पत्रकारिता चरित्र से ही "सत्यान्वेषी" होती है! सच की तलाश करती है। तर्कणा की सुविधा का तक़ाज़ा है कि "सत्य" और "तथ्य" को बहुधा परस्पर पर्याय मान लिया जाता है, अलबत्ता सत्य तथ्य से अधिक मूल्यवान प्रत्यय है। मुसीबत तब पेश आती है, जब सत्य और तथ्य में परस्पर टकराव हो जावै और वह भी "सत्यान्वेषियों" के परस्पर संवाद के दौरान!
राजदीप सरदेसाई और अर्नब गोस्वामी के साथ इन दिनों यही हो रहा है!
वर्ष 2002 के गुजरात दंगों के दौरान एक पत्रकार के रूप में निजी अनुभवों का वर्णन करते हुए एनडीटीवी के तत्कालीन पत्रकार और रिपब्लिक टीवी के वर्तमान एडिटर इन चीफ़ अर्नब गोस्वामी ने एक घटना बयां की थी। वह क्लिप यूट्यूब पर गई, फिर हटाई गई, फिर उसे दूसरे स्रोतों द्वारा पुन: लगा दिया गया। जो भी हो, लेकिन इतना अवश्य था कि वह क्लिप देखकर एनडीटीवी में अर्नब के तत्कालीन सहयोगी रहे राजदीप सरदेसाई का माथा ज़रूर ठनका।
राजदीप सरदेसाई ने ट्वीट करके दो बातों की ओर ध्यान खींचा। अव्वल तो यही कि अर्नब 2002 के दंगों के दौरान गुजरात गए ही नहीं थे! दूसरे, अर्नब ने जिस घटना का उल्लेख किया है, वह तो उनके साथ घटी थी और इसका वर्णन उन्होंने अपनी किताब "2014 : द इलेक्शन दैट चेंज्ड इंडिया" में किया है।
ट्विटर पर हल्ला मचा देने वाली इस सार्वजनिक तनातनी का एक संदर्भ यह है कि "सदर" और "नायब" के बीच बहुधा पाए जाने वाले द्वैत-प्रपंच की तरह राजदीप और अर्नब लंबे समय से एक-दूसरे पर छींटाकशी करते आ रहे हैं। अर्नब निश्चित ही अब राजदीप की छाया से दूर निकल आए हैं। ना केवल राजदीप, बल्कि वे दिल्ली की मुख्यधारा की ज़द से भी दूर चले आए हैं और उसको "लुटियंस मीडिया" कहकर उस पर कटाक्ष करते हैं। इधर अपनी "प्राइम टाइम टीआरपी" पर पड़े डाके और अंग्रेज़ी मीडिया में सर्वमान्य छवि पर लगे ग्रहण से नाराज़ राजदीप भी अर्नब से खार खाए रहते हैं।
ऐसे में अर्नब के उस क्लिप को, जिसमें सत्य और तथ्य का आपस में जाने-अनजाने ही घालमेल हो गया जान पड़ता है, राजदीप अपने पक्ष में भुनाने से चूकने नहीं वाले थे।
अर्नब के ही मुहावरे में अब राजदीप पूछ रहे हैं कि "नेशन वॉन्ट्स टु नो" कि अगर अर्नब का दावा झूठा और कपोलकल्पित सिद्ध होता है तो क्या वे पद से इस्तीफ़ा देकर पत्रकारिता से संन्यास ले लेंगे। उन्होंने अर्नब को "फेंकू" (इस शब्द के श्लेष की अपनी शोभा है!) कहते हुए यह भी कहा कि आज उन्हें अपने पेशे पर शर्म आ रही है।
राजदीप सरदेसाई की इस तल्ख़ मांग के पीछे उन अनेक ग़ुस्सैल दहाड़ों का पार्श्वसंगीत है, जो अर्नब गोस्वामी के लटकों-झटकों की पहचान बन चुका है!
अर्नब के पक्ष में एक तस्वीर प्रस्तुत कर यह कहा गया कि देखिए अर्नब सच में ही 2002 में कवरेज करने गुजरात गए थे। दूसरी तरफ़ से पलटवार किया गया कि वे गुजरात ज़रूर गए थे किंतु क्या वे दंगों के दौरान गुजरात गए थे? अर्नब के पक्ष की ओर से अभी तक इसका कोई जवाब नहीं आया है।
अर्नब से सहानुभूति रखने वाले अभिनेता अनुपम खेर के इस मामले में कूदने से परिस्थितियां रोचक हो गईं। खेर ने कहा, "अर्नब के संन्यास की मांग करने वाले राजदीप क्या अपनी झूठी ख़बरों के लिए भी पत्रकारिता से संन्यास लेंगे?" इस बिंदु पर आकर यह स्पष्ट हो गया कि अब लड़ाई सत्य की उतनी नहीं है, जितनी कि छद्म की है!
अर्नब गोस्वामी "रिपब्लिक" टीवी के चौधरी बनने के बाद से ही जाने-अनजाने स्वयं को दक्षिणपंथी खेमे की ओर ले जाते नज़र आए हैं, वहीं राजदीप स्वयं को उदारवादी विचारधारा का मुखर प्रवक्ता जानते और मानते हैं। पिछले काफ़ी समय से अर्नब "लिबरल" और "लुटियंस" शब्दों को ही एक आक्षेप की तरह इस्तेमाल करते रहे हैं।
राजनीति में वाम और दक्षिण का विवाद हम देखते ही हैं और ऐसा नहीं है कि पत्रकारों के राजनीतिक पूर्वग्रह नहीं होते, किंतु राजनीतिक स्तर पर पत्रकारों के बीच वैसा ध्रुवीकरण, वैसा द्वेष और सार्वजनिक रूप से वैसी थुक्का-फ़ज़ीहत तो एक निहायत ही उत्तर-आधुनिक परिघटना है। दु:खद तो वह ख़ैर है ही।
इस मामले में सच जब सामने आएगा तब आएगा। अभी तो पत्रकारिता की सत्यान्वेषी निष्ठा और निष्पक्ष प्रतिज्ञा दोनों ही अपनी धुरी पर दोलती अवश्य दिखाई दे रही हैं।