ओशो के द्वार पर बुद्ध की दस्तक...!

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तथागत गौतम बुद्ध ने अपने समय में वादा किया था कि मैं पच्चीस सौ वर्ष बाद पुनः आऊँगा और मैत्रेय के नाम से जाना जाऊँगा। उनकी भविष्यवाणी के अनुसार यह घटना 25 दिसम्बर 1988 की मध्यरात्रि के समय रजनीशधाम पूना में घटी- विस्तृत विवरण

मुम्बई के गोविंद सिद्धार्ध ने अपने मनश्चशुओं से देखा कि गौतम बुद्ध की आत्मा किसी शरीर की खोज कर रही थी और उन्हें यह अतींद्रिय दर्शन हुआ कि ओशो का शरीर गौतम बुद्ध का माध्यम बन गया है।..लेकिन ओशो जापानी भविष्यद्रष्टा महिला का उल्लेख करते हैं और घोषणा करते हैं कि 'आज से में गौतम बुद्ध हूँ। तुम मुझे प्रिय मित्र कह सकते हो।.. जहाँ तक गौतम बुद्ध का संबंध है, मैं अपने हृदय में उनका स्वागत करता हूँ। मैं उन्हें अपने शब्द, अपनी खामोशियाँ, अपना ध्यान, अपना अंतरतम, अपने पंख उन्हें दूँगा।'

'उस जापानी बौद्ध संत महिला ने अपना चित्र भेजा है। कत्झेझे इशीदा, जापान के महानतम और सुप्रसिद्ध शिंतो मठ की रहस्यदर्शी महिला ने हाल ही में भगवान (ओशो)का चित्र देखकर कहाः यही वह व्यक्ति है जिसमें मैत्रेय बुद्ध ने प्रवेश किया। वे इक्कीसवीं सदी में यूटोपिया का निर्माण करने का प्रयास कर रहे हैं। कई विध्वंसक शक्तियाँ उनके खिलाफ हैं और कुछ लोग उन्हें शैतान कहते हैं, लेकिन मेरी जानकारी में शैतान को कभी जहर नहीं दिया गया है। सामान्यतया वह जहर देता है, जहर लेता नहीं। हमें इस व्यक्ति की (ओशो) रक्षा करनी चाहिए। बुद्ध ने उनमें प्रवेश किया है।'

बुद्ध का अंतिम शब्द था, सम्मासती।

बुद्धाहॉल में ओशो के अंतिम प्रवचन के अंतिम शब्द थे- स्मरण करो कि तुम भी एक बुद्ध हो-सम्मासती।.

मेरे प्रिय आत्मन्‌

मनीषा! यह इस वार्तामाला का अंतिम प्रवचन है।

यह वार्तामाला ऐतिहासिक महत्व की रही है। सात सप्ताहों से मैं जहर के खिलाफ संघर्ष कर रहा था- दिन-रात। यहाँ तक कि एक रात मेरे चिकित्सक अमृतो भी संदेहग्रस्त हो गए थे, कि शायद मैं बच नहीं सकता। वह निरंतर मेरी नाड़ी की गति पर और कार्डियोग्राफ पर मेरे हृदय की गति पर नजर रखे हुए थे। सात बार मेरे हृदय की एक धड़कन चूकी। सातवें दिन जब मेरे हृदय की एक धड़कन चूकी तो, उनकी वैज्ञानिक बुद्धि के लिए यह सोचना स्वाभाविक ही था कि हम एक ऐसी लड़ाई लड़ रहे हैं जो करीब-करीब हारी जा चुकी है। लेकिन मैंने उनसे कहा, चिंता मत करो, तुम्हारा कार्डियोग्राम गलती कर सकता है, यह केवल एक यंत्र है, मेरे द्वारा साक्षीपूर्वक सब कुछ देखे जाने में श्रद्धा रखो, मेरे हृदय की धड़कनों की फिक्र मत करो। सात हफ्तों के संघर्ष के अंतिम दिन जब मेरे शरीर से सारी पीड़ा विदा हो गई, अमृतो यकीन न कर सके! यह लगभग चमत्कार जैसा घट रहा था। सारा दर्द कहाँ चला गया?

