प्रवासी भारतीयों का परदेस में जलवा

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प्रवासी भारतीय दिवस की कल्पना मैंने ही की थी या यूँ कहें कि मुझे ऐसा सौभाग्य प्राप्त हुआ था। प्रवासी भारतीयों की लगभग दो करोड़ की संख्या के मद्देनजर मुझे यह स्वीकार करने में कतई कोई हिचकिचाहट नहीं होती कि भारत की विदेश नीति व भारत की सुरक्षा के दृष्टिकोण से ये बेहद महत्वपूर्ण है। तय है कि भारत की प्रगति व उत्थान के लिए इन्हें साथ लेकर चलना बेहद जरूरी है ताकि भारत एक विकसित देश बने।

विदेश सेवा से जुड़े रहने के कारण इस मामले पर मेरी नजर और रुचि तो स्वतः ही रही पर इस दौरान मेरे साथ हुई एक-दो घटनाओं ने इसके बृहत्तर और दूरगामी पहलुओं को लेकर भी मुझे यथेष्ठ रूप से सचेत और सजग किया। मसलन, जब मैं पहली बार कनाडा के बेंकुवर शहर में कॉन्सुलेट जनरल ऑफ इंडिया का पदभार संभालने के लिए पहुँचा, संयोग से उसी दिन भारत में ऑपरेशन ब्लू स्टार के तहत स्वर्ण मंदिर में भारतीय सेना घुसी। वहाँ परिस्थितियाँ कुछ ऐसी बनीं कि मुझे, मेरी पत्नी और दो छोटे-छोटे बच्चों को एयरक्राफ्ट से ही आगवानी कर स्थानीय पुलिस को मेरे आवास तक पहुँचाना पड़ा।

जाहिर है, ऐसे में जब मैं कनाडा पहुँचा तो वहाँ मैंने भारत में हुई एक घटना की जबर्दस्त अनुगूंज सुनी-देखी। इसी ने आगे चलकर मुझे भारत सरकार को प्रवासी दिवस मनाने का सुझाव देने के लिए प्रेरित किया ताकि प्रवासी भारतीयों को भारत के साथ करीब से जोड़ा जा सके और उन्हें भारत की घटनाओं-परिघटनाओं की स्पष्ट और सही जानकारी मिलती रहे।

हालाँकि वर्तमान सरकार ने विदेश मंत्रालय से इतर हटकर प्रवासी भारतीयों के लिए अलग से प्रवासी भारतीय मंत्रालय बनाकर खाड़ी देशों में रह रहे लोगों की समस्याएं देखने-सुनने-सुलझाने के मामले में तो कुछ अच्छा काम किया लेकिन आज जब हम नौवाँ प्रवासी दिवस मना रहे हैं तो पाते हैं कि धीरे-धीरे इस कार्यक्रम ने प्रवासियों की दिलचस्पी खोई है। दरअसल, प्रवासी भारतीय मंत्रालय और विदेश मंत्रालय के हित एक-दूसरे से भिन्न हैं।

मसलन, विदेश मंत्रालय इन प्रवासियों की ओर तब मुखातिब होता है जब उसे अपनी विदेश नीति पर कोई हित साधना रहता है, मसलन परमाणु संधि के मसले को ही लें, तब विदेश मंत्रालय प्रवासी भारतीयों को एकजुट करने की जुगत भिड़ाता है पर उसमें प्रवासी भारतीय मंत्रालय की कोई रुचि नहीं होती। फिर प्रवासी भारतीयों को लेकर किसी खास पहल में प्रवासी भारतीय मंत्रालय खुद को अक्षम पाता है क्योंकि विदेश मंत्रालय के लोगों के मुकाबले इनमें प्रवासी भारतीयों को लेकर समझ का घोर अभाव होता है।

इस मंत्रालय के अधिकारियों को प्रवासी भारतीयों की मानसिकता और वहाँ की स्थितियों का सम्यक्‌ ज्ञान नहीं होता क्योंकि ये कभी विदेश में नहीं रहे। तो इस नए मंत्रालय के गठन से कोई खास फायदा नहीं हुआ है। फिर दोनों मंत्रालय के बीच समन्वय का घोर अभाव है।

