मन आज कुछ अकेला हो चला है। 'कोई होता जिसको अपना...' और 'कोई हमदम न रहा, कोई सहारा न रहा...' के बीच मन से उठी इस हूक को यूं एकदम आवाज दे पाना तो मुश्किल है। अपनी तन्हाई से अक्सर बात कर लेने का कामयाब मशविरा भी बहुत काम आता दिखता नहीं। 'सांझ ढले, गगन तले, हम कितने एकाकी...' का 'उत्सव' जरूर एक अच्छी बैकग्राउंड थीम की भूमिका निभा रहा है। बात अजीब लेकिन सच है- समुद्र में भटकती नाव, किनारे की तलाश में होती है। किनारे पर लाकर बांध दो तो वह समुद्र की हो जाना चाहती है। हर लहर के साथ रस्सी छुड़ाकर भाग जाना चाहती है। ...'ओ माझी रे अपना किनारा, नदिया की धारा है'। धार पर किनार और किनार पर धार ढूंढने का यह खेल दरअसल, जिंदगी, सच, अस्तित्व और पहचान की तलाश का 'डिफ्यूज्ड' प्रतिबिंब है।
मन भीड़ में अकेला क्यों हो जाना चाहता है? अकेलेपन मे साथ की तलाश क्यों होती है? 'छोटा सफर हो, लंबा सफर हो, सूनी डगर हो या मेला/ याद तू आए, मन हो जाए भीड़ के बीच अकेला' की तन्हा टीस के बीच इंसानी मन 'उम्र गुजरी है इस कदर तन्हा, काफिला साथ और सफर तन्हा' की कसक भी उतनी ही शिद्दत से महसूस करता है। इंसान को दरअसल भीड़ भी चाहिए और तन्हाई भी। भीड़ जहां उसे दुनिया के होने का एहसास देती है, वहीं तन्हाई अपने खुद के होने का। हमसफर के साथ इंसान जिंदगी को बटोरता है और तन्हाई में खुद को। साथ पाकर भले ही लोग पूर्णता को पा लेने का एहसास पा लेते हों, अपने अकेलेपन और तन्हाई का साथ न पा सकने वाले भी बहुत अधूरे हैं।
अकेलेपन की इसी हूक के बीच दुनिया से कूच कर गई दो ईरानी बहनों की खबर आई। पूरे उनतीस साल उन्होंने इसी तन्हाई की तलाश में गुजार दिए। यह दुर्भाग्य ही रहा कि उन दो जानों को केवल एक मौत ही जुदा कर पाई। एक जिस्म दो जान की अजीब कृति बनकर दुनिया में आईं लादन और लालेह बिजानी अपने-अपने स्वतंत्र अस्तित्व की ख्वाहिश लिए दुनिया से विदा हो गई। प्रकृति ने दो नावों को साथ जोड़ दिया था, वे रस्सी तोड़कर भाग गईं। प्रकृति के इस क्रूर मजाक का जवाब न दे पाने पर चिकित्सा जगत दु:खी है। बड़ी-बड़ी बीमारियों को जीत लेने और मनुष्य शरीर को रोगमुक्त करने के लिए संकल्परत चिकित्सा विज्ञानी बहुत कोशिश के बाद भी सफलता नहीं पा सके। महत्वपूर्ण प्रशन ऑपरेशन की विफलता का नहीं है। कई जटिल से जटिल ऑपरेशनों की सफलता के बीच असफलता का एक यह समाचार दु:खद जरूर है, पर हताश करने वाला नहीं। बहुत संभव है कि भविष्य में इस तरह का कोई ऑपरेशन सफल भी हो जाए। महत्वपूर्ण बात है उन दो जुड़वां बहनों की जुदा होने की ख्वाहिश। प्रेम के चरम पर अक्सर प्रेमी-प्रेमिका कहते हैं, 'दो जिस्म मगर एक जान हैं हम।' संबंधों की निकटता दर्शाने के लिए यह जुमला काफी उपयोग में आया है, लेकिन उनका क्या जिन्हें ईश्वर एक जिस्म, दो जान बनाकर इस दुनिया में भेज दे? निश्चित ही डॉक्टरों द्वारा एक या दोनों बहनों की मौत हो सकने की संभावना व्यक्त करने के बाद भी लादन और लालेह द्वारा ऑपरेशन की जिद किए जाने के पीछे स्वतंत्र अस्तित्व की तलाश का मनोविज्ञान छिपा है। सिर से जुड़े होने की वजह से होने वाली व्यावहारिक कठिनाइयों के अलावा इंसान की अपनी एक इकाई के रूप में तलाश बहुत महत्वपूर्ण है।
