आगामी लोकसभा चुनाव के लिए विपक्षी एकता के सवाल पर तमाम क्षेत्रीय दलों के बीच जारी पैंतरेबाजी के क्रम में राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (एनसीपी) के सुपीमो शरद पवार ने नया पत्ता फेंका है। इसी महीने की शुरुआत में भाजपा के खिलाफ एक व्यापक विपक्षी गठबंधन बनाने की जरूरत पर जोर देने तथा उसके लिए सूत्रधार का किरदार निभाने के लिए खुद को प्रस्तुत करने वाले इस मराठा सरदार ने अब आश्यर्यजनक रुप से चुनाव से पहले विपक्षी एकता की व्यावहारिकता पर सवाल खडा कर दिया है।
उन्होंने अपने इस रुख को शीर्षासन कराते हुए कहा है- ''विपक्षी एकता को लेकर मीडिया में काफी अटकलें चल रही हैं। हमारे कुछ मित्र इस दिशा में कोशिश भी कर रहे हैं, लेकिन मुझे नहीं लगता कि चुनाव से पहले यह संभव है।’’
चुनाव में क्षेत्रीय दलों की अहम भूमिका की ओर संकेत करते हुए पवार का कहना है कि तमिलनाडु, पश्चिम बंगाल, ओडिशा, आंध्र प्रदेश, तेलंगाना जैसे राज्यों में क्षेत्रीय दलों के नेता चुनाव में अपने-अपने दलों के हितों को वरीयता देंगे और अपनी स्थिति मजबूत करने के लिए काम करेंगे। इसी प्रकार राजस्थान, मध्य प्रदेश, पंजाब, कर्नाटक में कांग्रेस पहले नंबर की विपक्षी पार्टी है, लिहाजा वह भी अपनी स्थिति मजबूत करने में जोर लगाएगी। ऐसे में चुनाव से पहले गठबंधन का आकार लेना कोई मायने नहीं रखता। ये सभी पार्टियां लोकसभा चुनाव के बाद ही एकजूट होंगी और उनकी यही एकजूटता कारगर हो सकेगी।
यहां सवाल उठता है कि आखिर ऐसा क्या हो गया कि महज एक महीने के भीतर ही विपक्षी एकता को लेकर पवार को अपना पैंतरा बदलना पड गया? दरअसल, शरद पवार की यह पुरानी हसरत है कि वे सत्ता का सर्वोच्च पद हासिल कर देश का नेतृत्व करें। अपने इसी अरमान को परवान चढाने के लिए उन्होंने दो दशक पहले सोनिया गांधी के विदेशी मूल को मुद्दा बनाकर कांग्रेस छोडी थी और अपनी नई पार्टी बनाई थी।
यह और बात है कि वे अपनी इस पार्टी को व्यावहारिक तौर पर महाराष्ट्र से बाहर नहीं ले जा सके। बाद में उन्होंने सोनिया गांधी के विदेशी मूल के मुद्दे को तो छोड दिया और कांग्रेस के नेतृत्व वाली यूपीए सरकार में शामिल भी हुए, लेकिन अपनी नई पार्टी को बनाए रखा।
अब देश के राजनीतिक परिदृश्य में तेजी से आ रहे बदलाव के मद्देनजर उनकी राजनीतिक महत्वाकांक्षाएं फिर जोर मारने लगी हैं। पिछले लोकसभा चुनाव के समय भविष्य में कोई चुनाव न लड़ने का एलान कर चुका महाराष्ट्र की राजनीति का यह अनोखा किरदार पिछले कुछ महीनों से बेहद सक्रिय है।
पवार को लगता है कि इस समय कांग्रेस अधिकांश राज्यों में सत्ता से बेदखल हो चुकी है और विभिन्न राज्यों में उसका संगठनात्मक ढांचा भी लगातार कमजोर होता जा रहा है। उसके नेतृत्व की कमान भी अब उन राहुल गांधी के हाथों में हैं जिन्हें दूसरे दलों के नेता ही नहीं, बल्कि कांग्रेस के ही कई नेता कमजोर और अनुभवहीन मानते हैं। लंबे समय तक कांग्रेस में रहे 75 वर्षीय शरद पवार को कांग्रेस की यह स्थिति अपने लिए बेहद मुफीद लग रही है।
हाल के दिनों में पवार ने क्षेत्रीय दलों के बीच अपनी स्वीकार्यता बनाने की गरज से उनके नेताओं से मेल-मुलाकातों का सिलसिला भी तेज किया है। इसी क्रम में पिछले जनवरी महीने में उन्होंने जनता दल (यू) के पूर्व नेता शरद यादव के साथ मुंबई में संविधान बचाओ मार्च का आयोजन भी किया था। पवार की उम्मीदों को पिछले दिनों महाराष्ट्र में भंडारा-गोदारा लोकसभा सीट के लिए उपचुनाव के नतीजे से भी हवा मिली है। इस उपचुनाव में चतुष्कोणीय मुकाबले में उनकी पार्टी ने भारी अंतर से जीत हासिल की थी।
दरअसल, पवार का आकलन है कि अगले लोकसभा चुनाव में किसी भी पार्टी या गठबंधन को बहुमत नहीं मिलने वाला है। यानी त्रिशंकु लोकसभा अस्तित्व में आएगी। ऐसे में क्षेत्रीय दलों की भूमिका अहम हो जाएगी। विपक्षी दलों में कांग्रेस अगर सबसे बडी पार्टी के तौर उभर कर आती भी है तो राहुल गांधी का नेतृत्व कोई भी आसानी से स्वीकार नहीं करेगा।
ऐसे में अपनी वरिष्ठता, जोड़तोड़ की क्षमता और विभिन्न दलों में मौजूद अपने निजी मित्रों के बूते उनका दांव लग सकता है। फिर पवार के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से भी बडे आत्मीय रिश्ते हैं, जिन्हें न तो मोदी छुपाते हैं और न ही पवार। त्रिशंकु लोकसभा की स्थिति में कांग्रेस और राहुल गांधी को सत्ता से दूर रखने के लिए मोदी भी पवार की मदद कर सकते हैं।
राजनीति को संभावनाओं का खेल और असंभव को साधने की कला कहा जाता है। इसलिए विपक्षी एकता की संभावनाओं को लेकर शरद पवार के रुख में आया यह बदलाव उन लोगों के लिए कतई आश्चर्यजनक नहीं है, जो उनकी राजनीति को लंबे समय से जानते हैं।
देश की मौजूदा राजनीति में पवार की एक पहचान सर्वाधिक अविश्वसनीय नेता के तौर पर भी है। वे कब क्या रुख अपनाएंगे, इसका अंदाजा लगाना उनके करीबी लोगों के लिए आसान नहीं है। इसलिए आने वाले दिनों पवार का यह रुख भी बदल जाए तो कोई ताज्जुब नहीं, क्योंकि आने वाला चुनाव पवार की अधूरी हसरतों के लिए आखिरी मौका होगा। इसलिए पवार वह सब कुछ करेंगे जो वे कर सकते हैं।