भी उनका कुछ नहीं बिगाड़ सकते।
यह विरासत ट्रांसफर करते समय ही मुलायम जानते थे, कि उनके परिवार में तो कम से कम अखिलेश के अलावा किसी पर भरोसा नहीं किया जा सकता। इस बात को भी हल्के में मत लीजिए कि यदि मुलायम यह सारा ड्रामा न करें तो सचमुच इस परिवार में सिर फुटव्वल की नौबत आ जाएगी। सभी पकी-पकाई राजनीति के सिरमौर बनना चाहते हैं, लेकिन सपा का आम कार्यकर्ता तक समझता है कि मुलायम की विरासत को शिवपाल कभी संभाल ही नहीं सकते हैं। ऐसा होता तो पहले ही वो खुद को कुछ बनाने में कामयाब हो जाते। अब मुलायम खुद को एक निरीह नेता के तौर पर प्रोजेक्ट करेंगे जिसे एक ताकतवर नेता ने हाशिए पर डाल दिया। ठीक वैसे ही जैसे बीजेपी के कथित दिग्गज मोदी के आने पर किनारे कर दिए गए थे। वो इसीलिए किनारे हुए क्यूंकि उन्हें सत्ता की भूख थी। वो मोदी से बड़ा कद स्वयं का मानते थे जाहिर तौर पर ऐसे हालात में मोदी उन्हें साथ लेकर काम कर ही नहीं सकते थे।
चुनाव के ऐन पहले मुलायम का यह सियासी दांव न सिर्फ अखिलेश को सपा कार्यकर्ताओं में मजबूत कर रहा है बल्कि शिवपाल और अन्य पारिवारिक चुनौतियों से भी ऊपर उठा रहा है। मुलायम ने एक सोची समझी रणनीति के तहत पहले अखिलेश को मुख्यमंत्री बनाया, फिर गाहे बगाहे सार्वजनिक रूप से उन पर वार करते रहे। चुनाव नजदीक आते हीं शिवपाल की पूरी नाराजगी को एक झटके में डिफ्यूज करने का मास्टर प्लान भी बना डाला। इस बात में भी संदेह नहीं होना चाहिए कि शायद सचमुच शिवपाल एंड कंपनी इस गलत फहमी में है कि मुलायम उनके साथ हैं। मुलायम भी चिठ्ठियों और बयानों के जरिए यह जता रहे हैं लेकिन उनका साथ होना तब तक मायने नहीं रखता, जब तक पार्टी के बड़े नेता, कार्यकर्ता और विधायक किसी के साथ नहीं होते।
ये सभी अखिलेश के साथ बिना मुलायम की शह के नहीं हो सकते। शिवपाल को सिस्टम के जरिए इशारों इशारों में मुलायम ने उनकी हैसियत भी दिखा दी लेकिन शायद वो समझ नहीं पाए। खैर ये सियासी ड्रामा न भी होता तो सपा कौनसा अगले चुनाव में झंडा गाड़ लेती लेकिन इस ड्रामे से कम से कम अखिलेश को अपने कार्यकर्ताओं में लोकप्रिय साबित करने के प्रयास में तो नेताजी कामयाब हो ही गए।