अपना ही पता जेब में लिए घूमता हूं मैं,
मिल जाए तो बताना, मुझे मेरी तलाश है।।
दो जिस्म एक जान हो जाने की कसमें खाने के बाद भी प्रेमी-प्रेमिका, पति-पत्नी अपनी मान्यता, अपना अस्तित्व चाहते हैं। एक थाली के दोस्त और दांत कटी रोटी खाने वाले लंगोटिए भी अपना कैनवास खुद रंगना चाहते हैं। ऐसे में लादन और लालेह की मौत की कीमत पर भी जुदा होने की ख्वाहिश मानव मन के तन्हा लम्हों को एक नया हदिया देती है। प्रकृति के लिए भले ही वे एक 'डिफेक्टिव पीस' रही हों और चिकित्सकों के लिए एक चुनौती और एक प्रयोग, पर लादन और लालेह की ख्वाहिशों का आसमान शायद इससे कहीं बड़ा था। ख्वाहिशों के इस आसमान पर अपने मन का इंद्रधनुष रंग लेने की अभिलाषा मानव मन का नैसर्गिक जज्बा है। इसकी पैकेजिंग तो डीएनए के साथ ही हो जाती है। इंद्रधनुष छोटा या बड़ा, कम या ज्यादा रंगीन हो सकता है। कोई राष्ट्रपति बनकर मरता है, कोई वैज्ञानिक, कोई अनाम सैनिक और कोई गरीब मजदूर। हर एक के भीतर एक जीता-जागता मन है। मन, जिसका एहसास दो आंखें, दो हाथ, सिर, नाक, कान के जरिए नहीं हो सकता। भावनाओं की अतल गहराइयों में डुबकी लगानी होती है। हाथ मिला लेने भर से इंसान से परिचय नहीं हो जाता। बहुत दूर तक जाकर भी आप थोड़ा ही 'परिचय' पा पाते हैं। ये जो 'परिचय' है, वही इंसान की पहचान है। इसी पहचान की तलाश में इंसान भटकता रहता है। लादन और लालेह को भी इसी 'पहचान' की तलाश थी। 'आइडेंटिटि क्राइसिस' एक बहुत खतरनाक चीज है।
'आईना देखकर
तसल्ली हुई,
मुझको इस घर में
जानता है कोई।'
अपनी पहचान की तरफ जाती पगडंडी पर चलकर गुमनामी भी मिले तो आदमी उस पर चलना चाहता है। अपनी पहचान मिल जाने के बाद अलबत्ता उस पहचान की ताईद करने के लिए आईना चाहिए होता है। एक साथी जो अक्स दिखा सके। ...और अक्स देख लेने के बाद भी जो मूल है, जो पहचान है उसे हर आदमी बनाए रखना चाहता है। इस बीच एक खबर और आई- गंगा और जमुना की। सर्कस में मनोरंजन का साधन बनकर रह गईं ये दो जुड़वां लादन और लालेह के हश्र से दु:खी हैं और अब कभी जुदा नहीं होना चाहतीं। दो बातें महत्वपूर्ण हैं- गांव में जन्मी लादन और लालेह अपने मूल पिता के यहां से भाग गईं और ईरान के एक डॉक्टर ने उनका पालन-पोषण किया। ईरान जैसे कट्टरपंथी देश में तेहरान विश्वविद्यालय से उन्होंने वकालत की डिग्री ली। हमारे यहां उन्हें (इस तरह की जुड़वां को) तमाशे और नुमाइश की चीज बना दिया गया। वे तमाशे के अलावा भी 'कुछ' हैं, इस एहसास को ही मार दिया गया। इसके बाद भी गंगा ठंडे दिमाग की है और जमुना मूडी। ... फिर वही डीएनए!!
भीड़ और तन्हाई की इस अजीबोगरीब और मासूम चाहत के बीच में ही कहीं इंसां थोड़ा जी लेता है। इसीलिए हर रिश्ते का सांस लेना जरूरी है। बहुत करीब होने के बाद भी अगर रिश्ते ऐसे चिपक जाएं कि उनसे हवा भी न गुजर सके तो वे दम तोड़ देंगे।
...फिलहाल तो सूनी रात की छत पर तन्हा चांद को ताकते इन खयालों को रात के साथ ही 'अकेला' छोड़कर आलेख को विराम देने के लिए नरेश सक्सेना का सहारा ले लेते हैं-