कैसे निर्मित होता है व्यक्तित्व?

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आपके घर में छोटा बच्चा है, घर में कोई मेहमान आते हैं, आप उससे कहते हैं, चलो पैर पड़ो। और वह बिलकुल नहीं पड़ना चाह रहा है। लेकिन आपकी आज्ञा उसे माननी पड़ेगी।

मैं किसी के घर में जाता हूँ, माँ-बाप पैर पड़ते हैं, और अपने छोटे-छोटे बच्चों को गर्दन पकड़कर झुका देते हैं! वे बच्चे अकड़ रहे हैं, वे इन्कार कर रहे हैं। उनका कोई संबंध नहीं है, उनका कोई लेना-देना नहीं है, और बाप उनको दबा रहा है!

यह बच्चा थोड़ी देर में सीख जाएगा कि इसी में कुशलता है कि पैर छू लो। इसका पैर छूना व्यक्तित्व का हिस्सा हो जाएगा। फिर यह कहीं भी झुककर पैर छू लेगा, लेकिन इसमें कभी आत्मीयता न होगी। इसकी एक महत्वपूर्ण घटना जीवन से खो गई। अब यह किसी के भी पैर छू लेगा और वह कृत्रिम होगा, औपचारिक होगा। और वह जीवन का परम अनुभव, जो किसी के पैर छूने से उपलब्ध होता है, इसको नहीं उपलब्ध होगा।

अब इसका पैर छूना एक व्यवस्था का अंग है। यह समझ गया कि इसमें ज्यादा सुविधा है। यह अकड़ कर खड़े रहना ठीक नहीं। बाप झुकाता ही है, और बाप को नाराज करना उचित भी नहीं है, क्योंकि वह पच्चीस तरह से सताता है, और सता सकता है। तो इसमें ही ज्यादा सार है, बुद्धिमान बच्चा झुक जाएगा। समझ लेगा।

मगर यह झुकना यांत्रिक हो जाएगा। और खतरा यह है कि किसी दिन ऐसा व्यक्ति भी इसको मिल जाए, जिसके चरणों में सच में यह झुकना चाहता था तो भी यह झुकेगा, वह कृत्रिम होगा। क्योंकि वह सच इतने पीछे दब गया, और व्यक्तित्व इतना भारी हो गया है।

बच्चों से माँ-बाप कह रहे हैं कि यह तुम्हारी माँ है, इसको प्रेम करो। यह भी कोई कहने की बात है! कि यह तुम्हारे पिता हैं, इनको प्रेम करो! इसका मतलब क्या हुआ? इसका मतलब हुआ कि माँ का और बेटे का संबंध प्रेमपूर्ण नहीं है, इसलिए प्रेम करवाना पड़ रहा है। माँ कहती हैं, मैं तुम्हारी माँ हूँ, मुझे प्रेम करो। यह भी कोई कहने की बात है! माँ होनी चाहिए, प्रेम फलित होना चाहिए। लेकिन वह नहीं फलित हो रहा है। और भूल अगर कहीं होगी, तो माँ की ही हो सकती है, बच्चे की क्या भूल हो सकती है? बच्चा तो अभी कुछ भी नहीं जानता।

लेकिन जिस माँ को बेटे से यह कहना पड़ता है, मैं तुम्हारी माँ हूँ, मुझे प्रेम करो; वह जननी होगी, माँ नहीं है। उसने पैदा किया होगा। लेकिन मातृत्व कुछ और बात है, सभी स्त्रियों को उपलब्ध नहीं होता। जननी तो कोई भी स्त्री बन सकती है, लेकिन माँ बनना बड़ा कठिन है। क्योंकि माँ तो एक बड़ी लंबी प्रेम की प्रक्रिया है।

