यह जो लड़ने की वृत्ति है- लड़ने की वृत्ति के हजार रूप होते हैं। लड़ने की वृत्ति बड़ी फ्लेक्सिबल चीज है। वृत्ति है। हमने क्या किया है, पहले तो हम जो बुनियादी चीजें हैं, उनको स्वीकार नहीं करते हैं। फिर वे कनिंग रास्ते खोजकर निकलती हैं। जैसे लड़ने की वृत्ति।
इसे हमें स्वीकार करना चाहिए, यह है। लेकिन हम कहेंगे, नहीं है। मनुष्य का धर्म नहीं है लड़ना। हम क्या करेंगे? पहले तो इसको इनकार कर देंगे, मनुष्य का धर्म ही नहीं है लड़ना, यह तो पशु का धर्म है। इसको पशु का धर्म तय कर देंगे और मनुष्य भी लड़ने की वृत्ति से भरा हुआ है, जो स्वाभाविक है। इसके लिए हम और कुछ न करेंगे और मनुष्य को समझाएँगे कि मनुष्य कभी लड़ता नहीं। मनुष्य तो महान है। अब यह उस बेचारे के भीतर जो वृत्ति है, वह क्या करे? अब वह कोई तरकीबें निकाल लेती है- मस्जिद के पीछे से लड़ेगा, मंदिर के पीछे से लड़ेगा, भाषा के पीछे से लड़ेगा।
अगर हम सीधा-सीधा स्वीकार कर लें कि लड़ने की वृत्ति मनुष्य का हिस्सा है, तो हम उसके लिए आउट-लेट खोज सकते हैं, ज्यादा उचित है। जैसे, खेल में, अगर हम अपने मुल्क के लड़कों को तीन घंटे ग्राउंड पर खेल खिला सकें, तो हम मुल्क के नब्बे परसेंट उपद्रव को बंद कर दें। अब एक उम्र है,
जब एक बच्चा दो घंटे तक गेंद फेंकता है, वह उसको नहीं मिलता है फेंकने को, वह पत्थर फेंकता है। वह पत्थर बस पर फेंकेगा, काँच पर फेंकेगा। आप उसको तीन घंटे ग्राउंड पर गेंद फिकवाते हैं, स्टिक लड़वा दें, लकड़ियाँ तुड़वा दें, तो वह तीन घंटे बाद तृप्त होकर घर लौट आएगा।
वैज्ञानिक रास्ते खोजने चाहिए। उससे ही संयम पैदा होता है। संयम जो है, वह सप्रेशण नहीं है। संयम जो है, वह समझ है। अगर एक युवक एक उम्र में जब वह लड़ना चाहता है, और मैं समझता हूँ कि लड़ने की बात युवा होने का लक्षण है। और जिस दिन यह बात नहीं होगी, दुनिया में, उस दिन दुनिया बड़ी फीकी हो जाएगी। अब रहा लड़ने का जो क्षण है, उस लड़ने के क्षण को हम गौरवपूर्ण बना पाते हैं कि अगौरवपूर्ण बना पाते हैं। यह हमारी सामाजिक व्यवस्था और चित्त को सोचने की बात होगी।
अब जब युवक लड़ना चाहते हैं तब वे इस ढंग से लड़ें कि लड़ना खेल हो जाए और गंभीरता न बन जाए। लड़ेंगे तो पक्का,और आपने खेल न बनाया तो वे हिंदू-मुसलमान के नाम पर लड़ लेंगे। लड़ेंगे तो पक्का ही, लड़ने से नहीं रुक सकते।
तो जो सोसायटी निकास दे देती है, उस सोसायटी में उपद्रव दिशा ले लेगी, फिर उस उपद्रव को हम क्रिएटिव भी बना सकते हैं। अब जैसे कि खतरे की एक वृत्ति है युवक से पास। एक उम्र तक वह खतरा लेना चाहता है- चाहें तो आप हिमालय पर चढ़वा लें, समुद्र पार करवा लें, वृक्षों पर चढ़वा लें, आकाश में हवाई जहाज उड़वा लें।