सोपक्रमं निरूपक्रमं च कर्म तत्संयमादपारान्तज्ञानमरिष्टेभये वा।- योग सूत्र
अर्थात: 'सक्रिय व निष्क्रिय या लक्षणात्मक व विलक्षणात्मक- इन दो प्रकार के कर्मों पर संयम पा लेने के बाद मृत्यु की ठीक-ठीक घड़ी की भविष्य सूचना पाई जा सकती है।'
....तो इसे दो प्रकार से जाना जा सकता है। या तो प्रारब्ध को देखकर या फिर कुछ लक्षण और पूर्वाभास है जिन्हें देखकर जाना जा सकता है। उदाहरण के लिए, जब कोई व्यक्ति मरता है तो मरने के ठीक नौ महीने पहले कुछ न कुछ होता है। साधारणतया हम जागरूक नहीं होते हैं। और वह घटना बहुत ही सूक्ष्म होती है। मैं नौ महीने कहता हूं- क्योंकि प्रत्येक व्यक्ति में इसमें थोड़ी भिन्नता होती है।
यह निर्भर करता है : समय का जो अंतराल गर्भधारण और जन्म के बीच मौजूद रहता है। उतना ही समय मृत्यु को जानने का रहेगा। अगर कोई व्यक्ति गर्भ में नौ महीने रहने बाद जन्म लेता है, तो उसे नौ महीने पहले मृत्यु का आभास होगा। अगर कोई दस महीने गर्भ में रहता है तो उसे दस महीने पहले मृत्यु का अहसास होगा, कोई सात महीने पेट में रहता है तो उसे सात महीने पहले उसे मृत्यु का एहसास होगा। यह इस बात पर निर्भर करता है कि गर्भधारण और जन्म के समय के बीच कितना समय रहा।
मृत्यु के ठीक उतने ही महीने पहले हारा में, नाभि चक्र में कुछ होने लगता है। हारा सेंटर को क्लिक होना ही पड़ता है। क्योंकि गर्भ में आने और जन्म के बीच नौ महीने का अंतराल था : जन्म लेने में नौ महीने का समय लगा, ठीक उतना ही समय मृत्यु के लिए लगेगा। जैसे जन्म लेने के पूर्व नौ महीने मां के गर्भ में रहकर तैयार होते हो, ठीक ऐसे ही मृत्यु की तैयारी में भी नौ महीने लगेंगे। फिर वर्तुल पूरा हो जाएगा। तो मृत्यु के नौ महीने पहले नाभि चक्र में कुछ होने लगता है।
जो लोग जागरूक हैं, सजग हैं, वे तुरंत जान लेंगे कि नाभि चक्र में कुछ टूट गया है; और अब मृत्यु निकट ही है। इस पूरी प्रक्रिया में लगभग नौ महीने लगते हैं।
या फिर उदाहरण के लिए, मृत्यु के और भी कुछ अन्य लक्षण तथा पूर्वाभास होते हैं, कोई आदमी मरने से पहले, अपने मरने के ठीक छह महीने पहले, अपनी नाक की नोक को देखने में धीरे-धीरे असमर्थ हो जाता है, क्योंकि आंखें धीरे-धीरे ऊपर की और मुड़ने लगती है। मृत्यु में आंखे पूरी तरह ऊपर की और मुड़ जाती है। लेकिन मृत्यु के पहले ही लौटने की यात्रा का प्रारंभ हो जाता है। ऐसा होता है : जब एक बच्चा जन्म लेता है, तो बच्चे की दृष्टि थिर होने में करीब छह महीने लगते हैं। साधारणतया ऐसा ही होता है। लेकिन इसमें कुछ अपवाद भी हो सकते है- बच्चे की दृष्टि ठहरने में छह महीने लगते हैं। उससे पहले बच्चे की दृष्टि थिर नहीं होती। इसीलिए तो छह महीने का बच्चा अपनी दोनों आंखें एकसाथ नाक के करीब ला सकता है। और फिर किनारे पर भी आसानी से ला सकता है। इसका मतलब है बच्चे की आंखें अभी थिर नहीं हुई हैं। जिस दिन बच्चे की आंखें थिर हो जाती हैं फिर वह दिन छह महीने के बाद का हो या दस महीने के बाद का हो, ठीक उतना ही समय लगेगा, फिर उतने ही समय के पूर्व आंखें शिथिल होने लगेंगी। और ऊपर की और मुड़ने लगेंगी। इसीलिए भारत में गांव के लोग कहते हैं, निश्चित रूप से इस बात की खबर उन्हें योगियों से मिली होगी- कि मृत्यु आने के पूर्व व्यक्ति अपनी ही नाक की नोक को देख पाने में असमर्थ हो जाता है।
