भारतीय राजनीति के हरफनमौला योद्धा राजनारायण की ख्याति खुद को सर्वशक्तिमान समझने वाली इंदिरा गांधी को कोर्ट और वोट में हराने वाले नेता की रही। उनका जन्मशताब्दी साल बीतने जा रहा है। 1917 की अक्षय नवमी को जन्मे राजनारायण ताजिंदगी लोहिया के हनुमान के तौर पर सक्रिय रहे। अपनी राजनीतिक शैली के लिए वे आलोचनाओं के केंद्र में भी रहे। पिछली सदी के साठ के दशक में जब वे राज्य सभा पहुंचे तो कहा जाने लगा कि संसद में ध्यानाकर्षण प्रस्ताव के लिए दो शैलियां हैं। एक शैली भूपेश गुप्त, नाथ पई, मधु लिमये की है, जो अपनी तैयारी और तथ्यात्मक विश्लेषण से संसद का ध्यान अपनी ओर आकर्षित करती है, तो दूसरी शैली राजनारायण की है।
भारतीय संसदीय इतिहास में 4 मार्च 1953 का दिन ऐतिहासिक इन अर्थों में है कि उत्तर प्रदेश की विधानसभा में मार्शल बुलाए गए और प्राइमरी स्कूल के अध्यापकों की समस्याएं उठाने पर अड़े विधायक राजनारायण को बाहर निकाला गया। उत्तर प्रदेश की विधानसभा में यूं तो 21 अक्टूबर 1997 को जो हंगामा हुआ, वह संसदीय इतिहास का काला सच है। जिसमें विधायकों ने माइक तोड़कर तत्कालीन अध्यक्ष केसरीनाथ त्रिपाठी पर हमला किया था। जिसमें कई विधायक घायल हुए थे। तब भी राजनारायण को ही इस परंपरा के लिए जिम्मेदार ठहराया गया था। जबकि उऩके गुजरे तब 11 साल हो चुके थे।
बहरहाल ऐसी विवादास्पद घटना के बीज 8 सितंबर 1958 को उत्तर प्रदेश की ही विधानसभा में पड़े, जब कांग्रेस सरकार द्वारा गिरफ्तार अपने 987 कार्यकर्ताओं का मामला राजनारायण ने अपने साथी 12 विधायकों समेत उठाया था। लेकिन तत्कालीन मुख्यमंत्री संपूर्णानंद ने इस मसले पर चर्चा का विरोध किया और मामला बढ़ता गया। लेकिन राजनारायण अपनी मांग पर अड़े रहे।
इसके बाद संपूर्णानंद ने राजनारायण को विधानसभा से पंद्रह दिनों के लिए निष्कासन का प्रस्ताव पेश किया। जिसका समूचे विपक्ष ने विरोध किया। चूंकि कांग्रेस बहुमत में थी, इसलिए यह प्रस्ताव पारित हो गया। लेकिन राजनारायण ने निकलने से मना कर दिया तो सदन में मार्शल और सशस्त्र पुलिस बल बुलाया गया और राजनारायण को घसीटा गया, उन्हें साथी 12 विधायकों समेत बाहर फेंक दिया गया। इसमें उन्हें चोट भी लगी।
इससे आहत उनके गुरू डॉक्टर राम मनोहर लोहिया ने लखनऊ में खुद समाजवादी कार्यकर्ताओं के विरोध प्रदर्शन को संबोधित किया। तब लोहिया ने कहा था, 'जनता के हिमायती, संसदीय अधिकारों की रक्षा के योद्धा और सर्वोपरि हिंसा के दुश्मन और संसद में उतने ही, जितने उसके बाहर सिविल नाफरमानी के सिपाही की हैसियत से राजनारायण का नाम संसदीय इतिहास की परिचयात्मक छोटी-छोटी पुस्तकों में सुरक्षित रहेगा। उन्हें उस आदमी की हैसियत से याद किया जाएगा, जिसने अपने सिद्धांत का साक्षी अपने शरीर को बनाया। यह कहना बेहतर होगा कि राजनारायण ने संसदीय आईने को बेदाग और निष्कलंक रखने के लिए शारीरिक पीड़ा उठाई। चाटुकार और कपटी इसकी निंदा चाहे जितनी करें, यह संसदीय कार्यप्रणाली को दुरूस्त करने का बड़ा कारण होगा।
लोहिया यहीं नहीं रूके। उन्होंने शायद भविष्य देख लिया था। उन्होंने कहा था, ‘जब तक राजनारायण जैसे लोग हैं, देश में तानाशाही असंभव है।’ 17 साल बाद लोहिया की यह भविष्यवाणी सही हुई, जब सर्वशक्तिमान इंदिरा गांधी के रायबरेली का चुनाव कदाचार के आरोप में इलाहाबाद हाईकोर्ट ने राजनारायण की ही याचिका पर खारिज कर दी। इसके दो साल बाद हुए आम चुनावों में उन्होंने इंदिरा गांधी को रायबरेली के चुनावी मैदान में भी परास्त किया।
राजनारायण मुंहफट थे। जमींदार परिवार के बेटे थे और काशी हिंदू विश्वविद्यालय में कानून की पढ़ाई की थी। तब अंग्रेजी माध्यम से ही पढ़ाई होती थी। इसके बावजूद उन्होंने हिंदी में काम करने और हिंदी को आगे बढ़ाने का व्रत लिया था। इसमें उन्हें आर्यसमाज की विचारधारा से मदद मिली थी। उन्हें संसद में खुलकर यह कहने में भी संकोच नहीं होता था कि उन्हें हिंदी नहीं आती। एक बार उन्होंने तत्कालीन केंद्रीय मंत्री एस मोहन कुमार मंगलम को लेकर संसद में कोई बयान दिया। जिसका मोहन कुमार मंगलम ने अंग्रेजी में जवाब दिया तो उन्होंने अंग्रेजी में बोलना शुरू किया और साथ में यह भी कह दिया कि राजनारायण अच्छी अंग्रेजी जानते हैं और उन्हें इसे समझने में कोई दिक्कत नहीं होगी। लेकिन राजनारायण ने खुलकर जवाब दिया था, 'मैं भारतवर्ष में पैदा हुआ हुं और हमारे माता-पिता एक-भी अंग्रेज नहीं बने। हमारी अंग्रीज खराब है।....हमें अंग्रेजी कम आती है तो बुराई क्या है? क्या यह कोई हमारी मदर टंग है?'
