15 अगस्त : आजादी के दीवानों को समर्पित कविता

Independence Day Poem
 
एक दीवाना था
सनसनाती बिजलियों को मस्ती में छेड़ा था
तूफ़ानों की बांहों को कस के मरोड़ा था
तमतमाते शोलों को हाथों में सजाया था
मंजिल की लौ छूने वो परवाने सा मचला था
 
आंधियों के बवंडर से अभिमन्यु सा भिड़ा था
खून से लथपथ था परंतु सीना रखा चौड़ा था
खौले समंदर में कश्ती को धकेला था
मंजिल की लौ छूने वो परवाने सा मचला था
 
जलजलों के उथल-पुथल में जजीरे सा खड़ा था
ज्वालामुखी की कगार पर पहाड़ सा डटा था
कोहरे की धुंध में दीप स्तंभ सा उजला था
मंजिल की लौ छूने वो परवाने सा मचला था

 
लक्ष्य को पाने की जिद पर अड़ा था
चांद बटोरने ज्वार सा उमड़ा था
अपनी ही धुन में वह दीवाना चला था
मंजिल की लौ छूने वो परवाने सा मचला था
मंजिल की लौ छूने वो परवाने सा मचला था। 

वेबदुनिया पर पढ़ें

सम्बंधित जानकारी