#NaturalSelfie की जरूरत क्यों आन पड़ी
डॉ. गरिमा संजय दुबे
किस तरह एक सार्थक विमर्श अनावश्यक वाद-विवाद का विषय हो जाता है। बाज़ार की ताकतों का हमारी इच्छाओं को बढ़ाना, कभी ज़ीरो फिगर ,कभी गोरे रंग के नाम पर आधुनिक स्त्री के भी केवल भोग्या अवतार का पोषण करना, पोषण इसलिए क्योंकि पुरुषवादी विचारधारा ने अपनी सहुलियतों से मापदंड बना दिए और स्त्री की प्रसंशा कर कर के यह बात उसके अवचेतन में डाल दी कि बस ऐसी हो तो तुम हो वरना हीन भावना भर दी जाती है उसमें परिवार की तरफ से, समाज की तरफ से और स्त्री शिकार हो जाती है उस षड्यंत्र का।
बचपन से उसे सिखाया जाता है कि किसी ने तुम्हारी तारीफ़ की है तो तुम हो वरना नहीं तुम्हारा कोई अस्तित्व नहीं,उसे अपने आप पर भरोसा करने के लिए दूसरे की आंखों के भाव का मोहताज बना दिया गया। इसी तारीफ़ के पीछे भागते भागते वह अपने को बाहरी तौर पर सुंदर बनाने के तमाम आडम्बर लेती है और बाज़ार समझ गया मानसिकता को तो उसके आत्मविश्वास को जोड़ दिया केवल देह से, कितने प्रसाधन है देह की सुंदरता को बढ़ाने के लेकिन अफ़सोस मन की सुंदरता को बढ़ाने का एक उपाय भी नही।
याद रखना होगा कि एक विमर्श पर एक होकर छोटे से प्रतीकात्मक सहयोग करने को हम नकार देंगे तो कभी किसी बड़े परिवर्तन की संभावना शेष नही रहेगी , किसी भी विमर्श पर इकट्ठा होने से पहले लोग सोचने लगेंगें कि कहीं यह नकल करार न दे दी जाए।
अब श्रृंगार तो हर मनुष्य का अधिकार है यहां तक कि प्रकृति की हर रचना अपने श्रृंगार को लेकर सजग है तो मनुष्य क्यों नहीं,फिर स्त्री को तो नख शिख तक का अधिकार है,किंतु यह बहस श्रृंगार के विरोध की है ही नही, बस इस बात को लेकर है कि कहीं श्रृंगार आपका जूनून तो नहीं, बिना मेकअप के आप बाहर निकलने में घबराती तो नहीं, कही आप ग़ुलाम तो नहीं हो गए, कहीं आपने अपने आंतरिक, नैसर्गिक, चारित्रिक सौन्दर्य से ऊपर दैहिक सौन्दर्य को तो नहीं रख दिया। कहीं आपका आत्मविश्वास सौन्दर्य प्रसाधनों और बाहरी आवरण की जंजीर में जकड़ा हुआ तो नहीं। आज के इस भौतिकतावादी युग मे अगर कोईं आपको अपने आप से मिलना और गर्व करना सीखा रहा है तो क्या गलत है। बस यही तो है Natural Selfie....