सिख धर्म दुनिया का सबसे उच्चतम धर्म है जिसने मानव मात्र की भलाई के लिए हमें एक नया जीवन प्रकाश प्रदान किया है। जहां इसमें प्राचीन धर्मों की विशेषताएं ग्रहण कर ली गई हैं, वहीं यह भी प्रयत्न किया गया है कि पुराने धर्मों की तरह संकीर्णता, अंधविश्वास, पूर्ण कर्मकांड और अवैज्ञानिकता आदि अवगुण न आएं।
एक ईश्वरवाद की नींव पर मानवीय एकता अथवा संसार सम्मेलन का मंदिर निर्माण करना इसका मुख्य उद्देश्य रहा है। सिख धर्म के सिद्धांत और सिख इतिहास की शानदार परंपराएं इस बात का प्रत्यक्ष प्रमाण हैं। सिर्ख धर्म का सुप्रसिद्ध सिंहनाद है-
'नानक नाम चढ़दी कला- तेरे भाणे सरबत का भला।'
इससे यह स्पष्ट है कि प्रभु भक्ति द्वारा मानवता को ऊंचा उठाकर सबका भला करना ही इस धर्म का पवित्र उद्देश्य रहा है। इसके धर्मग्रंथ, धर्म मंदिर, सत्संग, मर्यादा, सम्मिलित भोजनालय (लंगर) तथा अन्य कार्यों में मानव प्रेम की पावन सुगंध फैलती है।
आदि गुरु नानक साहिब तो विश्व मात्र को निमंत्रण देते हुए कहते हैं- 'भाई आओ! हम मिलकर अपने प्रभु के गुण कायम करें, इससे मलीनता दूर होकर परस्पर प्रेम बढ़ता है। आओ मेरे साथियों! मिलकर ही यह सफर सुगमता से तय किया जा सकता है।'
सिख पंथ के पूज्य दस गुरु हुए हैं, जिन्होंने इस नवीन जीवन मार्ग का निर्माण किया, उनके सदा स्मरणीय पावन नाम हैं-
गुरु नानकदेवजी (1469-1539 ईस्वी),
गुरु अंगददेवजी (1504-1552 ईस्वी),
गुरु अमरदासजी (1479-1574 ईस्वी),
गुरु रामदासजी (1534-1581 ईस्वी),
गुरु अर्जनदेवजी (1563-1606 ईस्वी),
गुरु हरगोविन्दजी (1595-1644 ईस्वी),
गुरु हरिरायजी (1630-1661 ईस्वी),
गुरु हरिकिशनजी (1656-1664 ईस्वी),
गुरु तेगबहादुरजी (1621-1675 ईस्वी),
गुरु गोविन्दसिंहजी (1666-1708 ईस्वी)।
श्री गुरु गोविन्दसिंहजी ने श्री गुरुग्रंथ साहिब और पंथ खालसा को गुरु गद्दी दी, जिसकी रहनुमाई में चलना सिख संप्रदाय अपना परम कर्तव्य समझता है।