पहली पात्शाही गुरु नानक साहब का जन्म तलवंडी नामक ग्राम वर्तमान ननकाणा साहब में बेदीवंश में कार्तिक पूर्णिमा ईसवी सन् 1469 में हुआ था। शैशव अवस्था में इनको संस्कृत तथा फारसी की शिक्षा दी गई। इनके हृदय में बाल्यकाल से ही आध्यात्मिक अभिरुचियाँ और प्रवृतियाँ पिता को दिखाई देने लगी।
पिता महिता कालू ने इनके हृदय में सांसारिक कार्यों की रुचि अंकुरित करने के लिए कुछ व्यवसायों में संलग्न करने के विफल प्रयत्न किए। निराश होकर उन्होंने उनको सुलतानपुर लोधी भेज दिया जहाँ इनको नवाब के मोदी खाने में नौकरी मिल गई और लगभग 13 वर्ष तक यहाँ कार्य करते रहे।
सुल्तानपुर लोधी के समीप वेई नाम की नदी में प्रतिदिन प्रातः गुरु नानक साहब स्नान करने जाया करते थे। कहते हैं कि एक दिन जब वे नदी में स्नान के लिए गए तब इनको भगवत् तत्व के दर्शन हुए और इन्हें गुरुता के प्रकाश का दान दिया। इस घटना के बाद वह भगवान के निर्दिष्ट उद्देश्य को पूर्ण तथा धर्म को प्रतिष्ठत करने के प्रयोजन से देश भ्रमण के लिए चल पड़े।
गुरु नानक साहब ने धर्म का प्रचार और अज्ञानवश फैले अधर्म का नाश करने के उद्देश्य से समस्त भारत तथा कई अन्य देशों का भ्रमण भाई मरदान को लेकर किया। हिंदू तीर्थों की यात्रा इनकी प्रथम यात्रा थी। पंजाब से सिंहल द्वीप (लंका) तक इनकी द्वितीय यात्रा थी। कश्मीर तथा हिमाचल के कुछ अन्य भागों की इनकी तृतीय यात्रा थी। मुसलमानों के धर्म स्थलों की इनकी चौथी यात्रा थी।
इन चार यात्राओं के बाद गुरु नानक करतापुर में रहने लगे। सैदपुर, पाकपटन, मुलतान और अचल बटाले में भी मेरे गुरु नानक साहब ने सभी धर्मों की एकता एवं समानता का संदेश दिया। धर्म के संबंध में अपने दार्शनिक तत्व गुरुदेव ने अपने आदि मूलमंत्र में भर दिया है जो इस प्रकार है- 'एक औंकार सतिनामु पुरखु निरभउ निरवैरु अकाल मूरति अजूनी सैभं गुर प्रसादि।' इस मूलमंत्र में सत्य निर्माण, स्वतंत्रता और शिष्टाचार पर बल दिया गया है।
गुरुदेव ने अपनी धर्म यात्राओं के काल में संगतें स्थापित की थीं, वे अपने अनुयायियों के व्यापक संघटन एवं जत्थे बंदी के अभिलाषी थे। इस दिशा में उन्होंने निम्नलिखित विशेष कार्य किए- अपनी वाणी को संगहित किया, करतारपुर में एक विशेष संगत की स्थापना की। उन्होंने अपने प्रसिद्ध सिद्धांतों को क्रियात्मक रूप दिया। जीविका के लिए कर्म करना, भगवान का नाम जपना और अपनी कमाई में से अन्यों को खिलाकर स्वयं खाना। उन्होंने अपना उत्तराधिकारी भाई लहिणा जी को घोषित किया और उसका नाम गुरु अंगददेव साहब रखा। अठारह वर्ष करतारपुर में रहने के पश्चात ई. सन् 1539 में जोतो पोत समा गई।
जब गुरु नानक मानव लोक में अवतरित हुए थे, तब समाज की स्थिति शोचनीय थी। ऐसे में गुरु नानक ने अपनी अमृत वाणी से समाज के कलुष को दूर किया। उनके उपदेशों में इतनी सत्यता, महानता तथा न्याय प्रियता थी कि थोड़े से समय में ही वे जन-जन में प्रिय हो गए।