सूर्य-चंद्र और बृहस्पति के योग से बनता हैं कुंभ पर्व का संयोग, जानिए रोचक जानकारी...

* अमृत कलश के संरक्षण में किन ग्रहों का था योगदान
 
- डॉ. बिन्दूजी महाराज 'बिन्दू' 
 
जैसा कि हमने पूर्व में ही उल्लेख किया है कि अमृत कलश के संरक्षण में सूर्य, चंद्र और देवगुरु बृहस्पति का विशेष योगदान रहा और इन तीनों ग्रहों के उन्हीं विशिष्ट योगों में आने से, जिन योगों में अमृत संरक्षित हुआ था, कुंभ पर्व का योग बनता है। अब हम इसे विस्तृत विवे‍चना के साथ उदाहरण सहित समझाते हैं-
 
सूर्येन्दुगुरु संयोगस्तद्राशौ यत्र वत्सरे।
सुधा कुंभ प्लवे भूमो कुंभो भवतिनान्यथा।।
 
इस प्रमाण के अनुसार अमृत बिंदु पतन के समय जिन राशियों में सूर्य-चंद्र-गुरु की स्थिति रही है, उन्हीं राशियों में सूर्य-चंद्र-गुरु के संयोग होने पर कुंभ पर्व होता है। 'कुंभोभवति नान्यथा' देकर यह स्पष्ट कर दिया गया है कि इन योगों के अभाव में कुंभ पर्व नहीं मनाया जा सकता है। आगे कहा गया है कि- 
 
देवानां द्वादशाहोभिर्मर्त्यै द्वादश वत्सरे:।
जायन्ते कुम्भपर्वाणि तथा द्वादश संख्यया।।
 
तत्राध्रुतात्तयेनूपांचत्वरों भुवि भारते।
अष्टौलोकान्तरे प्रोक्तादेवैर्गम्यानचेतरै:।।
 
पृथिव्यां कुम्भयोगस्य चतुर्धा भेद उच्यते।
विष्णु द्वारे तीर्थराजेवन्त्यां गोदावरी तटे,
सुधा बिंदु विनिक्षेपात् कुम्भपर्वेति विश्रुत:।।
 
अर्थात देवताओं के 12 दिन और मनुष्यों के 12 वर्ष में कुल 12 कुंभ पर्व होते हैं। पृथ्वी पर मनुष्यों के 4 कुंभ तथा शेष 8 कुंभ पर्व लोकांतर में देवताओं के होते हैं। अमृत बिंदु के पतन से पृथ्वी के 4 कुंभ प्रयाग, हरिद्वार, त्र्यम्बकेश्वर (नासिक) तथा अवन्तिका (उज्जैन) में मनाए जाते हैं।
 
उपरोक्त प्रमाणों में सूर्य, चंद्र और गुरु के संयोग तथा 'देवानांद्वादशाहोभि:' वाले प्रमाणों पर विचार करें तो प्रथम श्लोक के अनुसार सूर्य, चंद्र और गुरु की निर्दिष्ट राशियां पर्व के लिए आवश्यक हैं। इनमें सूर्य, चन्द्र तो प्रतिवर्ष उपलब्ध हो जाते हैं किंतु गुरु ही 12 वर्षों में उपलब्ध होता है।
 
इस 12 वर्ष वाली परंपरा को हम केवल रूढ़िपोषक ही कह सकते हैं, क्योंकि हमारी ज्योतिषीय परिभाषाएं 12 मास का वर्ष तथा 30 दिन का महीना कहती हैं किंतु अधिकमास में 12 मास तथा क्षय मास वाले वर्ष को भी वर्ष कहती है। एक पूर्णिमा तक का अंतर 29-30 तथा 31 दिन भी होते हैं, फिर भी उसे अपूर्ण न कहते हुए पूर्ण मास के रूप में ही स्वीकार करते हैं। खैर! यह तो रही ज्योतिषीय सिद्धांत की बातें। 30 दिन का महीना होने से हम 30वें दिन ही पूर्णिमा मानेंगे, यह नहीं कह सकते। गणित के अनुसार पूर्णिमा जब होगी, तभी मानी जाएगी। इसी प्रकार सिंहस्थ (कुंभ पर्व के लिए भी यह व्यवस्था है- 'सूर्येन्दु गुरु संयोग' के अनुसार जब भी उपरोक्त योग बनेगा तभी सिंहस्थ या कुंभ पर्व होगा।
 