उस अंतिम रात, मध्य रात में मैंने सुना कि कोई दरवाजे पर दस्तक दे रहा था। यह असंभव सी बात थी। मेरे दरवाजे पर कोई दस्तक नहीं देता। मुझे आँखें खोलना पड़ीं। कमरे में नितांत अंधेरा व्याप्त था, लेकिन अचानक मैंने देखा कि एक मानव, जिसका शरीर शुद्ध प्रकाश का बना हुआ था, बंद दरवाजे से ही भीतर प्रवेश कर रहा था।

एक पल को सब कुछ मौन था और मैंने बिना किसी स्रोत से आती एक आवाज सुनी कि क्या मैं भीतर आ सकता हूँ? अतिथि इतना विशुद्ध था, इतना सुवासयुक्त था, मुझे उसे अपने हृदय के अंतरतम मौन में प्रवेश देना ही पड़ा। यह शुद्ध प्रकाश का शरीर अन्य कोई नहीं, स्वयं गौतम बुद्ध थे।

तुम अभी भी मेरी आँखों में उस ज्योति शिखा की लपट देख सकते हो जिसे मैंने अपने भीतर पचाया है-एक ज्योतिशिखा जो ढाई हजार वर्षों से आश्रय की तलाश में पृथ्वी के आसपास घूमती रही थी।

मैं महत सौभाग्यशाली हूँ कि गौतम दि बुद्धा ने मेरे द्वार पर दस्तक दी।

तुम मेरी आँखों में उस लपट को, उस आग को देख सकते हो। तुम्हारी अंतरात्मा भी उसी शीतल अग्नि से बनी हुई है।...

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आपने चार दिन में देख ही लिया है कि जो काम आप करना चाहते थे वह मैं कर ही रहा हूँ, और उसे मैं युग और आवश्यकताओं के अनुकूल कर रहा हूँ। मैं किसी भी प्रकार से निर्देशित होने के लिए तैयार नहीं हूँ। मैं एक स्वतंत्र व्यक्ति हूँ। अपनी स्वतंत्रता और प्रेम से मैंने आपका एक अतिथि की भाँति स्वागत किया है, लेकिन कृपया आतिथेय बनने का प्रयास न करें।

इन चार दिनों मुझे सिरदर्द रहा। ऐसा मुझे तीस वर्षों में नहीं हुआ, मैं पूरी तरह भूल ही गया था कि सिरदर्द क्या होता है। हर बात असंभव हो गई थी। वे अपने ढंग के इतने अभ्यस्त हैं। वह ढंग अब संगत नहीं है।...मुझे जापान के प्राचीन शिंतो मंदिर की भविष्यद्रष्टा कात्जुए इशीरा से एक क्षमा प्रार्थना करनी है। मैंने एक पच्चीस सौ सदियों पुराने, तिथिबाह्म व्यक्तित्व को समाविष्ट करने का अथक प्रयास किया, लेकिन मैं आत्म पीड़ा में रहने के लिए तैयार नहीं हूँ।..मैं सोचा करता था कि गौतम बुद्ध एक निपट व्यक्ति है- और वही सही है, वे हैं। लेकिन उनकी इच्छा के विपरीत तिब्बत में, चीन में, जापान में, श्रीलंका में एक परंपरा खड़ी हो गई है। और मैं इन मूढ़ों से माथापच्ची नहीं करना चाहता। मैं अपने स्वयं के बल पर, अपने लोगों के साथ काम करना चाहता हूँ।

- मनीषा ने पूछा हैः

- प्यारे बुद्धा! जब से आप गौतम दि बुद्धा के आतिथेय हुए हैं, मुझे आप बिलकुल भिन्न लगते हैं और आपकी भौतिक उपस्थिति में ध्यान करना भी भिन्न लगता है। यह आपको बहुत दिनों बाद देखने का ही प्रभाव मात्र नहीं है, क्योंकि समय के साथ यह अहसास कम नहीं हुआ है, और न केवल यह मेरी कल्पना मात्र है, क्योंकि अन्य लोगों की भी ऐसी ही अनुभूति है। आपका प्रेम एक उषापूर्ण आलिंगन कम और एक विशाल पात्रक जैसा अधिक लगता है।

- मनीषा ! आज सायँ छह बजे के पहले तक तुम सही थीं। अब तुम्हारा प्रश्न असंगत है।

- ठीक है।

- आज नहीं तो कल यहाँ ऐसा कोई भी नहीं होगा जो अपनी हैसियत पर बुद्ध न हो। इसके पहले कि निवेदनो तुम्हें बुलाए, बुद्धा को राजी कर लो। ...वापस आ जाओ। अपने साथ अपना सारा मौन, और आनंद और महिमा लेते आओ। कुछ क्षण वसंत से भरपूर होकर बैठो।

- आज तुम्हें खड़े होकर संगीत के साथ नृत्य करना है, क्योंकि यह मेरी अंतिम घोषणा है।
- ओ.के. मनीषा?
- हाँ बुद्धा।
साभार : एस धम्मो सनंतनो तथा ओशो की अन्य पुस्तकों से संकलित अंशः
सौजन्य : ओशो इंटरनेशनल फाउंडेशन