रिसाइक्लिंग (पुन:उपयोग) प्रक्रिया से कचरे का निस्तारण

लगभग सालभर पहले अंतरराष्ट्रीय मीडिया में खबर आई थी कि में देश में कचरे की बढ़ती मांग को लेकर नॉर्वे कचरा आयात करने लगा है। नॉर्वे की राजधानी ओस्लो में तो 50 प्रतिशत से ज्यादा बिजली की पूर्ति व वातानुकूलन के लिए हीट कचरे को जलाकर उत्पन की जाती है। इस रिपोर्ट को दुनियाभर से अलग-अलग तरह की प्रतिक्रियाएं मिलीं। कुछ लोगों ने जहां इसे मजाक समझकर टाल दिया, वहीं कुछ लोग नॉर्वे द्वारा विकसित कचरे से ऊर्जा उत्पादन करने की तकनीकों से बहुत प्रभावित हुए।
 

 
15 नवंबर का दिन अमेरिका में ‘अमेरिका रिसाइकल दिवस’ के रूप में मनाया जाता है। भारत में इस तरह का कोई प्रचलन नहीं है और अगर होता भी तो शायद इसका अंजाम ‘स्वच्छ भारत अभियान’ जैसा होता, जहां राजनेता पहले से साफ सरकारी कार्यालयों में पहले अपने लोगों द्वारा कचरा डलवाते व फिर मीडिया के सामने हाथ में झाड़ू लेकर सफाई करने का स्वांग रचते दिखाई देते हैं। 
 
जहां मानव आवास व मानवीय क्रियाएं होंगी, वहां ठोस अपशिष्ट पदार्थों (सॉलिड वेस्ट) का पाया जाना स्वाभाविक है। हम इसे कूड़ा-करकट अथवा कचरे का नाम देते हैं। नियोजित शहरी क्षेत्रों में इस कचरे के निस्तारण का काम नगरपालिका अथवा नगर निगमों का होता है। पिछली एक सदी में स्वच्छता व कचरा प्रबंधन एक विज्ञान बनकर उभरा है। शहर चाहे अमीर हो या गरीब, वहां कचरा निस्तारण की आवश्यकता कम हो या अधिक, कोई भी नगरपालिका एक बुनियादी तंत्र के बिना कचरा प्रबंधन नहीं कर सकती है।
 
आमतौर पर यह कचरा घरों, बाजारों, कार्यालयों, शैक्षणिक संस्थानों व अस्पतालों से आता है। इसके निस्तारण हेतु सीधी-सी श्रृंखला है- लोग निर्धारित स्थानों पर कचरा डालते हैं, नगरपालिका के लोग उसे वहां से उठाकर शहर के बाहर लैंडफिल (कचरे निस्तारण के लिए नियत स्थान) में डाल देते हैं अथवा जलाकर या अन्य माध्यमों से इसको नष्ट कर देते हैं।
 
रिसाइक्लिंग भी कचरा प्रबंधन का ही एक हिस्सा है। एक स्वच्छ वातावरण की चाह को हम 3 ‘आर’ के रूप में निरुपित कर सकते हैं। ‘रिड्यूस’ (रिसाइकल हो सकने वाले पदार्थों से बने उत्पादों का इस्तेमाल करें), ‘री-यूज' ( किसी भी उत्पाद का जितना हो सके उतना प्रयोग करें) व रिसाइकल। वर्ष 1997 से प्रत्येक 15 नवंबर को रिसाइक्लिंग प्रक्रिया के बारे में जनजागरूकता फैलाने हेतु ‘अमेरिका रिसाइकल दिवस’ मनाया जाता है।
 
 

अमेरिकी सरकार की एक सरकारी संस्था- एन्वायरन्मेंट प्रोटेक्शन एजेंसी (ईपीए) के मुताबिक अमेरिकियों ने वर्ष 2012 में कुल 250 मिलियन कचरा उत्पन्न किया अर्थात हर व्यक्ति ने 4.4 पाउंड कचरा पैदा किया। इस कचरे का 34% रिसाइकल किया गया था।
 