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दुर्भाग्यवश, धीरे-धीरे प्रवासी दिवस सरकार और उसके सहयोगी दलों का समागम स्थल बन गया है। विपक्ष की भूमिका अब एकदम नगण्य हो गई है। मंत्रालय के अधिकारियों की संकीर्ण सोच की वजह से प्रवासी भारतीय अपने साथ हो रहा भेदभाव महसूस करने लगे हैं। दूसरी ओर प्रवासी भारतीयों को भारत आगमन पर सुविधा प्रदान करने, उनका सम्मान करने और उन्हें भारतीय संस्कृति के करीब लाने की कोशिशों के प्रति सरकार के रुख का आलम यह है कि प्रवासी भारतीय केंद्र के निर्माण की घोषणा हुए सात साल बीत गए मगर अब तक उसका निर्माण कार्य शुरू नहीं हो सका है।

हम कहाँ तो सोचते थे कि प्रवासी केंद्र में प्रवासी भारतीयों के प्रवास के दिनों की तकलीफों, उनके संघर्षों और अब उनकी उपलब्धियों को प्रदर्शित करने वाले दृश्य-श्रव्य माध्यम के तथ्यपूर्ण-कलापूर्ण चीजें एकत्रित की जाएंगी, वहाँ वे रह सकेंगे, खुद को अभिव्यक्त कर सकेंगे पर इसकी जरूरत को लेकर सरकार कतई गंभीर नहीं है।

बहरहाल, बैंकुवर के अपने पहले ही दौरे में उत्पन्न हुई घटनाओं ने मुझे प्रवासी भारतीय विषय पर गहरे विचार-विमर्श के लिए मजबूर किया था। मैंने गांठ बांध ली कि इसे समझने में भूल नहीं की जानी चाहिए कि भारत या भारतीय प्रायद्वीप में चल रहे किसी भी तरह के अलगाववादी आंदोलन मसलन, खालिस्तानी अलगाववाद या तमिल लिबरेशन जैसे मूवमेंट को प्रवासी भारतीयों से आर्थिक और नैतिक समर्थन मिल सकता है।

यह तथ्य है कि अलगाववादी विदेशों में रह रहे अपने प्रवासी समुदायों से सहायता की मांग करते हैं और यहाँ तक कि वह सहायता उस आंदोलन का सबसे सबल पक्ष भी बन जाता है। इंग्लैंड के कुछ संसदीय क्षेत्र में पाक अधिकृत कश्मीर से प्रवास कर गए लोग बड़ी संख्या में रहते हैं और स्थानीय सांसदों को कश्मीर मसले पर नीति बनाने या कुछ व्यक्तव्य देने से पहले उनकी हितचिंता करनी पड़ती है।

सांसदों पर इनका अच्छा-खासा दबाव रहता है इसलिए आवश्यक है कि हमारा प्रवासी भारतीयों से हमेशा संपर्क बना रहे और इन्हें भारत के आंतरिक मामलों की स्पष्ट और बेहतर जानकारी मिले। ऐसा नहीं होने पर, सही जानकारी के अभाव में समुदाय विशेष की हितचिंता या बहकावे में आकर वह भारत विरोधी कदम उठा सकता है।

दूसरी ओर अस्सी के दशक में जब चीन अपने उत्थान की ओर अग्रसर हो रहा था तब उसने खुद को एक उन्नत औद्योगिक देश बनाने में प्रवासी चीनियों की भूमिका की पहचान की थी। चीन का उदाहरण लेकर यह बात समझी जा सकती है। तथ्य है कि चीन में जो विदेशी निवेश हुआ है उसका 65 से 70 फीसदी हिस्सा प्रवासी चीनियों का है।

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चीन में जो पहला विदेशी निवेश का लाइसेंस निर्गत हुआ था वह एक प्रवासी चीनी थाईलैंड वाले के नाम था। ऐसे कितने ही देश हैं जिन्हें उन्नत और विकसित बनाने में प्रवासियों का जबर्दस्त योगदान रहा है। ऐसे में प्रवासी भारतीयों के विषय में गहन अध्ययन की जरूरत है ताकि हम उन्हें, उनकी अपेक्षाओं और प्रभावों को अच्छी तरह जान सकें और उन्हें भारत की स्थितियों की सही जानकारी उपलब्ध करा सकें।

