प्रवासी साहित्य : गुंजित पुरवाई...

खिले कंवल से,
लदे ताल पर,
मंडराता मधुकर,
मधु का लोभी।
 
गुंजित पुरवाई,
बहती प्रति क्षण,
चपल लहर,
हंस, संग-संग हो ली।
 
एक बदली ने झुककर पूछा,
'मधुकर, तू गुन-गुन क्या गाए?
छपक-छप मार कुलांचे,
मछलियां, कंवल पत्र में,
छिप-छिप जाएं।' 
 
हंसा मधुप रस का लोभी,
बोला, 'कर दो छाया बदली रानी।
मैं भी छिप जाऊं कंवल जाल में,
प्यासे पर कर दो, मेहरबानी।'
 
'रे धूर्त भ्रमर तू रस का लोभी,
फूल-फूल मंडराता निस दिन,
मांग रहा क्यों मुझसे छाया?
गरज रहे घन ना मैं तेरी सहेली।'
 
टप-टप बूंदों ने,
बाग, ताल, उपवन पर,
तृण पर, बन पर,
धरती के कण-कण पर,
अमृत रस बरसाया,
निज कोष लुटाया।
 
अब लो बरखा आई,
हरीतिमा छाई,
आज कंवल में कैद
मकरंद की सुन लो
प्रणयपाश में बंधकर,
हो गई सगाई।
 
 
 

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