और भी बहुत सी विधियां हैं, जिनके माध्यम से योगी निरंतर अपनी नाक की नोक पर ध्यान देते हैं। वे नाक की नोक पर अपने को एकाग्र करते हैं। जो लोग नाक की नोक पर एकाग्रचित होकर ध्यान करते हैं, अचानक एक दिन वे पाते हैं कि वे अपनी ही नाक की नोक को देख पाने में असमर्थ हैं, वे अपनी नाक की नोक नहीं देख सकते हैं। इस बात से उन्हें पता चल जाता है कि मृत्यु अब निकट ही है।
योग के शरीर विज्ञान के अनुसार व्यक्ति के शरीर में सात चक्र होते हैं। पहला चक्र है मूलाधार, और अंतिम चक्र है सहस्त्रार, जो सिर में होता है। इन दोनों के बीच में पांच चक्र और होते हैं। जब भी व्यक्ति की मृत्यु होती है; तो वह किसी एक निश्चित चक्र के द्वारा अपने प्राण त्यागता है। व्यक्ति ने किस चक्र से शरीर छोड़ा है, वह उसके इस जीवन के विकास को दर्शा देता है। साधारणतया तो लोग मूलाधार से ही मरते हैं, क्योंकि जीवनभर लोग काम-केंद्र के आसपास ही जीते हैं। वे हमेशा सेक्स के बारे ही सोचते हैं, उसी की कल्पना करते हैं, उसी के स्वप्न देखते हैं, उनका सभी कुछ सेक्स को लेकर ही होता है- जैसे कि उनका पूरा जीवन काम-केंद्र के आसपास ही केंद्रित हो गया हो। ऐसे लोग मूलाधार के काम-केंद्र से ही प्राण छोड़ते हैं। लेकिन अगर कोई व्यक्ति प्रेम का उपलब्ध हो जाता है और काम-वासना के पार चला जाता है तो वह हृदय केंद्र से प्राण को छोड़ता है। और अगर कोई व्यक्ति पूर्णरूप से विकसित हो जाता है, सिद्ध हो जाता है तो वह अपनी ऊर्जा को, अपने प्राणों को सहस्त्रार से छोड़ेगा।
और जिस केंद्र से व्यक्ति की मृत्यु होती है, वह केंद्र खुल जाता है, क्योंकि तब पूरी जीवन ऊर्जा उसी केंद्र से निर्मुक्त होती है... जिस केंद्र से व्यक्ति प्राणों को छोड़ता है, व्यक्ति का निर्मुक्ति देने वाला बिंदु स्थल खुल जाता है। उस बिंदु स्थल को देखा जा सकता है। किसी दिन जब पश्चिमी चिकित्सा विज्ञान योग के शरीर विज्ञान के प्रति सजग हो सकेगा तो वह भी पोस्टमॉर्टम का हिस्सा हो जाएगा कि व्यक्ति कैसे मरा। अभी तो चिकित्सक केवल यही देखता है कि व्यक्ति की मृत्यु स्वाभाविक हुई है, या उसे जहर दिया गया है, या उसकी हत्या की गई है, या उसने आत्महत्या की है- यही सारी साधारण-सी बातें चिकित्सक देखते हैं। सबसे आधारभूत और महत्वपूर्ण बात कि चिकित्सक चूक जाते हैं। जो कि उनकी रिपोर्ट में होनी चाहिए- कि व्यक्ति के प्राण किस केंद्र से निकले हैं: काम-केंद्र से निकले हैं, हृदय केंद्र से निकले हैं, या सहस्त्रार से निकले हैं। किस केंद्र से उसकी मृत्यु हुई है।
और इसकी संभावना है, क्योंकि योगियों ने इस पर बहुत काम किया है। और इसे देखा जा सकता है। क्योंकि जिस केंद्र से प्राण-ऊर्जा निर्मुक्त होती है, वही विशेष केंद्र टूट जाता है, जैसे कि कोई अंडा टूटता है और कोई चीज उससे बाहर आ जाती है। ऐसे ही जब कोई विशेष केंद्र टूटता है, तो ऊर्जा वहां से निर्मुक्त होती है।
जब कोई व्यक्ति संयम को उपलब्ध हो जाता है तो मृत्यु के ठीक तीन दिन पहले वह सजग हो जाता है कि उसे कौन से केंद्र से शरीर छोड़ना है। अधिकतर तो वह सहस्त्रार से ही शरीर को छोड़ता है। मृत्यु के तीन दिन पहले एक तरह की हलन-चलन, एक तरह की गति, ठीक सिरा के शीर्ष भाग पर होने लगती है।
