संसदीय लोकतांत्रिक व्यवस्था में राजनीति श्रेष्ठतम कर्म होना चाहिए, क्योंकि इसके माध्यम से लोगों की नियति निर्माण की भूमिका आपको मिलती है। वास्तव में राजनीति अपने मौलिक रुप में समाज सेवा ही है। लेकिन संसदीय लोकतंत्र के ऐसे निहित दोष हैं जो राजनीति को जनता की नजर में हेय भी बना देती है और यह पूरी तरह गलत और अस्वाभाविक नहीं होता।
आप देख लीजिए। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने 500 और 1000 के नोटों की वापसी का निर्णय किया। विपक्ष की इससे सहमति-असहमति हो सकती है। इससे अगर लोगों की कठिनाइयां बढ़ीं हैं, परेशानियां बढ़ीं हैं तो उसकी चिंता राजनीति को करनी ही चाहिए। किंतु राजनीति अगर देश के लिए है तो सबके मूल में देशहित की चिंता सर्वोपरि होनी चाहिए। क्या संसद और उसके बाहर जो कुछ हो रहा है उसे आप देशहित की राजनीति कहेंगे?
यह कौन-सा देशहित है कि आप जिद के कारण संसद को चलने ही न दें? अगर मूल ध्येय देशहित है तो फिर बहस के लिए किसी शर्त की जिद हो ही नहीं सकती। यह कौन-सी बात हुई कि बहस करेंगे तो केवल स्थगन प्रस्ताव के तहत ही। यह देशहित का कैसा व्यवहार है कि बहस तभी होगी जब प्रधानमंत्री पूरे समय मौजूद रहें?
क्या संसदीय इतिहास में आज तक ऐसा हुआ है जब किसी लंबी बहस में प्रधानमंत्री पूरे समय तक सदन में मौजूद रहें? अगर नहीं हुआ तो इसकी जिद क्यों? एक विशेष प्रस्ताव पर बहस कराने की जिद क्यों? क्योंकि आपकी राजनीति से देशहित का ध्येय अलग हो चुका है और दलीय तथा निजी हित सर्वोपरि है।
जरा गहराई से विचार करिए। ममता बनर्जी पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री हैं। इस निर्णय से उनको ऐसी क्या आफत आ गई कि प्रदेश से लेकर राजधानी दिल्ली तक प्रदर्शन कर रहीं है। राष्ट्रपति तक उन ने गुहार लगा दी। हांके भीम भए चौगुना की तरह उनके सांसद उनसे दो कदम आगे निकलने की होड़ में लोकसभा और राज्यसभा दोनों को अपनी उंगलियों पर नचाने में लगे हैं। ममता जिस सीमा तक आगे आ गईं हैं उनमें पीछे हटने की तत्काल गुंजाइश नहीं दिखती, इसलिए यही स्थिति आगे रहने वाली है।
हर पहलू से विचार करने और देशहित की कसौटी बनाने पर इस रवैये का कोई युक्तियुक्त कारण नजर नहीं आता। अगर उनकी रणनीति राष्ट्रीय स्तर पर मोदी सरकार के विरोध में सबसे आगे निकल कर भविष्य के नेतृत्व की दावेदारी पेश करना है तो इसे हम किसी दृष्टि से नैतिक राजनीति नहीं कह सकते। भले वे आम लोगों की परेशानियों का जिक्र करें, लेकिन इस राजनीति से कुछ हो रहा है तो देश का अहित ही।
यह बात अगर ममता जी और उनके पार्टी के माननीय सांसदों को बताई जाए तो उनका प्रतिप्रश्न होगा कि क्या हम देश विरोधी काम कर रहे हैं? कौन बताए कि देश का अहित और देश विरोधी हरकत समानार्थी शब्द ही है। यह अकेले ममता का मामला नहीं है। दोनों सदनों में सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी कांग्रेस को लीजिए। वह क्या कर रही है? ऐसा लगता है कि उसने मान लिया है कि विपक्ष में होने का मतलब सरकार के हर कार्य का विरोध ही करना है। उसे अफसोस हो सकता है कि नोट वापसी का काम उसने क्यों नहीं किया। तो क्या इसका परिमार्जन यही है कि संसद और बाहर आसमान सिर पर उठा लो? वह भी ऐसे कि संसद का गला दब जाए?