तो वह बेटे को कह रही है कि मुझे प्रेम करो, मैं तुम्हारी माँ हूँ। बेटा धीरे-धीरे प्रेम दिखाने लगेगा। क्योंकि क्या करेगा? इस माँ से दूध लेना है, इस माँ से पैसे लेना है, इस माँ के ऊपर सब कुछ निर्भर है। बेटा बिलकुल असहाय है। यह माँ ही उसकी जीवन सुविधा है, सहारा है, सुरक्षा है। तो सौदा हो जाएगा, बेटा प्रेम प्रकट करने लगेगा। माँ को देखकर हँसने लगेगा, चाहे हँसी उसे न आ रही हो। माँ को देखकर कहने लगेगा कि मेरी जैसी सुंदर माँ और कहीं भी नहीं है। और माँ इससे प्रफुल्लित होगी। और बेटा धोखा सीख रहा है, और बेटा झूठ सीख रहा है, और प्रेम जैसी परम घटना असत्य हुई जा रही है। फिर यह बेटा बड़ा तो माँ के पास होगा, और झूठ प्रेम गहरा हो जाएगा, वह उसका व्यक्तित्व बन जाएगा।

फिर जब यह किसी स्त्री के प्रेम में भी पड़ेगा, तो वह प्रेम आंतरिक नहीं हो पाएगा। यह झूठ ही बोलता रहेगा। यह उस स्त्री से भी कहेगा कि उससे ज्यादा सुंदर स्त्री कोई भी नहीं है। यह स्त्री से भी प्रेम करने की कोशिश करेगा। यह प्रेम प्रकट करेगा। यह दिन में दस दफे कहेगा कि मैं तुझे प्रेम करता हूँ। मगर यह सब झूठ हुआ जा रहा है।

इसे आप कभी सोचना। जब आप अपनी पत्नी को कहते हैं कि मैं तुझे प्रेम करता हूँ, तो भीतर कुछ भी होता है प्रेम जैसा जब आप कहते हैं? अक्सर तो डर के कारण कहते हैं। अक्सर तो इसलिए कहते हैं कि कहते रहना बार-बार ठीक रहता है, याददाश्त बनी रहती है। पत्नी को भी भरोसा रहता है, आपको भी भरोसा रहता है। पत्नी भी इसी तरह दोहरा रही है, वह भी झूठ है।

आपके व्यक्तित्व बातें कर रहे हैं, आपकी अंतर-आत्माएँ नहीं मिल रही हैं। तब इस झूठ से कोई आनंद पैदा नहीं होता है। और तब इस झूठ से कोई भी संतोष नहीं मिलता। झूठ से मिल भी नहीं सकता।

झूठे बीज से कहीं अंकुर पैदा हुए हैं? झूठे कंठ से कहीं गीत पैदा हुए हैं? झूठी आँख से कहीं कोई दृश्य दिखाई पड़े हैं? झूठ का अर्थ ही है कि जो नहीं है। उससे कुछ भी पैदा नहीं होगा। झूठ का अर्थ ही है कि जो दिखाई पड़ता है और है नहीं! उससे कुछ भी पैदा नहीं होगा। जीवन तब एक रिक्तता बन जाएगी। इस व्यक्तित्व को पहचानें! आपके भीतर जो-जो झूठ है, उसे पहचानें।

मैं आपसे यह नहीं कहता कि झूठ इसलिए मत बोलें कि दूसरे को नुकसान पहुँचता है, वह तो पहुँचता ही है झूठ से, लेकिन पहले आपको नुकसान पहुँच रहा है। आप झूठे हुए जा रहे हैं, मिथ्या हुए जा रहे हैं। हुए जा रहे हैं कहना ठीक नहीं है, आप बिलकुल हो चुके हैं। आप निष्णात हो गए हैं! आप इतने कुशल हो गए हैं कि आपको याद ही नहीं आता कि आप क्या कर रहे हैं!

मैं झूठ बोलने वाले लोगों को जानता हूँ। मैं उनको दोषी नहीं ठहराता, क्योंकि वे झूठ जानकर नहीं बोल रहे हैं अब। अब उनसे झूठ बोला जा रहा है। और कभी-कभी वे ऐसे झूठ बोलते हैं कि जिससे न तो कोई लाभ है, न कोई उनका हित है। और जानकर भी नहीं बोल रहे हैं। झूठ ऐसा पक्का हो गया है कि उनसे बोला जाता है। जैसे ही वे बोलते हैं, कुछ भी वे सोचते हैं, उनके झूठ के ढाँचे में पड़कर वह झूठ हो जाता है। वे सच भी बोलें तो थोड़ा झूठ बिना मिलाए नहीं बोल सकते! अपने इस ढाँचे को पहचानें। इसके प्रति सजग हों। और इसको उतारकर रखने की कोशिश करें।

