मध्य प्रदेश के नए मुख्यमंत्री के लिए दिल्ली दरबार में पूरे आठ दिनों तक चली विभिन्न बैठकों के बाद नए मुख्यमंत्री के रूप में एक अनजाने से विधायक मोहन यादव को कमान सौंपी गई है। इस निर्णय से मीडिया के साथ आमजन भी चौंका है, क्योंकि पहली बार इस महत्वपूर्ण सूबे में भाजपा ने कुल 230 सीटों में से 163 सीटें जीतकर कांग्रेस, छोटे-मोटे दलों और निर्दलीय का सूपड़ा साफ कर दिया है।
इस एकतरफा जीत का श्रेय पीएम नरेंद्र मोदी के विकास और प्रगति के नारे को दिया ही गया है, लेकिन पूर्व मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान लगातार पांचवीं बार नए मुखिया पद के पहले स्वाभाविक दावेदार थे, क्योंकि भाजपा की जीत में जो एक खास निर्णायक फेक्टर लाड़ली बहना योजना का काम आया, वो शिवराज सिंह चौहान के दिमाग़ की ही उपज थी। भले इस योजना को मुफ़्त की रेवड़ी कहा जाए और शिवराज सिंह चौहान को घोषणा वीर मुख्यमंत्री कहा जाता रहा हो, लेकिन उनकी यह योजना काफी रंग दिखा गई।
मध्य प्रदेश के दौरे पर पीएम नरेंद्र मोदी, गृहमंत्री अमित शाह, रक्षामंत्री राजनाथ सिंह जैसे राजनेता भी आए, लेकिन शिवराज सिंह चौहान ने सबसे ज्यादा रैलियां कीं। अपनी परंपरागत बुधनी सीट से वे नामांकन भरने के बाद वहां ज़्यादा रुके ही नहीं बल्कि पूरे प्रचार के दौरान एक बार भी बुधनी नहीं आए। वे मोहन यादव की तरह ही प्रदेश के सबसे बड़े ओबीसी (लगभग 50 फीसदी) समुदाय से भी आते हैं, लेकिन उनके लगातार पांचवीं बार मुख्यमंत्री बनने में यह बाधा आ गई कि उनके पहले देश में भाजपा का कोई मुख्यमत्री लगातार पांचवीं बार इस पद पर नहीं बैठा।
पीएम नरेंद्र मोदी तक गुजरात के लगातार चार बार मुख्यमंत्री रहे।मीडिया में और पूरे राजनीतिक हलकों में माना जा रहा है कि सिर्फ पीएम नरेंद्र मोदी, गृहमंत्री अमित शाह और कुछ कुछ मोहन यादव भी मोदी के मन की बात जानते थे, लेकिन कुछ सूत्र तो यहां तक कहते हैं कि मोहन यादव ने 19वें प्रदेश मुखिया की शपथ लेने के लिए अव्वल ही प्रिंस सूट सिलवाकर तैयार रखा था।
बताया जाता है कि करीब एक साल पहले जब तत्कालीन मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान को भाजपा आलाकमान रिप्लेस करने के मूड में था, तभी उसकी पहली पसंद मोहन यादव थे। दावे से कहा जा रहा है कि 17 नवंबर को वोटिंग और 3 दिसंबर को परिणाम आने के तत्काल बाद मोहन यादव दिल्ली जाकर पार्टी के वरिष्ठ नेताओं से मिल आए थे। इस बीच उन्हें प्रचार के लिए तेलंगाना भी भेजा गया था। वहां से लौटकर वे एक बार फिर पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी नड्डा से मिले थे और तभी जेपी नड्डा के आवास पर ही मध्य प्रदेश के आठ दिन तक चले मेलो ड्रामा की स्क्रिप्ट लिखी जानी शुरू हो गई थी।