यह संकेत हमें मृत्यु को कैसे ग्रहण करना, इसके लिए तैयार कर सकते हैं। और अगर हम मृत्यु को उत्सवपूर्ण ढंग से, आनंद से, अहो भाव से नाचते-गाते कैसे ग्रहण करना है, यह जान लें- तो फिर हमारा दूसरा जन्म नहीं होता। तब इस संसार की पाठशाला में हमारा पाठ पूरा हो गया। इस पृथ्वी पर जो कुछ भी सीखने को है उसे हमने सीख लिया। अब हम तैयार हैं किसी महान लक्ष्य, महान जीवन और अनंत-अनंत जीवन के लिए। अब ब्रह्मांड में संपूर्ण अस्तित्व में समाहित होने के लिए हम तैयार हैं। और इसे हमने अर्जित कर लिया है।
इस सूत्र के बारे में एक बात और क्रिया मान कर्म, दिन-प्रतिदिन के कर्म, वे तो बहुत ही छोटे-छोटे कर्म होते हैं। आधुनिक मनोविज्ञान की भाषा में हम इसे चेतन कह सकते हैं। इसके नीचे होता है प्रारब्ध कर्म। आधुनिक मनोविज्ञान की भाषा में हम इसे ‘अवचेतन’ कह सकते हैं। उससे भी नीचे होता है संचित कर्म; आधुनिक मनोविज्ञान की भाषा में इसे हम 'अचेतन' कह सकते हैं।
साधारणतया तो आदमी अपनी प्रतिदिन की गतिविधियों के बारे में सजग ही नहीं होता, तो फिर प्रारब्ध या संचित कर्म के बारे में कैसे सचेत हो सकता है। यह लगभग असंभव ही है। तो तुम दिन-प्रतिदिन की छोटी-छोटी गतिविधियों में सजग होने का प्रयास करना। अगर सड़क पर चल रहे हो, तो सड़क पर सजग होकर, होशपूर्वक चलना। अगर भोजन कर रहे हो तो सजगतापूर्वक करना। दिन में जो कुछ भी करो, उसे होशपूर्वक सजगता से करना। कुछ कार्य करो, उस कार्य में पूरी तरह से डूब जाना। उसके साथ एक हो जाना। फिर कर्ता और कृत्य अलग-अलग न रहें। फिर मन इधर-उधर ही नहीं भागता रहे। जीवित लाश की भांति कार्य मत करना। जब सड़क पर चलो तो ऐसे मत चलना जैसे कि किसी गहरे सम्मोहन में चल रहे हो। कुछ भी बोलो, वह तुम्हारे पूरे होश सजगता से आए ताकि तुम्हें फिर कभी पीछे पछताना न पड़े।
अगर तुम इस प्रथम चरण को उपलब्ध कर लेते हो, तो फिर दूसरा चरण अपने से सुलभ हो जाता है, तब तुम अवचेतन में उतर सकते हो।
तो फिर जब कोई तुम्हारा अपमान करता है, तो जिस समय तुम्हें क्रोध आया, जागरूक हो जाओ। तब किसी ने तुम्हारा अपमान किया- और क्रोध की एक छोटी सी तरंग, जो कि बहुत ही सूक्ष्म होती है तुम्हारे अस्तित्व के अवचेतन की गहराई में उतर जाती है। अगर तुम संवेदनशील और जागरूक नहीं हो, तो तुम उस उठी हुई सूक्ष्म तरंग को पहचान न सकोगे। जब तक कि वह चेतन में न आ जाए, तुम उसे नहीं जान सकोगे। वरना, धीरे-धीरे तुम सूक्ष्म बातों को, भावनाओं को सूक्ष्म तरंगों के प्रति सचेत होने लगोगे- वही है प्रारब्ध, वही है अवचेतन।
और जब अवचेतन के प्रति सजगता आती है। तो तीसरा चरण भी उपलब्ध हो जाता है। जितना अधिक व्यक्ति का विकास होता है, उतने ही अधिक विकास की संभावना के द्वार खुलते चले जाते हैं। तीसरे चरण को, अंतिम चरण को देखना संभव है। जो कर्म अतीत में संचित हुए थे। अब उनके प्रति सजग हो पाना संभव है। जब व्यक्ति अचेतन में उतरता है। तो इसका अर्थ है कि वह चेतन के प्रकाश को अपने अस्तित्व की गहराइयों में ले जा रहा है। व्यक्ति संबोधि को उपलब्ध हो जाएगा। संबुद्ध होने का अर्थ यही है कि अब कुछ भी अंधकार में नहीं है। व्यक्ति के अंतस्थल का कोना-कोना प्रकाशित हो गया। तब वह जीता भी है, कार्य भी करता है, लेकिन फिर भी किसी तरह के कर्म का संचय नहीं होता।