छत्तीसगढ़ का छेरछेरा पर्व आज, दान देने और लेने का महत्व है खास

आज सोमवार, 17 जनवरी को छत्तीसगढ़ (Chhattisgarh) का लोकपर्व छेरछेरा (cher chera festival) मनाया जा रहा है। यह अन्न दान का महापर्व है। छत्तीसगढ़ में यह पर्व नई फसल के खलिहान से घर आ जाने के बाद मनाया जाता है। प्रतिवर्ष यह पर्व पौष पूर्णिमा (Paush Purnima 2022) के दिन खास तौर पर मनाया जाता है। यह पर्व कृषि प्रधान संस्कृति में दानशीलता की परंपरा को याद दिलाता है। 
 
छत्तीसगढ़ (celebration in Chhattisgarh) के उत्सवधर्मिता से जुड़े इस लोकपर्व के माध्यम से सामाजिक समरसता को सुदृढ़ करने के लिए आदिकाल से संकल्पित रहा है। इस दौरान लोग घर-घर जाकर अन्न का दान मांगते हैं। वहीं गांव के युवक घर-घर जाकर डंडा नृत्य करते हैं। लोक परंपरा के अनुसार पौष महीने की पूर्णिमा को प्रतिवर्ष छेरछेरा का त्योहार मनाया जाता है। इस बार कोरोना वायरस के चलते कोविड-19 के नियमों का पालन करते हुए यह पर्व मनाया जाएगा।
 
 
इस दिन सुबह से ही बच्चे, युवक व युवतियां हाथ में टोकरी, बोरी आदि लेकर घर-घर छेरछेरा मांगते हैं। वहीं युवकों की टोलियां डंडा नृत्य कर घर-घर पहुंचती हैं। धान मिंसाई हो जाने के चलते गांव में घर-घर धान का भंडार होता है, जिसके चलते लोग छेर छेरा मांगने वालों को दान करते हैं। इन्हें हर घर से धान, चावल व नकद राशि मिलती है। 
 
इस त्योहार के 10 दिन पहले ही डंडा नृत्य करने वाले लोग आसपास के गांवों में नृत्य करने जाते हैं। वहां उन्हें बड़ी मात्रा में धान व नगद रुपए मिल जाते हैं। इस त्योहार के दिन कामकाज पूरी तरह बंद रहता है। इस दिन लोग प्रायः गांव छोड़कर बाहर नहीं जाते। इस दिन अन्नपूर्णा देवी तथा मां शाकंभरी देवी की पूजा की जाती है। ऐसा माना जाता है कि जो भी बच्चों को अन्न का दान करते हैं, वह मृत्यु लोक के सारे बंधनों से मुक्त होकर मोक्ष को प्राप्त करते हैं। इसके अलावा छेर-छेरा के दिन कई लोग खीर और खिचड़ा का भंडारा रखते हैं, जिसमें हजारों लोग प्रसाद ग्रहण कर पुण्य लाभ प्राप्त करते हैं। आज के दिन द्वार-द्वार पर 'छेरछेरा, कोठी के धान ल हेरहेरा' की गूंज सुनाई देती है। इस पर्व पर मुर्रा, लाई और तिल के लड्डू समेत कई चीजों की जमकर बिक्री होती है। इस दिन सभी घरों में आलू चाप, भजिया तथा अन्य व्यंजन बनाया जाता है। 
 
लोकपर्व छेर-छेरा की कथा- cher chera festival katha 
 
इस पर्व के संबंध में पौराणिक एवं प्रचलित कथा के अनुसार खेतों में काम करने वाले मजदूर जी तोड़ मेहनत करते हैं। जब फसल तैयार हो जाती है तो उस पर खेत का मालिक अपना अधिकार जमा लेता है। मजदूरों को थोड़ी-बहुत मजदूरी के अलावा कुछ नहीं मिलता। दुखी होकर मजदूर धरती माता से प्रार्थना करते हैं।
 
मजदूरों की व्यथा सुनकर धरती माता खेत के मालिकों से नाराज हो जाती है, जिससे खेतों में फसल नहीं उगती। धरती माता किसानों को स्वप्न में दर्शन देकर कहती हैं कि फसल में से मजदूरों को भी कुछ हिस्सा दान में दें तभी बरकत होगी। इसके बाद जब फसल तैयार हुई तो किसानों ने मजदूरों को फसल में से कुछ हिस्सा दिया। कालांतर में धान का दान देने की परंपरा बन गई। आज भी ग्रामीण इलाकों में इस परंपरा का पालन श्रद्धा भाव से किया जाता है। छत्तीसगढ़ का यह पर्व न केवल सांस्कृतिक बल्कि धार्मिक महत्व का भी पर्व है। 
 
पौष पूर्णिमा के अवसर पर मनाए जाने वाले इस लोकपर्व को लेकर लोगों में काफी उत्साह रहता है। गौरतलब है कि इस पर्व में अन्न दान की परंपरा का निर्वहन किया जाता है। इसके साथ ही रामायण की मंडलियां और पंथी नृत्य करने वाले दल भी छेरछेरा का आनंद लेने तैयार हैं तथा कई दिनों पूर्व से ही इस पर्व मनाने की खासी तैयारी की जा‍ती है। पौष पूर्णिमा (Paush Purnima) के पवित्र अवसर सभी एक-दूसरे के जीवन में खुशहाली की कामना करते हैं। पौष माह के शुक्ल पक्ष 15वीं तिथि को मनाए जाने वाले इस पर्व को छेरछेरा पुन्न‍ी (cher chera punni) भी कहते हैं। 
 
- राजश्री कासलीवाल 
 

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