वह सर्वोच्च अदालत है, आप उसके फैसले पर सवाल नहीं उठा सकते, आप उस पर बहस कर सकते हैं, चिंतन कर सकते हैं, चिंता व्यक्त कर सकते हैं, परेशान हो सकते हैं पर सवाल नहीं उठा सकते। मुझे याद है अपने विद्यार्थी जीवन की एक पंक्ति कि जब कार्यपालिका, विधायिका असफल हो जाए तो सामाजिक न्याय के लिए आप न्यायपालिका के द्वार खटखटा सकते हैं। एक अंतिम उम्मीद, अंतिम आसरा, अंतिम टिमटिमाती आशा की लौ... जहां न्याय की देवी आंखों पर पट्टी बांध कर बिना किसी का पक्ष लिए नीर-क्षीर विवेक से अपना फैसला सुनाएगी, एक और पंक्ति मुझे याद आती है कि भले ही 10 गुनाहगार छुट जाए पर कोई मासूम को सजा न हो....