राज्यवर्द्धन सिंह नहीं 'राज' कर पाए

बीजिंग ओलिम्पिक में भारत के निशानेबाज और मार्चपास्ट में ध्वजवाहक की भूमिका निभाने वाले राज्यवर्द्धन सिंह राठौड़ से काफी उम्मीदें थीं कि वे डबल ट्रैप निशानेबाजी में पिछली सफलता से एक पायदान ऊपर चढ़ेंगे, लेकिन क्वालिफिकेशन राउंड में ही बाहर हो जाने की वजह से वे फाइनल तक भी नहीं पहुँच सके।

सेना के इस निशानेबाज ने एथेंस ओलिम्पिक खेलों में रजत पदक प्राप्त करके पदक तालिका में भारत नाम अंकित कराया था और भारत इस एकमात्र पदक के सहारे 66वें स्थान पर रहा था, वरना भारतीय कुनबा एथेंस से खाली हाथ ही लौटता।

राज्यवर्द्धन ने भारत के लिए पहली बार व्यक्तिगत रजत पदक जीता था और इस कामयाबी ने उन्हें भारत का सितारा ओलिम्पियन बना दिया था। सेना में तरक्की मिली, देश ने दौलत लुटाई, लोगों ने शोहरत की बुलंदी पर पहुँचा दिया।

इस बार शेरवानी में जब वे मार्चपास्ट में भारतीय दल के मुखिया बनकर तिरंगा लेकर चल रहे थे, तब उनके चेहरे पर आत्मविश्वास था और इसी आत्मविश्वास ने उन पर उम्मीदों का बोझ लाद दिया था। सोमवार को जब तीसरा ओलिम्पिक खेल रहे अभिनव बिंद्रा ने सोना जीता तो आस जगी कि राज्यवर्द्धन भी रजत पदक से आगे बढ़ेंगे, लेकिन 'मंगल' के दिन सब 'अमंगल' हो गया।

भारत के इस होनहार निशानेबाज की उम्मीदें डबल ट्रैप निशानेबाजी के क्वालिफिकेशन राउंड में ही दम तोड़ गईं। अब टीम इवेंट में राज्यवर्द्धन कोई करिश्मा कर सकें तो ठीक, वरना उनकी झोली खाली ही रह जाएगी। हम भारतीयों के साथ यह दिक्कत है कि हम खिलाड़ियों से बहुत जल्दी और बहुत सारी उम्मीदें बाँध लेते हैं और जब यह उम्मीदें टूटती हैं तो उन्हें कोसने में जरा भी देर नहीं लगाते।

राज्यवर्द्धन ने जब एथेंस की कामयाबी हासिल की तो उन्हें इस कदर 'हीरो' बना दिया कि खुद राज्यवर्द्धन भी यह चकाचौंध सहन नहीं कर पाए, जबकि होना तो यह चाहिए था कि उन्हें अकेला छोड़ दिया जाता और सिर्फ बीजिंग के स्वर्ण पदक पर निशाना साधने के लिए समय, सुविधा और आराम की सुविधा दी जाती, लेकिन ऐसा नहीं हुआ। राज्यवर्द्धन जहाँ भी जाते, वहाँ भीड़ पहले से मौजूद रहती। वे भारतीय खेल जगत की ऐसी सेलिब्रेटी बन गए थे कि हर कोई उन्हें अपने मंच पर देखना चाहता था। आज यदि राज्यवर्द्धन नाकाम रहे हैं तो उसके लिए कई कारण जिम्मेदार हैं।

बीजिंग में स्वर्ण पदक जीतने वाले अभिनव बिंद्रा का भी यही हाल होने वाला है। देश में आते ही वे सुकून के दो पल के लिए तरस जाएँगे। वजह यह कि देश में खिलाड़ी की सफलता पर उसे पलकों पर सजाने की परंपरा चल पड़ी है और कल तक जिन अभिनव बिंद्रा को उनकी गली-मोहल्ले के लोग नहीं पहचानते थे, आज उन्हें पूरा देश जान चुका है। यकीन मानिए अभिनव का निजी जीवन अब निजी नहीं रहेगा। भारतीय मीडिया की अंधी दौड़ उनका जीना मुहाल कर देगी।

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