एका तुफानाला कुणी घर देता का? (कोई घर दे सकता है क्या, घर, एक तूफ़ान को कोई घर दे सकता है क्या?)
मराठी भाषा के बड़े नाटककार विष्णु वामन शिरवाडकर के नाटक नट सम्राट (साहित्य अकादमी द्वारा पुरस्कृत) का यह चर्चित संवाद है। यह संवाद याद आने की वजह पुणे के स्पेशल ऐजुकेशन कॉलेज की वर्तमान स्थिति है। मूक बधिरों के लिए महाराष्ट्र का यह एकमात्र कॉलेज है लेकिन उसके पास जगह नहीं है, अपर्याप्त जगह में वे चुपचाप अपना काम कर रहे हैं और पूछ रहे हैं, क्या कोई जगह दे सकता है, मूक बधिरों के लिए कोई जगह दे सकता है क्या?
श्री सद्गुरु साईबाबा सेवा ट्रस्ट द्वारा संचालित स्व. सीआर रंगनाथन निवासी कर्ण बधिर विद्यालय एवं कॉलेज ऑफ़ स्पेशल ऐजुकेशन (एचआई) वर्तमान में टिंगरे नगर के रहवासी इलाके के अपार्टमेंट में चल रहा है। मूक-बधिरों के लिए कला एवं वाणिज्य संकाय का यह आवासीय स्कूल-कॉलेज है, लेकिन इसके विस्तार को देखते हुए कम से कम दो एकड़ ज़मीन की आवश्यकता है।
सीआर रंगनाथन् सन् 1975 के बैच के आईएएस अधिकारी थे। उनकी कोई संतान नहीं थी। मृत्यु के उपरांत उनका नाम इस दुनिया में रहे इसलिए उनके मित्र श्रीधर वैद्यनाथ, मानस भ्राता वंसतराव पाटोले ने उनकी स्मृति में सन् 1993 में केवल चार-पांच बच्चों को लेकर एक छोटे-से कमरे से इसे शुरू किया था। आज संस्था में लगभग साढ़े सात सौ बच्चे पढ़ रहे हैं।
ट्रस्टी स्वाति सदाकले वह सॉफ़्टवेयर दिखाती हैं, जिसे उन्होंने मूक-बधिर बच्चों के लिए बनाया है, ताकि बच्चे ऐनिमेशन के ज़रिए मल्टीमीडिया की मदद से एक ही समय पर देख सकें, साइन लैंग्वेज में समझ सकें और लिप रीडिंग (बोलते समय होठों का संचालन समझना) भी कर सकें। अभी यह केवल पहली कक्षा के लिए बना है, जिस पर उन्होंने निजी तौर पर लगभग तीन लाख रुपए खर्च किए हैं, लेकिन वे चाहती हैं कि अगली सभी कक्षाओं के लिए ऐसा सॉफ़्टवेयर विकसित हो, जिसका लाभ पूरे प्रदेश के छात्र ले सकें।
वे कहती हैं कि बच्चे साइन लैंग्वेज तो समझ लेते हैं, लेकिन बाहरी दुनिया से संपर्क करने के लिए उन्हें लिप रीडिंग समझना भी ज़रूरी है, तभी वे सामान्य लोगों से संवाद स्थापित कर पाएंगे। संस्था के अध्यक्ष प्रकाश ए. सदाकले बताते हैं कि संस्था की ओर से पांच से 18 आयु वर्ष के बच्चों की शिक्षा और पुनर्वास का कार्य किया जाता है। छात्रों को भोजन, निवास, युनिफ़ॉर्म आदि निःशुल्क प्रदान किया जाता है। इन छात्रों को पढ़ाई के लिए जिस तकनीक की आवश्यकता होती है, उसे भी संस्था ने अपने पैसों से या दान राशि से जुटाया है, इसमें कंप्यूटर लैब, एलसीडी प्रोजेक्टर, ई-लर्निंग शिक्षा विभाग, इयर मोल्ड बनाने का विभाग भी है।
दुर्गम क्षेत्रों के, गांव-कस्बे के बच्चे पढ़ने आते हैं और सरकारी नियमानुसार 75 बच्चों को सुविधा मिल जाती है, लेकिन शेष बच्चों का हर दिन का चाय-नाश्ता, तेल-साबुन…सारे खर्चे संस्था स्वयं वहन करती है। भोजन कक्ष में डायनिंग टेबल पर लड़के-लड़कियां साथ बैठकर भोजन करते हैं। संस्था के रसोईघर में आटा चक्की भी है तो बड़ा इडली पात्र भी ताकि बच्चों को विविधता में भोजन परोसा जा सके।
मुख्याध्यापक राजेंद्र भोसले चाहते हैं कि कक्षा एक से दसवीं तक के 210 बच्चों को स्कूल शुरू होने के पहले दिन से ही युनिफ़ॉर्म मिल जाएं तो वे भी स्कूल आने का आनंद महसूस कर सकें। यदि सम्मिलित प्रयासों से एक-एक बच्चे का भी युनिफ़ॉर्म व्यक्तिगत स्तर पर या संस्थागत स्तर पर दान राशि से आ जाए तो बच्चे बहुत खुश हो सकते हैं। कार्यालयीन लिपिक दिलीप मुटुके बताते हैं कि श्रवणयंत्र, बैटरी, कान का खांचा या उसके पार्ट्स से लेकर यूनिफ़ॉर्म, एक समय का भोजन-नाश्ता, अनाज-किराने का सामान, जो चाहे वह दान किया जा सकता है। संस्था को दी जाने वाली दान राशि पर आयकर कानून 1961 की धारा 80 (जी) के तहत आयकर में छूट मिलती है।