राष्ट्र भाषा को लेकर राजनारायण का दृढ़ विश्वास था कि राष्ट्रभाषा का मतलब पूरे राष्ट्र की भाषा होना। वैसे राष्ट्र भाषा का मतलब राष्ट्र की भाषा से भी लगाया जा सकता है। अंग्रेजी के बरक्स राजनारायण अपने गुरु डॉक्टर राममनोहर लोहिया की तरह हिंदी को दोनों ही अर्थों में सच्ची राष्ट्रभाषा मानते थे। उनका भी मानना था कि अंग्रेजी के कारण देसी भाषाओं का नुकसान होगा। गांधी जी की तरह वे भी केंद्र में हिंदी और राज्यों में देसी भाषाओं को देखना चाहते थे और गाहे- बगाहे इसकी चर्चा करते रहते थे। उनका भी मांनना था कि हिंदी किसी देसी भाषा को दबाएगी नहीं और उनके विकास में भागीदार होगी। फिर वे भी हिंदी के विकास में सहयोगी बनेंगी।
उन्होंने हिंदी और भारतीय भाषाओं को आपसी झगड़े से दूर रखने की कोशिश भी की। यही वजह है कि उन्होंने अपने भाषणों में लोकभाषाओं से शब्दों को खूब लिया। चूंकि वे भोजपुरीभाषी थे और अवधी भी जानते थे, इसलिए अपने भाषणों में दोनों ही लोकभाषाओं से शब्दों को पिरोकर उन्हें चुटीला बनाने की कोशिश खूब की। गांधी जी ने राष्ट्रीयता और राष्ट्रभाषा के सवाल को एक साथ जोड़ दिया था। गांधी का मानना था कि राष्ट्रीय मन अंग्रेजी विरोधी और राष्ट्रभाषा समर्थक होगा। राजनारायण की भी वैसी ही मान्यता थी। उनका यह भी मानना था कि हिंदी के लिए भाषा केंद्रित आंदोलन चलाने से हिंदी को उसका उचित सम्मान नहीं मिल पाएगा।
राजनारायण मानते थे कि सेठ गोविंद दास, नागरी प्रचारिणी सभा जैसे व्यक्ति और संस्थाएं हिंदी को लेकर जो आंदोलन चलाते हैं, वह सिर्फ भाषा केंद्रित हैं, इसीलिए हिंदी अपना वाजिब हक हासिल नहीं कर पा रही है। हिंदी को लेकर राजनारायण ने 1958 में आंदोलन किया। लोहिया के अंग्रेजी हटाओ आंदोलन में 10 मई 1958 को सत्याग्रह करते हुए उन्होंने वाराणसी में सत्याग्रह किया था। जिसमें उनकी गिरफ्तारी हुई और उन्हें 19 महीने की सजा के साथ उन पर 400 रूपए का जुर्माना लगाया गया था। 1968 में जब राजभाषा संशोधन विधेयक पारित हुआ और हिंदी को अनंत काल के लिए राष्ट्रभाषा के हक से वंचित कर दिया गया तो इसके खिलाफ काशी हिंदू विश्वविद्यालय के छात्रों ने आंदोलन किया और राजनारायण ने उस आंदोलन का नेतृत्व किया था।
इस आंदोलन का दमन करने के लिए विश्वविद्यालय में पुलिस जबर्दस्ती घुस गई, तब राजनारायण ने घोषित किया कि पुलिस प्रवेश से विश्वविद्यालय अपवित्र हो गया और पुलिस प्रवेश के खिलाफ विश्वविद्यालय के सिंहद्वार पर उन्होंने अनशन भी किया था। देश में अब भी उच्च न्यायपालिका का कामकाज कराने के लिए मांग हो रही है। इसे लेकर शिक्षा उत्थान न्यास जैसे संगठन लगातार प्रयासरत हैं। इसके बावजूद सिर्फ चार हाईकोर्ट में ही हिंदी में कामकाज हो रहा है। बहुत कम लोग जानते हैं कि 1970 में राजनारायण ने सुप्रीम कोर्ट से हिंदी में पीठ बनाने के लिए मना लिया था। इसकी बाकायदा घोषणा भी हो गई थी। राजनारायण के प्रयासों से सर्वोच्च न्याय जनभाषा में सुलभ होना शुरू ही होने वाला था, लेकिन किसी ने इस योजना में फच्चर फंसाया और यह महती योजना लागू होते–होते रह गई।