विश्लेषण : क्या कांग्रेस सच में डूबता जहाज है, राहुल गांधी के इस्तीफा देने से बच जाएगा 134 साल पुराना संगठन?

भारत में करीब 55 साल राज्य करने वाली कांग्रेस वर्तमान में जिस दौर से गुजर रही है, वैसी स्थिति शायद पहले कभी नहीं रही। 2014 के लोकसभा चुनाव में जब कांग्रेस को महज 44 सीटें मिली थीं, तब भी ऐसी हताशा और निराशा का माहौल दिखाई नहीं दिया था। इस बार तो फिर कांग्रेस ने पिछली बार की तुलना में 8 सीटें ज्यादा जीती हैं, लेकिन वह 'असमंजस' से उबर नहीं पा रही है।

दअरसल, कांग्रेस के इस बुरे समय में पार्टी अध्यक्ष राहुल गांधी ने इस्तीफा देकर कांग्रेस को उबारने की बजाय उसे मुश्किल में डालने का ही ज्यादा काम किया है। उन्होंने कहा है कि वे अब पार्टी अध्यक्ष नहीं रहना चाहते और गांधी परिवार से बाहर का ही कोई व्यक्ति कांग्रेस का अध्यक्ष होना चाहिए। हालांकि इसके पीछे राहुल की मंशा क्या है इसका खुलासा अभी तक नहीं हो पाया है, लेकिन फिलहाल तो उन्होंने कांग्रेस को ऐसे दोराहे पर लाकर खड़ा कर दिया है, जहां यह तय करना कठिन हो गया है कि किस दिशा में बढ़ा जाए।
 
मध्यप्रदेश के पूर्व मुख्‍यमंत्री और भाजपा के वरिष्ठ नेता शिवराजसिंह चौहान ने ‍राहुल के फैसले पर तंज कसते हुए एक बार फिर नई बहस छेड़ दी है कि क्या कांग्रेस डूबता जहाज है? चौहान ने कहा कि कांग्रेस को बचाने की अंत तक कोशिश करने के बजाय कप्तान ही 'जहाज' को छोड़कर जा रहा है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी भी कह चुके हैं कि कांग्रेस एक ऐसा टाइटेनिक जहाज है जो डूब रहा है। इतना ही नहीं, मोदी तो कांग्रेस मुक्त भारत तक की बात कह चुके हैं, लेकिन मध्यप्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ विधानसभा चुनाव में कांग्रेस ने भाजपा से तीन राज्य छीनकर मोदी की बात को गलत ही साबित किया।
 
केरल और तमिलनाडु में कांग्रेस ने लोकसभा चुनाव में इस बार तुलनात्मक रूप से अच्छा प्रदर्शन किया। इस संबंध में दक्षिण भारत के प्रमुख हिन्दी अखबार स्वतंत्र वार्ता के समूह संपादक धीरेन्द्र प्रताप सिंह का कहना है कि राहुल गांधी के वायनाड आने से केरल में कांग्रेस का जरूर प्रदर्शन सुधरा है, वहीं पार्टी तमिलनाडु में डीएमके के साथ अच्छी स्थिति में रही। तेलंगाना और आंध्र में उसका जनाधार कमजोर हुआ, कर्नाटक में भी स्थिति ज्यादा अच्छी नहीं है।
 
सिंह मानते हैं कि कांग्रेस की स्थिति में सुधार नहीं होगा तो सहयोगी दल भी उससे छिटक जाएंगे। हालांकि हरियाणा, झारखंड, महाराष्ट्र आदि राज्यों के विधानसभा चुनाव परिणाम भी काफी हद तक तय करेंगे कि कांग्रेस का भविष्य क्या होगा।
 
क्या गांधी कांग्रेस को भंग करना चाहते थे : हालांकि इसको लेकर विरोधाभास है, लेकिन कहा जाता है कि आजादी के बाद महात्मा गांधी कांग्रेस को भंग करना चाहते थे। गांधीजी के मुताबिक देश को स्वतंत्रता मिल गई है। अब कांग्रेस के मौजूदा स्वरूप की उपयोगिता खत्म हो गई है। अत: इसे भंग कर देना चाहिए। दरअसल, 1885 में स्वतंत्रता प्राप्ति के उद्देश्य को ध्यान में रखते हुए कांग्रेस की स्थापना की गई थी, जो कि अब 134 साल की हो गई है।
 