बताया जाता कि जब वे अपने मूल शहर उज्जैन लौटे, जहां की दक्षिण सीट से वे लगातार तीसरी बार भाजपा के लिए जीते हैं, तो एक बड़े दैनिक के स्थानीय ब्यूरो में विजिट के दौरान बातों-बातों में यहां तक कह गए थे कि मैं छात्र जीवन से इतने बड़े-बड़े पदों पर रहा हूं। अब उज्जैन से दूसरी बार कोई विधायक सूबे का मुख्यमंत्री क्यों नहीं बन सकता? जान लें कि करीब चार दशक पहले उज्जैन के ही मूल निवासी स्व. प्रकाशचंद सेठी मध्य प्रदेश के कांग्रेस की तरफ से मुख्यमंत्री बने थे। बाद में सेठी जी ही देश के गृहमंत्री तक बने। उन्हें आगामी प्रधानमंत्री तक माना जाता था। हालांकि वे दिगंबर जैन थे।
चूंकि मध्य प्रदेश में ओबीसी समुदाय करीब पचास फीसदी है, इसलिए इसी समुदाय के नाम पर ही सहमति बनने के पूरे आसार थे, लेकिन इसी समुदाय से इस बार कुल 44 विधायक चुनकर आए हैं, जिनमें केंद्रीय मंत्री प्रहलाद पटेल प्रमुख हैं। उनका नाम भी इस बार खूब चला, लेकिन चूंकि ओबीसी समुदाय में भी यादव प्रजाति का प्रतिशत सबसे ज्यादा है, इसलिए पीएम नरेंद्र मोदी और गृहमंत्री अमित शाह ने छोटे फायदे को छोड़कर लंबे लाभ पर ध्यान दिया।
लंबा फायदा यह आंका गया कि आगामी लोकसभा चुनाव 2024 की मध्य गर्मियों में संभव हैं। मध्य प्रदेश में तो खैर कुल 29 सीटों में से 28 सीटें भाजपा के पास अभी भी हैं, लेकिन उसे लोकसभा चुनावों में असली चुनौती उत्तर प्रदेश और बिहार में मिल सकती है, जहां से क्रमश: 80 और 40 सीटें लोकसभा में जाती हैं। राजनीतिक पंडित मानते हैं कि लोकसभा चुनावों में उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी और बिहार में राजग मुख्य रूप से भाजपा को कड़ी टक्कर दे सकते हैं।
उत्तर प्रदेश में ओबीसी समाज में कुल 20 फीसदी यादव हैं तो बिहार में ओबीसी के कुल 63 प्रतिशत आंकड़े में 13 फीसदी यादवों का हिस्सा है। कहा जा रहा है कि रहीम के बेहद चर्चित दोहे, 'एकै साधे सब साधे, सब सब साधे सब जाए' की अदा में मोहन यादव मोदी के मन को अंतिम रूप से भा गए।जान लें कि मोहन यादव लगातार चौथी बार ओबीसी से ताल्लुक रखने वाले मुख्यमंत्री बने हैं। उनके पहले 2003 से 2023 तक उमा भारती, बाबूलाल गौर और लगातार चार बार शिवराज सिंह चौहान मुख्यमंत्री बने हैं।
बरास्ता मोहन यादव उत्तर प्रदेश में अखिषेक यादव और बिहार में तेजस्वी यादव की काट निकाली गई। मतलब यह कि उक्त दोनों सूबों में सपा, राजग और कांग्रेस के लिए भाजपा कम से कम अवसर छोड़ना चाहती है। अखिलेश यादव के स्व. पिता और पूर्व रक्षामंत्री तथा उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव पहलवान रहे हैं और डॉक्टर मोहन यादव न सिर्फ़ पहलवान हैं, बल्कि मध्य प्रदेश कुश्ती संघ के अध्यक्ष भी हैं। दीगर बात है कि उज्जैन सिहंस्थ भूमि हेरीफेरी में उनका नाम भी आ चुका है और हाल में उनका सरेआम भद्दी गालियां देते हुए वीडियो भी वायरल हुआ था, जबकि वे उच्च शिक्षामंत्री रहते हुए विधानसभा चुनाव लड़ रहे थे और पीएचडी के अलावा वे एमबीए भी हैं।