एक मित्र मेरे पास आए। कैसे झूठ मजबूत हो जाता है, वह मैं आपसे कहूँ। वे मेरे पास आए, वे कहने लगे कि आप कहते हैं कि दूसरे चरण में बिलकुल पागल हो जाओ, तो मैं नाचता-कूदता हूँ, रोता-चिल्लाता हूँ, लेकिन आज मुझे खयाल आया कि यह तो मैं झूठ ही कर रहा हूँ। न मुझे रोना आ रहा है, न मुझे नाचना आ रहा है, यह तो मैं झूठ कर रहा हूँ। यह तीन दिन करने के बाद उनको खयाल आया! इसको मैं कहता हूँ, झूठ कैसा मजबूत ढाँचा बन जाता है। तीन दिन से वे नाच-कूद रहे हैं। तीन दिन बाद उनको खयाल आया कि यह तो मैं झूठ कर रहा हूँ, लेकिन फिर भी जल्दी आ गया। उनका ढाँचा बहुत मजबूत नहीं है। यह तो पहले ही क्षण याद आ जाना चाहिए कि आप क्या कर रहे हैं?

और झूठ आप कितना ही करें, कितना ही नाचें-कूदें, थोड़ी कवायद हो जाएगी। अच्छा भी लगेगा, जैसे व्यायाम से अच्छा लगता है। लेकिन ध्यान नहीं होगा। ध्यान तो आपके भीतर से सत्य टूटना शुरू हो, तो होगा।

लेकिन कठिनाई है। बचपन से समझाया जा रहा है, रोना मत। खासकर पुरुषों को तो बुरी तरह समझाया गया है कि रोना मत। तो वे रोने की कला ही भूल गए हैं। उनको इस बुरी तरह से समझाया गया है कि क्या लड़कियों जैसा काम कर रहे हो? जैसे रोने का ठेका लड़कियों ने ले रखा है! जैसे पुरुष रोने का अधिकार नहीं है। तो परमात्मा ने आँसू क्यों बनाए हैं? और पुरुष की अँखों के पीछे आँसू की ग्रंथियाँ क्यों बनाई हैं? तो रोने की क्षमता पुरुष को दी गई है, तो वह किसलिए दी गई है? मगर नहीं, हर लड़के को समझाया जा रहा है कि यह क्या लड़कियों जैसा काम कर रहे हो! जैसे यह कुछ बुरा काम है।

और बड़ा मजा यह है कि स्त्रियाँ भी कहती हैं, माँ भी कहती है कि क्या लड़कियों जैसा काम कर रहा है? जैसे यह कोई बुरा काम हो, और सिर्फ स्त्रियाँ ही कर सकती हैं। बुरे काम क्या स्त्रियों ने करने का कोई ठेका लिया हुआ है?

लेकिन पुरुष को कठोर बनाना है, यह समाज का इंतजाम है। उसको कठोर बनाना है, ताकि वह दुष्ट बन सके, हिंसा कर सके, मार सके, पीट सके। अगर वह रोएगा और तरल होगा, कोमल होगा, तो यह सब काम नहीं कर सकेगा। युद्ध पर भेजोगे उसको बंदूक ले कर, वह रोने लगेगा कि अरे, इसको मारना है, आदमी को! मर जाएगा, ठीक नहीं है। तो आदमी को कठोर बनाना है, पथरीला बनाना है। उसके भीतर से आत्मा मारनी है बुरी तरह। इसलिए उसको समझाया जा रहा है, उसके अहंकार को फुसलाया जा रहा है कि तू पुरुष है, तू रोना मत; यह स्त्रियों का काम है।

स्त्रियाँ भी अगर कठोर हो जाएँ, तो पुरुष बड़ी प्रशंसा करते हैं! वे कहते हैं कि खूब लड़ी मर्दानी, वह तो झाँसी वाली रानी थी! मर्दानी होना जैसे कोई बड़े गौरव की बात है। एक स्त्री खराब हो गई, वह उसकी प्रशंसा कर रहे हैं! और अगर कोई पुरुष जरा कोमल हो, नाजुक हो, तो वे कहते हैं, स्त्रैण, गैर-मर्दाना!

