आजादी के परिप्रेक्ष्य में जब भी बात उठती है, तो सबसे पहले हमारे जेहन में देश की आजादी का ख्याल आता है। स्वाभाविक भी है यह। मुगल सल्तनत और अंग्रेजों की दासता से मुक्त कराने में हमारे शहीदों की शहादत प्रणम्य है। उन्हें याद करना, नई पीढ़ी को क्रूर इतिहास से अवगत कराना और देशहित में प्रेरणा लेना भी स्वतंत्र भारत की अनिवार्यता होना चाहिए, पर मुझे लगता है अब यह मात्र दिखावा बनकर रह गया है।
भारत को गुलामी के जीवन और उन यातनाओं से आजाद हुए 70 वर्ष हो गए हैं। उन दशकों में जन्मी अधिकांश आबादी भी अब मौजूद नहीं है। परिस्थितियां बदली हैं, हमारे सोचने-समझने का दायरा भी बदला है और इसके साथ ही हमारी जवाबदेही भी बदली है। वर्तमान परिप्रेक्ष्य में आजादी के मायने मुझे बदले हुए नजर आते हैं। आज आजादी की सर्वाधिक चर्चा स्त्री स्वतंत्रता को लेकर होती नजर आती है। स्वतंत्रता के नाम पर एक वर्ग की अकुलाहट/ विमर्श ने संपूर्ण व्यवस्था को ध्वस्त कर रखा है।
कह सकता हूं कि हम फिर एक नई गुलामी के युग में प्रवेश करते जा रहे हैं। साफ-सा आशय यह है कि जिस देश में नारी को देवी का महत्व दिया जाता हो, उनके विविध स्वरूप की पूजा-अर्चना की जाती हो, उसी देश में वह आज बराबरी का दर्जा पाने को व्याकुल है। क्या यह खुद के महत्व को कम करने वाली बात नहीं है? ऐसी आजादी किस काम की, जो मुख्य दायित्व से विमुख कर दे? माना बहुत बड़ा तबका आज भी शोषित है, पर क्या वह सीमित दायरे में सुरक्षित नहीं है?
स्वतंत्रता की आड़ में कितनी महिलाओं का आज भी शोषण होता है। स्वतंत्रता जब स्वच्छंदता की ओर बढ़ने लगती है तो फिर उसके परिणाम किसी न किसी की गुलामी पर ही आकर टिकते हैं, यह सार्वभौम सत्य है। अलावा इसके, एक महिला को यदि आवश्यकता न होने पर भी परिवार से नौकरी करने की आजादी मिलती है तो क्या वह दो-चार महिलाओं को अपने घर में काम वाली बाई के रूप में रखकर अपना गुलाम नहीं बनाती?
क्या स्वतंत्रता समान रूप से सबको हासिल हो सकती है? कहीं-न-कहीं कोई न कोई तो गुलामी करने को विवश होगा ही। यहां यह तर्क दिया जा सकता है कि उन्हें भी पैसों की जरूरत है। हम तो उपकार ही कर रहे, पर क्या यह समान स्वतंत्रता का रूप हो सकता है?
खैर, स्वतंत्रता के बदले अर्थों से न जाने कितने परिवार तबाह हुए हैं, चाहे वह लिव-इन-रिलेशन हो, एकाकी जीवन हो या घर के सदस्यों में बिखराव हो। बच्चों का लालन-पालन आया (गुलाम) के भरोसे हो या बुजुर्ग वृद्धाश्रम में रहें- जरूरी है हमारी स्वतंत्रता।
इतर इसके मैं तीन तलाक से मुक्ति या अन्य वे कुरीतियां जो स्त्री को अनावश्यक बंधन में बांधकर उनकी समान आजादी पर रोक लगाने का कुत्सित प्रयास करती हैं, के सदैव ही खिलाफ हूं। इनका प्रतिकार होना ही चाहिए और जहां परिवार या समाज के वश के बाहर हों इनसे निपटना तो इनमें विधायिका अथवा न्यायिक हस्तक्षेप का भी पक्षधर हूं। साथ ही इसके यह भी मानता हूं कि क्षेत्र चाहे कोई हो, आजादी को संयमित करना ही होगा, क्योंकि इसकी परिणति अंतत: बहकती हुई बर्बादी में ही होती है, चाहे वह स्त्री आजादी के संदर्भ में हो या पुरुष आजादी के।