किसान आंदोलन : लोक लुभावन राजनीति का खतरनाक नतीजा...

संदीप तिवारी

बुधवार, 7 जून 2017 (14:54 IST)
भारत की राजनीति में कुर्सी या सत्ता न मिलना नेताओं का सबसे बड़ा दुस्वप्न होता है। अगर कहें कि कुर्सी पाकर सत्ता सुख पाने का लालच इन नेताओं की आंखों पर सबसे बड़े पट्‍टी बांध देता है, यह कहना भी गलत न होगा। इसलिए किसी भी कीमत पर, साम, दाम, दंड, भेद अपनाकर जनता के वोटों पर येन-केन-प्रकारेण कब्जा करना ही सभी दलों, नेताओं का एकमात्र उद्देश्य बन गया है। इसी कारण से मतदाताओं को वैध-अवैध तरीके से लाभों, सुविधाओं के नाम पर ललचाया जाता है। लालच, चाहे शराब का हो, नोटों का हो या अन्य किसी प्रकार का, इस सभी का एकमात्र उद्देश्य मतदाता को लुभाना है। 
 
सभी तरह के चुनावों से उपस्थित असुविधाओं के लिए सत्तारूढ़ दल को दोषी ठहराने तथा सुविधाओं का  आश्वासन देने की दलों में होड़ रहती है। लोक-लुभावन घोषणाओं का बाजार गर्म होता है तो लैपटॉप बांटता है तो कोई स्कूटर, साड़ियां व टेलीविजन तक बांटे जाते हैं। कन्याओं के विवाह एवं बुजुर्गों को तीर्थयात्रा करवाई जाती है। इस तरह के छोटे-छोटे लोभ मतदाता को लुभाते हैं, इसलिए वह भागते भूत की लंगोटी से ही संतुष्ट हो जाता है। मतदाता को भी यह लालच व्यापक संदर्भों की नीतियों की उपेक्षा करते हुए इस सब्जबागों के प्रति लालायित होता है। परिणामतः पार्टियां व प्रत्याशी नीतियों की नहीं, सुविधाओं की बातें ज्यादा करते हैं।
 
एक समय पर यह प्रवृत्ति छोटे पैमाने पर दक्षिण भारत के राज्यों के चुनावों में पाई जाती रही है लेकिन अब यह दायरा सार्वभौमिक हो गया है, कहना भी गलत न होगा। पुराने जमाने में राजनीति से जुड़े नेता सामाजिक सरोकारों के साथ विधान सदनों में आते थे और तब सामाजिक सरोकार साध्य था सत्ता एवं राजनीति इसे पाने का साधन। अब सत्ता और राजनीति एक ही चीज हो गई है एवं सरोकारों को लेकर ढोंग नेता एवं पार्टियां सभी तरह के साधनों से करते हैं। आजकल राजनीति भी ग्लैमरस और चमक-दमक वाली हो गई है। 
 
मीलों लंबी रैलियां, ग्लैमरस चेहरे, जातीय समीकरण, प्रचारतंत्र, धनबल एवं सब्जबाग दिखाना हमारी राजनीति में मतदाताओं को प्रभावित करने वाले तत्व हो गए हैं। इसी कारण से दिल्ली में 'आप' और राज्यों में ऐसे दलों की सरकारें बन जाती हैं जोकि लोगों को मूर्ख बनाने की कला में पारंगत होते हैं। जो नेता एवं उसका दल इनका जितनी कुशलता एवं प्रतिभापूर्ण तरीके से इस्तेमाल करता है, वही  अंतत: सत्ता, शासन का अधिकारी बन जाता है। 
 
इसके अलावा हमारे दलों व नेताओं के चरित्र में ज्यादा अंतर नहीं है। अतः सामान्यतः बोला जाता है कि सभी दल व नेता एक जैसे हैं और मतदाताओं को कुछ भी सत्ताभोग की जल्दी में मतदाता को प्रभावित करने वाले इन तत्वों का उपयोग करना, आज की राजनीति करने वालों को अब जरूरी लगता है। आज यह टोटका सभी दलों के लिए अनिवार्य बन गया है। वैसे भी यदि हमें सामाजिक सरोकारों वाली राजनीति चाहिए है तो हमें इससे भिन्न सोचना होगा और यह भी सुनिश्चित करना होता है कि मतदाता एक बार भी मूर्ख न बनें लेकिन देश की राजधानी में 'आप' की राजनीति और राज्यों में 'सिद्धांतहीन चुनाव, मतदान और तिकड़में केवल कुछ लोगों के लिए होती हैं। 
 
भारत के लोकतांत्रिक व्यवस्था का दुर्भाग्य है कि मतदाताओं को शिक्षित और जागरूक बनाने की बजाय एक अद्दे या पौवा से संतुष्ट करना बहुत सरल है। लोगों की समझ को कुंद करने और उन्हें सस्ती व सहज चीज से संतुष्ट करना सरल होता है। दरअसल लोकतंत्र को सभी तरह से लोकलुभावन नीतियों या कार्यक्रमों का जामा पहना दिया गया है। कुछ समय पहले कई राज्यों में चुनाव हुए लेकिन यूपी की योगी सरकार ने किसानों के विरोध को पीछे धकेलने के लिए किसानों की कर्जमाफी का लॉलीपॉप दिया गया। 
 