पुरुष को हमने सिखाया है, हिंसा के लिए तैयार किया है। तो आप रो नहीं सकते! आपके आँसू सूख गए हैं। वर्षों से आप रोए नहीं हैं, आपकी ग्रंथियाँ जड़ हो गई हैं। तो आप चीख-पुकार भी मचाते हैं, तो भी आँसू नहीं आते! लेकिन मैं चाहता हूँ कि आपकी ग्रंथियाँ पुनः सक्रिय हो जाएँ, आँसू पुनः आ जाएँ। उन आसुओं के आते ही आपका तीस साल का जो समाज का व्यक्तित्व था, वह एक तरफ हट जाएगा। और आप तीस साल, चालीस साल पहले, जब छोटे बच्चे थे और रो सकते थे, और जब किसी ने आपको यह नहीं कहा था कि क्या लड़कियों जैसा काम करते हो, उस क्षण में वापस लौट जाएँगे। आपके आँसू अगर बह सकें, सच्चे आँसू ग्रंथियों से खुल जाएँ, तो आप पाएँगे कि आपका व्यक्तित्व सरक गया, नीचे गिर गया; आप हल्के हो गए, एक छेद हो गया।

इसलिए इतना मेरा आग्रह है कि रोओ, चिल्लाओ, हँसो; क्योंकि तुमसे सब कुछ छीन लिया गया है। तुम खिलखिला कर हँस भी नहीं सकते। क्योंकि लोग कहते हैं, खिलखिला कर हँसना असभ्यता है। आदमी को इस बुरी तरह मारा है! खिलखिला कर हँस नहीं सकते, असभ्यता है! अगर चार आदमी जोर से खिलखिला कर हँस रहे हैं तो लोग उनकी तरफ ऐसे देखेंगे, जैसे कि असंस्कृत हैं! पढ़े-लिखे नहीं हैं, गँवार हैं! मुस्करा सकते हैं सिर्फ आप, आवाज नहीं होनी चाहिए!

यह तो ऐसा है, जैसे कि झरनों से वह कहें कि बस बिलकुल धीरे-धीरे सरक सकते हो, शोरगुल नहीं। हवाएँ इस तरह बहो कि पत्तों में आवाज न हो। जब आप दिल खोलकर हँस लेते हैं तो आपको पता नहीं कि कितना कचरा उस कोलाहल में बह जाता है। लेकिन आप हँस नहीं सकते, वह कचरा अटका रह जाता है। आपको कुछ भी हृदयपूर्वक नहीं करने दिया जा रहा है अपने आप से। खतरा है, क्योंकि हृदयपूर्वक अगर आप कुछ भी करेंगे, तो समाज आपको गुलाम नहीं बना सकेगा यह कारण है।

अगर आपकी सारी वृत्तियों को दबा दिया जाए, तो आप गुलाम बनाए जा सकते हैं। अगर आपकी सारी वृत्तियों को उन्मुक्त छोड़ दिया जाए तो आप इतने ताजे और इतने जीवंत होंगे कि कोई ताकत आपको गुलाम नहीं बना सकती। और समाज चाहता है कि आप गुलाम हों, मालिक न हों। सेवक हो! समाज जिस तरफ इशारा करे, वैसा आप करें! समाज जो कहे, उस तरह उठें और बैठें! आप मुक्त न हों। क्योंकि मुक्त व्यक्ति रिबेलियस, विद्रोही हो जाता है। तो समाज सब तरह की मुक्ति छीन लेता है, और आपके ऊपर एक खोल चढ़ा देता है। उस खोल के भीतर से आप हँसे भी तो वह खोल जगह नहीं देती, रोएँ तो वह खोल आँसू नहीं बहने देती।

संदर्भ : ध्यान सूत्र पुस्तक से संकलित
सौजन्य : ओशो इंटरनेटनल फाउंडेशन

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