नब्बे के दशक में जब सूचना तकनीक का जबर्दस्त विकास हुआ तब अमेरिका में भारतीय इंजीनियरों ने इस क्षेत्र में खासी तरक्की की। सिलिकॉन वैली में काम करने वाले प्रवासी भारतीयों की वजह से अमेरिका में भारत और भारतीयों की एक खास छवि बनी कि भारत के लोग बड़े गुणी और ज्ञानी हैं। प्रवासियों की उपलब्धियों के कारण भारत की छवि में जो निखार आया इसके लिए आप करोड़ों रुपए खर्च कर देते तब भी यह संभव न हो पाता। यह भी सही है कि उनको भी भारतीयों से बड़ा लाभ हुआ।

अतः इस लाभादायी आदान-प्रदान को और सुलभ व सहज बनाने के लिए प्रवजन और प्रवास के विषयों पर सम्यक्‌ ज्ञानवर्द्धन हो। वैश्वीकरण और उदारीकरण की आर्थिक नीतियों पर जब से हम चले तब से हमें इस तरह के फायदे मिलने शुरू हुए हैं। सोवियत संघ के विघटन के बाद उन पश्चिमी देशों के साथ हमारे विवाद भी खत्म होते गए। वहाँ भी बड़ी संख्या में प्रवासी भारतीय रह रहे थे। उनकी संख्या और भी बढ़ी है।

खाड़ी के देशों में काम करने वाले हमारे करीब 35 लाख लोगों, जिनमें मजदूर ज्यादा हैं, के सामने अनेक प्रकार की समस्याएँ हैं। मैंने उनका गहराई से अध्ययन किया और अपने सुझाव सरकार को दिए। सरकार ने अंततः मामले की गंभीरता समझी और सबसे पहला काम पर्सन ऑफ इंडियन ओरिजीन (पीआईओ) कार्ड जारी करने का किया।

मैं चूँकि इस मामले में रुचि और दखल दोनों रखता था तो वर्ष 2000 में मेरी भारत वापसी के वक्त विदेश मंत्रालय ने एक नई व्यवस्था बनाई और यह देखना शुरू किया कि प्रवासी भारतीयों के संग किस तरह से गतिशील रिश्ते बनाए जाएं। एनडीए सरकार का इस संबंध में दृष्टिकोण बेहद सकारात्मक था। तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की छवि खुद प्रवासी भारतीयों के बीच बेहद अच्छी थी और फिर भाजपा की जो सांस्कृतिक राष्ट्रीयता की अवधारणा है उसके प्रति भी प्रवासी भारतीयों में खास प्रकार की भावुकता पाई जाती है।

ऐसे में प्रवासी भारतीयों और तत्कालीन सरकार के बीच एक गहरा तादात्म्य पैदा हुआ था। ऐसे में सरकार ने एक उच्चस्तरीय समिति का गठन किया। मुझे भी उसमें सदस्य सचिव के रूप में काम करने का अवसर मिला। तब मैंने विश्व भर में फैले अपने प्रवासी भारतीयों की स्थितियों का अध्ययन किया और उनकी अपेक्षाओं के मद्देनजर अपनी ओर से उठाए जा सकने वाले कार्यों आदि की बाबत एक 600 पृष्ठ की रिपोर्ट भारत सरकार के समक्ष रखी।

हम कैसे प्रवासी समुदाय को भारत से जोड़ें इस विषय पर हमने तीन अंतरिम अनुशंसा प्रस्तुत की। एक कि हम प्रवासी दिवस मनाएं, दूसरा प्रवासी सम्मान दें और तीसरा कि पीआईओ कार्ड की फीस कम करें। सौभाग्य से ये सुझाव मान लिए गए।

हमें प्रवासी दिवस के लिए एक खास दिन तय करने को कहा गया। चूँकि दिसंबर के अंतिम दिनों में छुट्टियों के कारण अनेक प्रवासी भारत आते हैं तो हमने इसके आसपास ही एक दिन तय करना ठीक समझा। संयोग से मैं उन्हीं दिनों तीसरी या चौथी बार रिचर्ड एटेनबरो की फिल्म 'गाँधी' देख रहा था।