12 वर्षीय रूढ़िगत परंपरा कायम नहीं?- खगोलीय मंतव्य के अनुसार 12 वर्ष वाली रूढ़िगत परंपरा भी स्थायी नहीं है। 'सूर्येन्दु गुरु संयोगस्वद्राशोयत्र' श्लोक में निर्देशित सूर्य-चंद्र तो प्रतिवर्ष मिल जाते हैं, लेकिन बृहस्पति (गुरु) ही लगभग 12 वर्ष में मिलता है। 12 वर्ष के लंबे अंतराल से प्राप्त होने के कारण गुरु का संयोग ही कुंभ पर्व में विशिष्ट योग है। सूर्य-चंद्र और महीना तो प्रतिवर्ष ही प्राप्त होते हैं और यदि इनका ही वैशिष्ट्य होता तो कुंभ पर्व किसी भी वर्ष मनाया जा सकता था। फिर 12 वर्ष तक कुंभ के लिए लंबा इंतजार नहीं करना पड़ता। लोक मान्यता के अनुसार गुरु 12 वर्ष में प्राप्त होता है किंतु ज्योतिषीय दृष्टि से यह भी स्थायी नहीं है। सूर्य-चंद्र के अंतर से क्षयाधिमास होते हैं।
 
अंग्रेजी तारीखों में भी हर चौथे वर्ष (लीप ईयर) 1 दिन बढ़ाकर फरवरी 29 दिन की करनी पड़ती है। ठीक उसी प्रकार सूर्य-बृहस्पति का अंतर लुप्ताब्द होता है। मराठी ज्योतिषीय ग्रंथ 'भारतीय ज्योतिषशास्त्राचा इतिहास' नामक पुस्तक की पृष्ठ संख्या 189 में लिखा है कि 'वार्हस्पत्य माने सुमारे 85 वर्षात एक संवत्सराचा लोप।'
 
सूर्य का वर्ष मान 365/15/31 दिनादि होता है। गुरु का वर्षमान (1 राशि का मध्यम भाग) 365/1/36 दिनादि दिया है। दोनों में दिनादि अंतर 4/13/55 है। 12 वर्ष में यह अंतर 24X4/13/55=50/47 दिनादि हो जाता है। यही अंतर 12X7=84, वर्ष में 355 दिन 29 घटी, लगभग 1 वर्ष के बराबर हो जाने से 85 सावयव वर्षों में जाकर गुरु 12 वर्ष के बजाय 11 वर्ष में ही चक्र भ्रमण (एक राशि का भ्रमण) पूर्ण कर लेता है।

यही कारण है कि 84 वर्ष में 6 वर्ष तक तो हम 12 वर्ष वाली प्रतिज्ञा निभा सकते हैं किंतु 7वां वर्ष का पर्व (लुप्ताब्ध बस) 11 वर्ष के अंतर से ही स्वीकारना पड़ेगा। और तभी हम 'सूर्येन्दु गुरु संयोग' के अनुसार गुरु की निर्देशित राशियों को कायम रखते हुए शास्त्रीय मर्यादा एवं सनातन परंपरा के अनुसार कुंभ पर्वों का निर्वाह कर सकते हैं।

 
इसे यूं भी समझा जा सकता है कि सामान्यत: यह माना जाता है कि बृहस्पति एक राशि में 1 वर्ष रहता है और 12 वर्ष में सभी राशियों में संक्रमण करता हुआ पुन: उसी राशि में पहुंचता है। परंतु वस्तुस्थिति यह है कि बृहस्पति 4332.5 दिनों या 11 वर्ष 11 महीने और 27 दिनों में ही 12 राशियों की परिक्रमा पूरी कर लेता है। इसी तरह 12 वर्षों में 50.5 दिन कम हो जाते हैं। यही कमी बढ़ते-बढ़ते 7वें और 8वें कुंभ के बीच पूरे 1 वर्ष के लगभग हो जाती है। यही कारण है कि हर 7वां या 8वां कुंभ 12 वर्ष के स्थान पर 11 वर्ष के अंतर पर होता है।


उदाहरण के लिए जैसे इस शताब्दी का तीसरा कुंभ हरिद्वार में 1927 ई. में हुआ था और सामान्य गणना के अनुसार इसके बाद 1939 ई. में कुंभ आना चाहिए था किंतु बृहस्पति की चाल के कारण 1927 के बाद 11 वर्ष यानी 1938 ई. में ही कुंभ आ गया था। इसी तरह 21वीं शताब्दी में दूसरा कुंभ तो 2010 ई. में आया किंतु तीसरा कुंभ सन् 2021 ई. में ही पड़ जाएगा अर्थात 1938 के बाद 8वां कुंभ 11वें वर्ष में ही होगा। हर शताब्दी में ऐसा कम से कम एक बार अवश्य होता रहा है।
 
साभार- कुंभ महापर्व और अखाड़े (एक विवेचन)

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