गुरु नानक : सत्य सबसे ऊपर...

- डॉ. महीप सिंह

 
निर्गुण आंदोलन मध्ययुग की सबसे बड़ी सामाजिक धार्मिक (और अंततोगत्वा राजनीति) क्रांति थी। समाज का वह वर्ग, जो सदियों से केवल इसलिए जी रहा था कि उसे समाज के एक विशिष्ट वर्ग की सेवा भर करनी है, उसके साथ जुड़े हुए सभी दूषित, गंदे और निम्न स्तरीय कार्यों का बोझ स्वयं वहन करके उसे जीवन की सभी सांसारिक और आध्यात्मिक ऊंचाइयों को प्राप्त करने की सुविधा प्रदान करनी है, इस आंदोलन के प्रभाव से आलोड़ित हो उठा।

उसने शायद यह पहली बार अनुभव किया कि घृणा, उपेक्षा और दरिद्रता का बोझ वहन करते हुए हीनता भाव से ग्रसित होकर किसी प्रकार जी लेना ही उसकी नियति नहीं है। वह भी अपने जीवन को मनुष्य जैसी सार्थकता दे सकता है, उसमें मानवीय गौरव, मानवीय स्वाभिमान और मानवीयता के उच्चतर मूल्यों का संस्पर्श उत्पन्न किया जा सकता है।

उस युग में, जब विदेशी प्रभाव के कारण लोग अपने स्वत्व को भूल रहे थे, गुरु नानक ने लोगों में सांस्कृतिक पुनर्जागरण पैदा किया। उनकी भाषा, उनकी लिपि, उनकी विचार पद्धति, उनकी आस्था के शब्द गुरु नानक की कविता के माध्यम से सामान्य जन के पास पहुंचे और उन्हें लगा कि वे राजनीतिक दृष्टि से चाहे बहुत कुछ खो चुके हों परंतु सांस्कृतिक दृष्टि से उनके पास बहुत कुछ है जिसके आधार पर वे स्वाभिमान से जी सकते हैं।

सांस्कृतिक पुनर्जागरण के इस कार्य में गुरु नानक ने मिथ्याडंबर को कभी प्रश्रय नहीं दिया। परंपरागत मान्यताओं, आस्थाओं और मूल्यों का निरंतर परीक्षण और संशोधन ही उनकी उपादेश्ता को बनाए रख सकता है। अंधानुगमन में व्यक्ति सार तत्व खो देता है और अनेक प्रकार के पाखंडों और विसंगतियों का शिकार हो जाता है। ऐसी ही विसंगति के शिकार एक हिंदू कर्मचारी को फटकारते हुए उन्होंने कहा था,

'गऊ बिराहमण कउ करु लावहु गोबरि तरण व जाई।
धोती टिका तै जपमाली धानु मलेछां खाई।
अंतर पूजा पड़हि कतेबा संजमु तुरका भाई।
छोडीले पखंडा। नामि लइए ताहि तरंदा॥'

- अर्थात् तुम गऊ ब्राह्मण पर कर लगाते हो और गोबर का सहारा लेकर तर जाना चाहते हो। धोती-तिलक और माला धारण करते हो और धन मलेच्छों का खा रहे हो। घर के अंदर पूजा करते हो और बाहर शासकों को प्रसन्न करने के लिए कुरान पढ़ते हो। यह सब पाखंड छोड़ क्यों नहीं देते।

संपूर्ण निर्गुण काव्य कथनी और करनी की एकता पर बल देता है। मन चंगा तो कठौती में गंगा, यह सूक्त वाक्य मानो निर्गुण दृष्टि का प्रतिनिधि वाक्य है। कथनी और करनी में अंतर को युग के सभी मार्गदर्शकों ने देखा और उस अंतर को मिटाने पर बल दिया। परंतु नियति का यह विचित्र विद्रूप है कि यह अंतर कभी घटा नहीं, बल्कि बढ़ता ही गया है।
 

गुरु नानक ने इस बात को बहुत अधिक गहराई से अनुभव किया था। उन्होंने अनुभव किया था कि करनी के विषय में कहा तो जाता है परंतु इसे सत्य की प्राप्ति का एक साधन मात्र ही माना जाता है इसलिए अधिक आग्रह सत्य की व्याख्या पर ही लगा रहता है। उन्होंने कहा - सत्य सबसे ऊपर है किंतु उससे भी ऊपर है सत्याचार।

गुरु नानक साधक के हाथ में रूढ़ियों, अंधविश्वासों, बिना समझे-बूझे शास्त्र वचनों की डोर नहीं पकड़ाते। वे उसके हाथ में ज्ञान का दीपक देते हैं जिसके प्रकाश में वह सत्यासत्य का निर्णय कर सके। वे कहते हैं पहले तथ्य को अच्छी तरह समझ लो, फिर उसका व्यापार करो।

गुरु नानक के काव्य का स्वर भक्ति काल के मूल स्वर के साथ बहुत दूर तक चलता हुआ अधिक व्यापक और परिवेश के प्रति जीवंत प्रतिक्रियाओं से भरा हुआ है। वे कहते हैं,

राजे सींह मुकद्दम कुत्ते। / जाई लगाइन बैठे सुत्ते।
चाकर नहंदा पाइनिह घाउ। / रतु वितु कुतिहो चटि जाहु।
जिथे जींआ होसी सार। / नकीं बड़ो लाइत बार।

राजा के राजे व्याघ्र के समान हिंसक हैं, उनके सामंत कुत्तों के समान लालची हैं और शांत जनता को बिना किसी कारण पीड़ित करते रहते हैं। उनके नौकर अपने पैरों के नाखूनों से लोगों को जख्मी करते रहते हैं और उनका लहू कुत्तों की तरह चाट जाते हैं। जहां इनके कर्मों की परख की जाएगी वहां इनकी नाक काट ली जाएगी।

अपने समय के राजाओं, सामान्तों, राज कर्मचारियों द्वारा निरीह जनता पर किए जाने वाले अत्याचारों पर इतना तीव्र रोष व्यक्त करने वाले गुरु नानक जब इस स्थिति से अधिक द्रवित हो उठते थे तो वे अपना रोष व्यक्त करने उसके दरबार में पहुंच जाते जिसके प्रति रोष व्यक्त करने में सभी अपने को असमर्थ समझते हैं। बाबर ने हिंदुस्तान पर आक्रमण किया। चारों ओर मची भयंकर मार काट में देश की जनता पीड़ित होने लगी।

गुरु नानक के ही शब्दों में जिन स्त्रियों के सिर में सुंदर पट्टियां शोभित होती थीं, जिनकी मांग में सिंदूर भरा हुआ था, अत्याचारियों ने उनके केश काट डाले और उनको धूल में इस तरह घसीटा कि उनके गले तक धूल भर गई। जो महलों में निवास करती थीं, अब उन्हें बाहर बैठने की जगहें भी नहीं मिलतीं।

अपने देश पर विदेशियों द्वारा हुए अत्याचारों से विक्षुब्ध ईश्वर के प्रति ताड़ना भरी शिकायत सारे भक्ति साहित्य में निश्चय ही अद्वितीय है और अनुपम भी। परंतु गुरु नानक उन लोगों को भी क्षमा नहीं करते जिनकी चरित्रहीनता, अकर्मण्यता और ऐशपरस्ती के कारण इस देश की ऐसी दुर्दशा हुई।

गुरु नानक के शब्दों में सच बात यह है कि कोई भी देश अपनी अच्छाइयों को खो देने पर ही पतित होता है।

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