फिल्म के शुरुआती दृश्य में ही महात्मा गाँधी अपने भारत आगमन पर जब जहाज से उतर रहे होते हैं तब नीचे लिखा आता है - 9 जनवरी, 1915। मेरी नजर इस दृश्य पर ठिठक गई। मैंने महसूस किया कि दो दशक से ज्यादा समय तक विदेश में रहने के बावजूद एक भारतीय अपने देश की गुलामी की बेड़ियों के बारे में सोचता रहा था और अंततः उसे मुक्ति दिलाने के उद्देश्य से भारत लौट रहा था। आखिर अपने देश के प्रति उसमें कितना समर्पण और स्नेह रहा होगा !

तभी मैंने तय किया कि प्रवासी दिवस के लिए नौ जनवरी से बेहतर दिन नहीं हो सकता क्योंकि इस दिन हमारे देश का सबसे प्रभावशाली प्रवासी भारत लौटा था। मैं इस दिन के महत्व को लेकर इतना आश्वस्त हो चुका था कि मैंने शिकागो से ही यह सुझाव भेज दिया और बाद में इसे अपनी रिपोर्ट में भी शामिल किया।

खैर, प्रवासी दिवस शुरू हुआ। इसका उद्देश्य हमने यह रखा कि बिना किसी भेदभाव के हमें पूरे विश्व में फैले प्रवासी भारतीयों में एक ऐसा जज्बा पैदा करें कि उन्हें इस बात का गौरव हो कि हम भारतीय हैं। हम विश्व की प्राचीनतम सभ्यता और संस्कृति हैं तो इसका गुमान उनमें बरकरार रहे। हमने तय किया कि हम हिंदुस्तान को एक हब की तरह विकसित करेंगे और प्रवासी भारतीयों से कुछ ऐसे प्रगाढ़ संबंध और जीवंत भावना विकसित करेंगे कि उन्हें लगेगा कि वे एक वैश्विक भारतीय परिवार के अभिन्न अंग हैं।

साथ ही, हमने सोचा कि हम उन्हें 21वीं सदी के भारत से अवगत कराएंगे और उन्हें उनकी प्राचीन संस्कृति से भी जोड़ेंगे। प्रवासी भारतीयों को हमारी मंशा और आतिथ्य पुरजोर और स्पष्ट दिखे इसके लिए हमने तत्कालीन सरकार में विपक्ष में बैठ रही पार्टी कांग्रेस के लोगों को भी जोड़ा। तत्कालीन प्रधानमंत्री ने स्वयं सोनिया गांधी को पत्र लिखकर इस प्रवासी दिवस के अवसर पर प्रवासियों के बीच आने का न्योता दिया ताकि प्रवासियों को लगे कि पूरा भारत समेकित रूप से चाहता है कि वे अपने मूल से जुड़ें।

इस अवसर पर तत्कालीन प्रधानमंत्री ने कई घोषणाएँ कीं - चाहे वह दोहरी नागरिकता की बात हो या प्रवासी केंद्र बनाने की।
एक महत्वपूर्ण चुनौती यह भी थी कि प्रवासी भारतीयों की युवा पीढ़ी में भारतीयता की भावना कैसे भरी जाए? हमने सोचा था कि भारतीय विश्वविद्यालयों में छह महीने का एक ऐसा कोर्स विकसित करेंगे लेकिन पीआईओ विश्वविद्यालय की घोषणा भी घोषणा तक ही सीमित होकर रह गई।

मुझे तो लगता है कि विदेश विभाग को ही एक अलग विभाग बनाकर प्रवासी भारतीय और भारत के बीच अच्छे तालमेल के प्रयास करने चाहिए। संसद की स्थायी समिति इस विषय पर विशेषज्ञों की राय ले और किसी नतीजे पर पहुंचे यह बेहद जरूरी है। हम न भूलें कि भारत के विकास के लिए प्रवासी भारतीय और प्रवासी भारतीयों के लिए भारत बेहद जरूरी है। हमारे परस्पर विकास के लिए बेहतर संबंधों की जरूरत को नजरअंदाज करना देशहित को नजरअंदाज करना है।

(विवेकानंद झा से बातचीत पर आधारित)

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