उनमें और मोदी में यह समानता बताई जाती है कि मोदी कभी चाय बेचते थे, तो मोहन यादव कभी अपने पिता के साथ पकोड़े बेचते थे, लेकिन अब उनकी कुल संपत्ति 40 करोड़ के आपास बताई जाती है। राजनीतिक पंडितों का मानना है कि सोशल इंजीनियरिंग का जो नया खाका मध्य प्रदेश में बनाया गया है, वो लोकसभा चुनावों में भाजपा का नवाचार भी सिद्ध हो सकता है। सफलता या असफलता मिलना अलग बात है।
राजपूत वर्ग को साधने के लिए पूर्व केंद्रीय कृषिमंत्री नरेंद्र सिंह तोमर को विधानसभा अध्यक्ष बनाया जा रहा है। वे खुद भी मुख्यमंत्री पद की दौड़ में शामिल थे। दो पूर्व कैबिनेट मंत्रियों को उप मुख्यमंत्री बनाया गया है। राजेंद्र शुक्ल विंध्य क्षेत्र से आते हैं और ब्राह्मण तबके से भी वास्ता रखते हैं।जगदीश देवड़ा दूसरे उप मुख्यमंत्री हैं, जो एससी वर्ग से आते हैं। वैसे प्रदेश के राज्यपाल मंगूभाई पटेल ने ये पंक्तियां लिखे जाने तक मोहन यादव को मुख्यमंत्री नियुक्त करते हुए नई सरकार बनाने का न्योता दे दिया है। इसमें इंदौर की सबसे चर्चित सीट नंबर एक से जीते भाजपा के राष्ट्रीय महासचिव कैलाश विजयवर्गीय को महत्वपूर्ण पोर्टफोलियो देना तय माना जा रहा है, क्योंकि वे खुद मुख्यमंत्री पद के प्रबल दावेदार थे।
समझा जा रहा है कि उनका आक्रामक स्वभाव और वैश्य समाज से उनका ताल्लुक उनके रास्ते का प्रमुख रोड़ा बन गया। मध्य प्रदेश में हरदम भाजपा या जनसंघ की तरफ से वही व्यक्ति सरकार का मुखिया बनता आया है, जो राष्ट्रीय स्वयं सेवक का विश्वस्त हो। फिर वो वीरेंद्र सखलेचा हों, सुंदरलाल पटवा हों, बाबूलाल गौर हों, कैलाश जोशी हों या शिवराज सिंह चौहान हों। मोहन यादव तो छात्र जीवन से संघ के बेहद विश्वस्त माने जाते रहे हैं।
अंत में फिलहाल इस नतीजे पर पहुंचा जा सकता है कि भाजपा आलाकमान ने नवाचार के अपने पुराने खाके को और व्यापक करते हुए उसमें ऑल इन वन का नया फार्मूला भी जोड़ा है। कारण कि डॉक्टर मोहन यादव भरपूर पढ़े-लिखे हैं। उच्च शिक्षामंत्री रहते हुए उन्होंने शिक्षा के क्षेत्र में खासकर सहकारिता को लेकर महाराष्ट्र जैसे आंदोलन की छोटी ही सही ठोस पहल की।खेलों में उनकी रुचि जगजाहिर है।ओबीसी और संघ से उनका वास्ता भी जाहिर हो चुका है।सामान्यतः उन्हें मृदुभाषी और कुशल वक्ता माना जाता है और सबसे बड़ी बात यह कि उनकी उम्र 58 साल ही है। (इस लेख में व्यक्त विचार/ विश्लेषण लेखक के निजी हैं। इसमें शामिल तथ्य तथा विचार/ विश्लेषण वेबदुनिया के नहीं हैं और वेबदुनिया इसकी कोई जिम्मेदारी नहीं लेती है।)