सियासत की मजबूरी, गठबंधन जरूरी

- राघवेंद्र प्रसाद मिश्र
 
राजनीति में कुछ भी असंभव नहीं होता। सत्ता हासिल करने के लिए कब कौन किसका दामन थाम ले कुछ कहा नहीं जा सकता। अवसरवाद की राजनीति में नेताओं के चाल, चरित्र व चेहरे को समझ पाना थोड़ा मुश्किल है। भाजपा के बढ़ते जनाधार ने देश की राजनीति को एक नए मोड़ पर ला दिया है। एक-दूसरे की दुश्मन बनी पार्टियां भी भाजपा के विजय रथ को रोकने के लिए अब साथ आने में कोई संकोच नहीं कर रही हैं। वे पार्टियां आज एक साथ खड़े होने को तैयार हैं जिनकी विचारधारा एक-दूसरे के विपरीत रही हैं। उत्तर प्रदेश की सियासत में कुछ ऐसा ही प्रयोग होता दिख रहा है।


गेस्ट हाउस कांड के बाद से एक दूसरे पर हमलावर रही सपा-बसपा में तालमेल की नींव पड़ती दिख रही है, जिसकी शुरुआत गत चार मार्च को बसपा सुप्रीमो मायावती ने फूलपुर और गोरखपुर में हो रहे उपचुनाव में समाजवादी पार्टी को समर्थन करके कर दिया है। हालांकि इस समर्थन के ऐलान के बाद से यह कयास लगाया जाने लगा है कि बसपा केंद्र में भाजपा के खिलाफ एक बड़े राष्ट्रीय गठबंधन के लिए तैयार है। राजनीति में सहयोगी दलों का साथ आना-जाना तो लगा ही रहता है पर बसपा-सपा के साथ आने पर चर्चाओं का बाजार गर्म होना स्वाभाविक है।

क्योंकि वर्ष 1995 में राजधानी लखनऊ स्थित गेस्ट हाउस में सपा नेताओं ने मायावती के साथ जो कुछ किया वह राजनीति के लिए किसी कलंक से कम नहीं था। उस दिन बसपा सुप्रीमो मायावती के साथ न सिर्फ मारपीट हुई बल्कि उनके कपड़े फाड़कर आबरू लूटने की कोशिश भी की गई। मायावती के जीवन पर आधारित अजय बोस की किताब ‘बहनजी’ में गेस्ट हाउस कांड का भी जिक्र किया गया है। किताब के मुताबिक, संकट की इस घड़ी में बसपा के विधायक भी मायावती को अकेला छोड़कर भाग गए थे, लेकिन भाजपा विधायक ब्रह्मदत्त द्विवेदी ने उनकी जान बचाई थी।

अपने धुर विरोधी पार्टी को मायावती ने समर्थन कर यह सबित कर दिया है कि वह भी बहुजन समाज पार्टी संस्थापक कांशीराम का इतिहास दोहरा रही हैं। वर्ष 1993 में उत्तर प्रदेश में भाजपा की लहर थी और राम मंदिर आंदोलन चरम पर था। इस दौरान मुलायम सिंह यादव व कांशीराम के नेतृत्व में सपा-बसपा में गठबंधन हुआ था जिसके परिणामस्वरूप भाजपा को चुनाव में पराजय का सामना करना पड़ा था। ‘मिले मुलायम कांशीराम, हवा में उड़ गए जय श्री राम।’ उस समय यह नारा काफी लोकप्रिय हुआ था। राज्य में सपा और बसपा की साझा सरकार बनी, लेकिन 2 जून 1995 को एक रैली में मायावती ने सपा से गठबंधन वापसी की घोषणा कर दी।

अचानक इस समर्थन वापसी की घोषणा से समाजवादी पार्टी अल्पमत में आ गई। इसके बाद राज्य सरकार के गेस्ट हाउस में सपा कार्यकर्ताओं के उन्मादी तत्वों ने जो कुछ किया वह किसी कलंक से कम नहीं था। आखिर उस दिन गेस्ट हाउस में क्या हुआ था वह आज भी लोगों के लिए कौतुहल का विषय है। इस घटना के बाद से दोनों पार्टियों के बीच बनी तल्खी अब खत्म होने की कगार पर है। फूलपुर और गोरखपुर उपचुनाव के नतीजों से दोनों दलों के गठबंधन का रास्ता फिर से खुल सकता है।

लांकि इस समर्थन से दोनों पार्टियों के वे कार्यकर्ता खुद को ठगा महसूस कर रहे हैं जो इन दोनों पार्टियों के द्ंद्वयुद्ध का शिकार हुए हैं। यह बात किसी से छिपी नहीं है कि जब राज्य में सपा की सरकार बनती है तो बसपा और जब बसपा की बनती है तो सपा के कार्यकर्ताओं का उत्पीड़न होता रहा है। दोनों पार्टियों में कई कार्यकर्ता ऐसे हैं जो राजनीति का शिकार बने हैं, जिसमें कुछ जेल में हैं तो कई मुकदमों का दंश झेल रहे हैं। दिल मिले न मिले हाथ मिलाते रहिए के इस दौर में दोनों पार्टियों का साथ प्रदेश में क्या गुल खिलाएगा यह तो भविष्य के गर्त में है, लेकिन दोनों पार्टियों के कार्यकर्ताओं का जो सहयोग पार्टी को मिलना चाहिए वह शायद न मिल पाए।

नोटबंदी, जीएसटी, पीएनबी घोटाला व भारत-पाक सीमा पर अशांति के बीच भाजपा को लगातार मिल रही जीत से पार्टी काफी उत्साह की मुद्रा में नजर आ रही है। शायद यही वजह है कि भाजपा अपने सहयोगी दल तेलुगूदेशम पार्टी (तेदेपा) की राज्य को विशेष राज्य का दर्ज दिए जाने की मांग को लेकर दी जा रही धमकियों को कोई तरजीह नहीं दे रही है। दोनों दलों के बीच गठबंधन टूटने की नौबत आ गई है। आलम यह है कि तेदेपा के दो केंद्रीय मंत्री पी. अशोक गजपति राजू व वाईएस चौधरी ने अपने पद से इस्तीफा दे दिया, जिसे राष्ट्रपति ने स्वीकार भी कर लिया है। वर्ष 2014 आम चुनाव में आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री एन. चंद्रबाबू नायडू के नेतृत्व में दोनों दलों के बीच जो गठबंधन हुआ था वह आज लगभग टूट चुका है। मेघालय, नगालैंड और त्रिपुरा में भाजपा की सरकार बनने से विपक्षी दलों के सामने कई चुनौतियां उभरकर आई हैं।

भाजपा के विजय रथ को रोकने के लिए सभी दलों को केवल गठबंधन का ही रास्ता नजर आ रहा है। इसको लेकर सभी पार्टियां एक-दूसरे के संपर्क में भी हैं, लेकिन इन दलों को यह भी सोचना होगा कि ऐसी कौनसी कमी इन लोगों में थी, जिसका फायदा भारतीय जनता पार्टी को मिल रहा है। एक साथ आने से जीत हासिल करना आसान न होगा। जीतना है तो अपने अंदर व्याप्त खामियों को दूर करना बेहद जरूरी है, क्योंकि जिस हिसाब से भाजपा की विजय पताका लहरा रही है उससे यह तो साफ हो चुका है कि जनता जाति आधारित राजनीति को नकार चुकी है। 

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