बिहार एपिसोड के लिए राहुल जिम्मेदार

Bihar Politics: बिहार में पिछले दिनों जो एक और भारी उलटफेर हुआ, वह हमारी राजनीति का सनातन भ्रष्ट चेहरा तो है, लेकिन राजनीति को इस गंदगी से आज़ाद कराने के लिए लगातार दूसरी बार पैदल मार्च पर निकले कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी यदि चाहते तो यह प्रहसन टल भी सकता था।

दरअसल, राहुल गांधी की कुछ अटूट राजनीतिक नासमझियां हैं। उन्होंने अपनी मां सोनिया गांधी और अपने कुछ दरबारी लाल सलाहकारों की कान भराई के कारण कांग्रेस को गांधी-नेहरू परिवार की जागीर या प्राइवेट लिमिटेड कंपनी बना रखा है। एक बार  अंतरराष्ट्रीय समाचार एजेंसी बीबीसी ने उक्त नेहरू-गांधी परिवार की स्व. इन्दिरा गांधी के बाद वाली पीढ़ी के बारे में अलग तरह का विश्लेषण छापा था।
 
एजेंसी ने पूर्व प्रधानमंत्री स्व. राजीव गांधी (राहुल के पिताश्री) और खुद राहुल के बारे में उक्त मनोवैज्ञानिक विश्लेषण करते हुए लिखा था कि राजीव और राहुल राजनीति की कलाबाजी के लिए मानसिक और बुनियादी रूप से बने ही नहीं हैं। पिता-पुत्र एक सामान्य गृहस्थ बनकर ज़िंदगी बसर करते तो देश को आजादी दिलाने वाली पार्टी कांग्रेस की इस कदर लुटिया नहीं डूबती।
                
ज्ञातव्य है कि तमाम विपक्ष के एकीकरण के तहत इंडिया एलायंस की परिकल्पना मूलतः बिहार के लगातार नौवीं बार मुख्यमंत्री बने नीतिश कुमार के दिमाग की ही उपज थी और यह भी तथ्यगत सच्चाई है कि पिछले करीब 15 साल से नीतीश कुमार देश के अगले प्रधान सेवक बनने का ख्वाब बुनते रहे हैं। लगभग दो साल पहले तक वे एनडीए के साथ ही थे और उन्हीं की सोहबत की बदौलत एनडीए को 2019 के लोकसभा चुनाव में बिहार की कुल 40 में से 39 सीटें मिल गई थीं।
 
इसी कामयाबी से बौराए नीतीश कुमार जब प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी से अपना कद ऊंचा नहीं कर पाए, तो उन्होंने अपनी जानी-पहचानी अदा में एनडीए से इंटरवल लिया और विपक्षी एकता के तहत पिछले करीब छह महीनों से प्रधानमंत्री पद की अपनी दावेदारी तलाश करते रहे।

जब इंडिया गठबंधन की लगातार तीन या चार बैठकें हो गईं तो नीतिश कुमार का यह सोचना लाजिमी बताया जाता है कि वे विपक्षी महागठबंधन के संयोजक नियुक्त किए जाएं, ताकि यदि इंडिया अलायंस इस साल दो तीन महीने बाद होने जा रहे लोकसभा चुनाव में यदि केंद्र में सत्ता में आता है तो नीतीश कुमार की प्रधानमंत्री पद के लिए दावेदारी सभी विपक्षी दलों को कबूल हो।
 
राजनीतिक पंडितों का मानना है कि इसी मुद्दे पर जाकर राहुल गांधी ने एक बार फिर राजनीतिक नासमझी का ताजा प्रमाण दिया। बताया जाता है कि अन्य सभी राजनीतिक दल नीतीश कुमार को संयोजक बनाने के लिए तैयार थे, मगर राहुल गांधी ने एन वक्त पर फच्चर फंसा दिया कि चूंकि पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी इस बैठक में उपस्थित नहीं हैं, इसलिए उनकी (ममता बनर्जी) नीतीश कुमार के नाम पर सहमति आवश्यक है।

जरा सी बारीकी से यदि इस पूरे वाकए का सिलसिलेवार विश्लेषण किया जाए तो ममता बनर्जी की सहमति एक तकनीकी भूल थी, जिसे ई-मेल या फोन पर भी ठीक किया जा सकता था, लेकिन राहुल गांधी ने यह सामान्य सी स्मार्टनेस नहीं बताई और मणिपुर से मुंबई तक भारत जोड़ो न्याय यात्रा पर निकल पड़े, जिसका कांग्रेस के लोग ही कोई खास नोटिस फिलवक्त तो लेते दिखाई नहीं दे रहे।
 
मुमकिन यह भी है कि राहुल गांधी ने अपने कथित सलाहकारों जैसे दिग्विजय सिंह के सुझाव में आकर या उलझकर नीतीश कुमार को गच्चा दिया हो। अब इसका क्या किया जा सकता है कि एक नासमझी या चतुराई या कुछ और के कारण नीतीश कुमार का कद राष्ट्रीय स्तर पर हाल-फिलहाल तो राहुल गांधी से इक्कीसा हो गया है। (यह लेखक के अपने विचार हैं, वेबदुनिया का इससे सहमत होना जरूरी नहीं है) 
 

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