दरअसल, यूपी की योगी सरकार के उस फैसले के चलते कर्जमाफी की गई लेकिन चुनाव प्रचार के दौरान प्रधानमंत्री मोदी ने सार्वजनिक मंच से सूबों में भाजपा सरकार बनने पर पहली कैबिनेट में किसानों का कर्ज माफ करने का वादा किया था। वादे के अनुसार मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने अपनी पहली कैबिनेट मीटिंग में ही किसानों का 36 हजार करोड़ से ज्यादा का बकाया कर्ज माफ कर दिया। 
 
योगी सरकार के इस फैसले के बाद दूसरे राज्यों के किसानों में भी एक उम्मीद जागी लेकिन अब यह उम्मीद, जोर जबर्दस्ती की जिद तक पहुंच गई है। महाराष्ट्र के किसानों ने फडणवीस सरकार को अपनी मांगों का प्रस्ताव भेजा। किसानों आंदोलन के इस दौर से पहले सरकारों ने किसान संगठनों के साथ बैठकें भी हुईं, लेकिन कोई परिणाम नहीं निकला। जिसके बाद किसानों ने ऐसे आंदोलन की शुरुआत  कर दी जिसमें बड़े पैमाने पर दूध और फलों, सब्जियों की बरबादी की। 
 
इस बार बड़ी संख्या में किसान ने केवल सड़कों पर उतर आए विरोध में सड़कों पर दूध बहाया गया। हाईवे पर सब्जियों का अंबार लगा दिया गया और महाराष्ट्र में कर्जमाफी के अलावा किसानों की कुछ और भी मांगे हैं। किसानों की सबसे बड़ी मांग है कि स्वामीनाथन आयोग की सिफारिशें लागू की जाएं और खेती के लिए बिना ब्याज के कर्ज देने की व्यवस्था बनाने को कहा। किसानों की मांग है कि 60 साल के उम्र वाले किसानों को पेंशन दी जाए जैसा कि विभिन्न राजनीतिक दल अपने समर्थकों को ही देकर धन्य हो जाते हैं।
 
इसके साथ ही दूध के लिए प्रति लीटर 50 रुपए मिलें। अब यूपी सरकार के फैसले का असर सिर्फ मध्यप्रदेश या महाराष्ट्र में ही देखने को नहीं मिला बल्कि गुजरात और राजस्थान में भी इसका असर नजर आ रहा है। गुजरात के बनासकांठा में किसानों ने आलू के भाव और खेती के लिए पानी न मिलने के कारण कड़ा विरोध जताया था और किसानों ने सड़कों पर आलू फेंक कर प्रदर्शन किया। 
 
ऐसे ही प्रदर्शन अन्य राज्यों के कई हिस्सों में हुए, वहीं मध्यप्रदेश सीमा से सटे राजस्थान के कई हिस्सों में किसान आवाज बुलंद कर रहे हैं। किसान अपनी उपज का समर्थन मूल्य बढ़ाने सहित दस सूत्री मांगों को लेकर प्रदर्शन कर रहे हैं और अनगिनत स्थानों पर किसानों ने दूध-सब्जियां फेंककर अपना विरोध जताया। 
 
हालांकि, सिर्फ ये चार राज्य ही नहीं हैं जहां किसान परेशान हैं और कर्ज के बोझ से दबा हुआ है। इन  सभी राज्यों से पहले तमिलनाडु के किसानों ने दिल्ली में संसद के सामने नग्न प्रदर्शन तक किया। किसान की बेहाली का अंदाजा उन पर कर्ज के आंकड़ों से भी लगाया जा सकता है। मौजूदा समय में देशभर के किसानों पर 12 लाख 60 हजार करोड़ का कर्ज है। सरकारी आंकड़ों के अनुसार 2001-15 तक 15 सालों में देश के 2 लाख 34 हजार 642 किसानों ने आत्महत्या की है। कहीं किसान सूखे की मार झेलकर कर्ज में डूब गया है, तो कहीं बेहतर मानसून के बाद अच्छी पैदावार के बावजूद उसके अच्छे दिन आते नहीं दिख रहे हैं। 
 
ऐसे में महाराष्ट्र, मध्यप्रदेश, राजस्थान और गुजरात सरकार को भी किसानों का गुस्सा शांत करने के लिए योगी सरकार जैसे कदम उठाने पर विचार करना होगा। पर अगर ऐसा नहीं हुआ तो किसानों की नाराजगी बीजेपी के मिशन 2019 में पार्टी के बड़ी चुनौती के रूप में सामने आ सकती है और अन्य राज्यों में भी इसकी सत्ता में आने का सपना दिवास्वप्न ही बनकर रह जाएगा।

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