कांग्रेस देश की सबसे पुरानी और देश पर सबसे ज्यादा समय तक शासन करने वाली पार्टी है। ऐसी पार्टी को हर मामले पर व्यावहारिक और संतुलित रवैया अपनाना चाहिए। ऐसा तभी हो सकता है जब आपके लक्ष्य में देश की चिंता सर्वोपरि हो। अगर आप राजनीति केवल राजनीति के लिए करते हैं और उसमें चिंता केवल दलीय और नेताओं के निजी हित की है तो फिर ऐसा ही रवैया अपनाया जाएगा।
इस समय गांधी जी की याद आती है जो आजादी के साथ ही राजनीतिक दल के रूप में कांग्रेस की भूमिका से यह भांप चुके थे कि इसका मुख्य उद्देश्य देशहित नहीं रहने वाला है। इसलिए उन्होंने कांग्रेस को भंग करने का सुझाव दे दिया था। हालांकि ज्यादातर दल कांग्रेस से असंतोष के कारण पैदा हुए किंतु दुर्भाग्य से उन पर कांग्रेस का प्रभाव कई स्तरों पर देखा जा सकता है।
कई लोग इसे भारतीय राजनीति का कांग्रेसीकरण कहते हैं। कांग्रेसीकरण से मतलब राजनीति में मूल ध्येय येन-केन-प्रकारेण वोट पाना और उसको ध्यान में रखते हुए ही सम्पूर्ण राजनीतिक गतिविधियां चलाना है। दो स्थितियां दिखाई दे रहीं हैं। एक, कांग्रेस एवं उसके साथ कुछ अन्य विपक्षी दलों की कोशिश है कि अभी से मोदी सरकार के विरुद्व एकजुटता से गठजोड़ की ओर बढ़ने की कोशिश की जाए ताकि 2019 में अगर परिणाम भाजपा के पक्ष में न आए तो 2004 के संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन की तरह कोई प्रयोग करके सत्ता हासिल की जाए। अगर यह सोच है तो फिर इसमें यही होना है।
सरकार सही कर रही है, गलत कर रही है इससे कोई मतलब नहीं बस अपने संकुचित राजनीतिक लक्ष्य के अनुरूप काम करो। दूसरे, उत्तरप्रदेश सहित पांच राज्यों के चुनाव तो सामने है ही जिनमें कांग्रेस के साथ बसपा और सपा और आम आदमी पार्टी का दांव लगा है। इनको लगता है कि अगर किसी तरह हमने जनता के दिमाग में बैठा दिया कि सरकार का यह फैसला गलत है, उसने फैसले के पहले अपने लोगों को बता दिया और उन ने अपने नोट पहले ही बैंक में जमा करा दिया यानी मोदी ने इसमें घोटाला किया है तो फिर भाजपा का वोट घटेगा और उनको बढ़ जाएगा। तो इनका उद्देश्य साफ है। इस उद्देश्य के रहते देशहित की चिंता का प्रश्न कहां से पैदा होता है। देश जाए चूल्हे भाड़ में, हमारी राजनीति चलनी चाहिए और भाजपा भी एक राजनीतिक दल है उसे भी चुनाव लड़ना है तो वह इनके साथ तू डाल डाल हम पात पात का व्यवहार कर रही है। प्रधानमंत्री ने अपने सांसदों की बैठक में साफ कह दिया कि हमारे निर्णय में जनता साथ है इसलिए हमें झुकना नहीं है, आक्रामक होकर मुकाबला करना है। बावजूद इसके तटस्थता से विचार करें तो इस समय संसद ठप्प करने का पूरा दोष विपक्ष के सिर ही जाता है। सरकार अपनी ओर से बहस को पूरी तरह तैयार है। यह बात अलग है कि भाजपा संसद के बाहर विपक्ष से उसकी भाषा में मुकाबला करने को भी तैयार है। हालांकि यह कोई विश्वास नहीं करेगा कि भारत का कोई भी प्रधानमंत्री ऐसी नीच हरकत कर सकता है कि इतने बड़े फैसले की सूचना वह कुछ निहित स्वार्थियों को लीक कर दें। ऐसा निकृष्ट आरोप अपने-आप में हमारी राजनीति के स्तर को बताता है।
वास्तव में यह पूरा परिदृश्य भारतीय राजनीति के पतन को दर्शाता है। यदि राजनीति केवल देशहित के लिए हो जनहित के लिए हो जो कि उसे होना चाहिए तो यह समय एकजुटता का है। एक कदम उठा है जिसमें बड़े नोटों में कालाधन छिपाने वालों को चोट पहुंची है। किंतु इससे आम लोगों की परेशानियां भी बढ़ी हैं। नकदी के अभाव में बाजार सुस्त है। इसका असर अर्थव्यवस्था पर पड़ रहा है। एटीएम और बैंकों की भीड़ में लोगों के लिए आम खर्च तक के लिए रुपया पा लेना कठिन हो गया है। दैनिक मजदूरी पर काम करने वालों के सामने संकट पैदा हुआ है। वैसे यह स्थिति लंबे समय तक नहीं रहने वाली, पर जितने समय तक है उसके निदान की सम्मिलित कोशिश तो होनी चाहिए।
इसमें राजनीति की भूमिका यह होनी चाहिए कि सभी मिलकर संसद का सत्र है इसलिए उसमें विचार कर कैसे तत्काल इस कदम के जो कुछ प्रतिकूल परिणाम आ रहे हैं उनसे निपटा जाए, इस पर किसी निष्कर्ष तक पहुंचे। इसकी जगह केवल राजनीति के लिए टकराव की स्थिति देश को कई स्तरों पर क्षति पहुंचाने वाली है। ये यह क्यों नहीं समझते कि राजनीति अंततः तो देश के लिए ही है। अगर सारे दल केवल दलीय हित और नेता अपने राजनीतिक भविष्य की सीमा में संकुचित रहकर ही भूमिका निभाएंगे तो देश की चिंता कौन करेगा? देश के लिए काम करने वाली राजनीति कहां से आएगी? इन दो प्रश्नों का उत्तर निश्चित रूप से सारे विवेकशील और देश के भविष्य की चिंता करने वालों को आतंकित करता है।