तुम क्या जानो प्यार क्या है प्यार की उपादेयता क्या है तुम तो बस ! विचरते हो स्वप्नलोक में केंद्रित हो अपने में भ्रमित हो अर्थ के इंद्रजाल में जिसका कोई आदि नहीं अंत नहीं केवल, एक तृष्णा मृगतृष्णा... और कुछ नहीं चलो ! उठो, जागो, चेतो और अपनी आत्मसत्ता का अनुसंधान करो जिसमें जल है, प्रवाह नहीं थल है, स्थिति नहीं आकाश है, व्याप्ति नहीं तुम्हारी गति-अगति की यह संधि वेला अपने निविड़ विस्तार में अपार रिक्तता समेटे तुम्हारी चैतन्य की विपुलता का आह्वान कर रही है क्षण भर ! केवल क्षण भर ! अपने ह्रदय कपाट खोल दो !