दिग्गजों का नेतृत्व : स्वतंत्रता आंदोलन से इतर कांग्रेस के इतिहास पर नजर डालें तो यह काफी सुनहरा रहा है। देश के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू ने एक दशक से ज्यादा समय तक देश का नेतृत्व किया, वहीं उनकी बेटी इंदिरा गांधी को कांग्रेस का अध्यक्ष बनवाने के कारण उन पर वंशवाद का आरोप भी इसी दौर में लगा। या कहें कि वंशवाद की शुरुआत ही इंदिरा गांधी से हुई, जो अब तक जारी है। अब तो दूसरे दलों में भी यह बीमारी बुरी तरह फैल गई है।
 
नेहरू के निधन के बाद जून 1964 में लालबहादुर शास्त्री ने देश का नेतृत्व किया और 1965 के युद्ध पाकिस्तान को करारी शिकस्त देने का कारण कम समय में ही उनकी लोकप्रियता बुलंदियों पर पहुंच गई थी, लेकिन अज्ञात परिस्थितियों में उनका ताशकंद में निधन हो गया और फिर देश की बागडोर इंदिरा गांधी के हाथ में आ गई।
 
इंदिरा को गूंगी गुड़िया से लेकर लौह महिला जैसे विशेषणों से भी नवाजा गया। 1994 में अपने ही अंगरक्षकों की गोली का शिकार हुईं इंदिरा की मौत के बाद नेहरू-गांधी परिवार की तीसरी पीढ़ी राजीव गांधी ने जिम्मा संभाला। उन्हें चुनाव में प्रचंड बहुमत मिला। अटलबिहारी वाजपेयी जैसे दिग्गज नेता भी उस लहर में हार से नहीं बच पाए। 
 
राजीव गांधी के निधन के बाद पीवी नरसिंहराव ने देश का नेतृत्व किया। वे अपना कार्यकाल पूरा करने वाले पहले गैर नेहरू-गांधी परिवार के कांग्रेसी प्रधानमंत्री थे। अटलजी की सरकार के बाद प्रसिद्ध अर्थशास्त्री मनमोहनसिंह लगातार 10 साल (2004 से 2014) तक गठबंधन सरकारों के प्रधानमंत्री रहे। हालांकि कांग्रेस का नेतृत्व गांधी परिवार (श्रीमती सोनिया गांधी) के ही हाथों में रहा।
 
वर्ष 2014 के लोकसभा चुनाव के बाद कांग्रेस की स्थिति में निरंतर गिरावट आती गई। यह भी कहा जाता है कि युवा राहुल गांधी को पार्टी कमान सौंपने के बाद पार्टी की स्थिति में सुधार तो नहीं हुआ, उलटा उसे नुकसान ही हुआ। 2019 के लोकसभा चुनाव में तो राहुल अपनी अमेठी सीट भी नहीं बचा पाए। पार्टी महज 52 सीटों पर सिमट गई है। उसे एक बार फिर लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष का पद हासिल करने लायक सीटें भी नहीं मिलीं।
 
आमूलचूल परिवर्तन की दरकार : कांग्रेस में एक बार फिर केन्द्र की सत्ता में वापसी करना है तो उसे संगठन के साथ अपनी नीतियों में भी परिवर्तन करना होगा। संगठन में ऐसा नेताओं को स्थान देना होगा, जिनका जनाधार हो। क्योंकि कांग्रेस की अग्रिम पंक्ति में ऐसे नेताओं की संख्‍या ज्यादा है, जिनका खुद का कोई जनाधार नहीं है। इसके साथ उसे अपनी नीतियां बदलना होंगी। चुनाव के समय ही जनेऊ दिखाने या खुद को शिवभक्त साबित करने से काम नहीं चलेगा। उसे बताना होगा कि वह किसी 'खास वर्ग' की पार्टी न होकर हर धर्म और संप्रदाय के लोगों की पार्टी है।
 
इस सबके बावजूद किसी को भी यह नहीं भूलना चाहिए कि कांग्रेस ने 1952 के पहले आम चुनाव में 364 सीटें जीतकर प्रचंड बहुमत हासिल किया था, वहीं इंदिरा गांधी की हत्या के बाद हुए चुनाव में तो उसने 401 सीटें जीतकर अपनी ही जीत के पुराने सभी रिकॉर्ड ध्वस्त कर दिए थे। केन्द्र में सत्तारूढ़ भाजपा इस चुनाव में सिर्फ 2 सीटें ही जीत पाई थीं। इनमें एक हनामकोड़ा (आंध्रप्रदेश) और दूसरी मेहसाणा (गुजरात) थी। यह कहना अभी जल्दबाजी होगी कि कांग्रेस डूबता जहाज है। ... और ऐसा होना भी नहीं चाहिए क्योंकि सुदृढ़ लोकतंत्र के लिए जितनी ताकतवर सरकार की जरूरत होती है, उतना ही मजबूत विपक्ष भी जरूरी है। 

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