रिसाइक्लिंग की प्रक्रिया को सफल बनाने के लिए एक सुनियोजित बुनियादी तंत्र की आवश्यकता होती है, मसलन अलग-अलग रंगों के कचरा पात्रों से आपको पहले ही पता चल जाता है कि कौन-सा कचरा किस पात्र में फेंकना है। इससे रिसाइक्लिंग योग्य कचरे को अलग से छांटने की जरूरत नहीं पड़ती। इसी प्रकार से रिसाइक्लिंग योग्य उत्पादों पर ‘रिसाइक्लिंग योग्य’ का चिह्न बना होना चाहिए।
 
मेरे शहर शिकागो में नगरपालिका हर साल 6 लाख घरों से लगभग 1 मिलियन टन कचरा उठाती है। यहां सन् 2007 में शुरू हुआ ‘ब्ल्यू कार्ट रेजिडेंशियल रिसाइक्लिंग प्रोग्राम’ अब तक 2.6 लाख घरों तक अपनी पहुंच बना चुका है। इस अभियान के तहत नागरिकों को रिसाइक्लिंग योग्य कचरा पारंपरिक काले कचरा पात्रों की जगह नीले कचरा पात्रों में डालने के लिए प्रेरित किया जाता है। इन नीले डिब्बों में से उत्पादों को छांटकर व प्रोसेस कर नए उत्पादों के रूप में बेचने के लिए भेज दिया जाता है।
 
अब हम चर्चा का रुख भारत की ओर करते हैं। भारत में साफ-सफाई व स्वच्छता की अवधारणा कोई नई नहीं है। प्राचीन सिंधु घाटी सभ्यता अपनी शानदार वास्तुकला व नगर नियोजन के लिए जानी जाती थी और निश्चित रूप से ही वहां पर कचरा प्रबंधन की उत्तम व्यवस्था रही होगी। लेकिन आज का भारत बढ़ती जनसंख्या, तेज व अनियोजित शहरीकरण व भयंकर भ्रष्टाचार के दुष्चक्र में उलझ गया है। तिस पर, नागरिकों में ‘सिविक सेंस’ की कमी ने कोढ़ में खाज का काम किया है। परिणामस्वरूप आज हम कचरे के ढेर पर बैठे हैं। हमारे नेता गुड़गांव व बेंगलुरु जैसे शहरों के विश्वस्तरीय होने का दावा करते हैं, परंतु चारों ओर फैला कचरा व बदबू का माहौल यहां हुए विकास की वास्तविक तस्वीर प्रस्तुत कर देता है।
 
रिसाइक्लिंग की बात छोड़िए, हमारे शहरों में अभी तक कचरा एकत्रण व निस्तारण का तंत्र भी पूरी तरह से विकसित नहीं हो पाया है। यही स्थिति कस्बों व गावों में है। और ऊपर से हमारे जीवन का अभिन्न हिस्सा बन चुके भ्रष्टाचार ने कचरा प्रबंधन के क्षेत्र को भी नहीं बख्शा है। उदाहरण के लिए 2013 में बृहत बेंगलुरु महानगरपालिका ने कचरा निस्तारण के लिए 360 करोड़ रुपए का भारी- भरकम बजट खर्च किया था। इसमें से कितना पैसा कट व कमीशन की भेंट चढ़ गया होगा, आप स्वयं ही अंदाजा लगा सकते हैं। 
 
दूसरे शब्दों में कहें तो हम एक राष्ट्र के रूप में कचरे के निस्तारण में बुरी तरह असफल रहे हैं।
 
 

भारत हर वर्ष लगभग 100 मिलियन टन ठोस कचरा उत्पन्न करता है, जो कि अमेरिका की तुलना में 4 गुना अधिक है। 
 

 
2008 में प्रकाशित विश्व बैंक की एक रिपोर्ट के अनुसार 4,378 भारतीय कस्बों व शहरों में से 423 प्राथमिक दर्जे के शहर (1 लाख से ज्यादा जनसंख्या वाले) की गिनती में आते हैं। यह 423 नगर भारत के कुल अर्बन कचरे का 72% भाग उत्पन्न करते हैं। सेंट्रल पब्लिक हेल्थ व एन्वायरन्मेंटल इंजीनियरी ऑर्गेनाइजेशन के अनुसार भारतीय शहरों व कस्बों में प्रति व्यक्ति कचरा उत्पादन की मात्रा 0.2 से 0.6 किग्रा/प्रतिदिन है।
 
केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (सीपीसीबी) के आंकड़ों के अनुसार कचरे का औसत एकत्रण 50% से 94% तक ही हो पाता है। एकत्र किए हुए कचरे में से 94% का निस्तारण गलत व अवैज्ञानिक तरीकों से किया जाता है।
 
भारत में भी कचरा प्रबंधन मूल रूप से नगर पालिकाओं की जिम्मेदारी है। इसी जिम्मेदारी को सही ढंग से नहीं निभाने के कारण 1996 में सुप्रीम कोर्ट में भारत सरकार, राज्यों व नगर पालिकाओं के अधिकारियों के खिलाफ एक जनहित याचिका दायर की गई। इस पर सुप्रीम कोर्ट ने अपना फैसला सुनाते हुए भारत सरकार को आवश्यक कदम उठाने के निर्देश दिए। फलस्वरूप कचरा प्रबंधन के लिए नए कानूनी नियम बने।
 
भारत सरकार के पर्यावरण व वन मंत्रालय ने ‘म्युनिसिपल सॉलिड वेस्ट (मैनेजमेंट व हैंडलिंग) नियम, 2000 पारित किया। आज हम वर्ष 2014 में हैं, परंतु तब से आज तक स्थिति और अधिक खराब ही हुई है। नवनिर्वाचित प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने शहरों में बढ़ रहे प्रदूषण व कचरे के ढेर से निजात पाने हेतु इस वर्ष स्वतंत्रता दिवस पर ‘स्वच्छ भारत अभियान’ की घोषणा’ की।
 
लेकिन पिछले 3 महीनों में हमने इस अभियान से क्या पाया है? बिना किसी उचित निस्तारण व्यवस्था के कचरे के ढेर को एक जगह से हटाकर दूसरी जगह लगा दिया जाता है। सारे मंत्रीगण व देशभर की भाजपा इकाइयां स्वच्छता का दिखावा करने व फोटो खिंचवाने में व्यस्त हैं जबकि होना यह चाहिए कि सरकार ‘स्वच्छ भारत अभियान’ के सफल क्रियान्वयन के लिए प्रभावी योजना बनाए व आधारभूत सुविधाओं के विकास पर ध्यान दे। 
 
आखिरकार ‘स्वच्छ भारत अभियान’ एक तकनीकी व वैज्ञानिक अभियान है, जो कई चरणों में संपन्न होगा। इसमें धन, बुनियादी तंत्र, तकनीक व सामुदायिक सहयोग की आवश्यकता पड़ेगी। अगर हम किसी भी चरण में चूकते हैं तो यह कचरे का ढेर बढ़ता ही जाएगा।
 
हमारे देश ने हाल ही में प्रथम प्रयास में मंगल ग्रह पर यान भेजने में सफलता प्राप्त की है। (हालांकि यूरोपियन यूनियन भी प्रथम प्रयास में सफल हुआ था, परंतु इस अभियान में बहुत से देश शामिल थे)। इतनी गौरवशाली उपलब्धि वाले मुल्क के लिए कचरे की समस्या से निपटना कोई मुश्किल काम नहीं होना चाहिए।
 
अंत में, रिसाइक्लिंग पर एक आखिरी टिप्पणी! भले ही, भारत में रिसाइक्लिंग का तांत्रिक ढांचा मौजूद नहीं है तथापि कचरा प्रबंधन तंत्र में कहीं न कहीं रिसाइक्लिंग तो हो ही रही है। थोड़ा ध्यान दें तो अनुभव करेंगे कि कबाड़ी, रद्दी वाले और खपरैल बीनने वाले भारत में रिसाइक्लिंग के प्रणेता हैं।
 
लेखक शिकागो (अमेरिका) में नवजात शिशुरोग विशेषज्ञ तथा सामाजिक-राजनीतिक टिप्पणीकार हैं।

 

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