भारत में यदि आज भी संवेदना, अनुभूति, आत्मीयता, आस्था और अनुराग बरकरार है तो इसकी पृष्ठभूमि में इन त्योहारों का बहुत बड़ा योगदान है। जो लंबी डगर पर चिलचिलाती प्रचंड धूप में हरे-भरे वृक्ष के समान खड़े हैं। जिसकी घनी छांंव में कुछ लम्हें बैठकर व्यक्ति संघर्ष पथ पर उभर आए स्वेद बिंदुओं को सुखा सके और फिर एक शुभ मुस्कान को चेहरे पर सजाकर चल पड़े जिंदगी की कठिन राहों पर, जूझने के लिए।
रक्षाबंधन के शुभ पर्व पर बहनें अपने भाई से यह वचन चाहती हैं कि आने वाले दिनों में किसी बहन के तन से वस्त्र न खींचा जाए फिर कोई बहन दहेज के लिए जलाई ना जाए, फिर किसी बहन का अपहरण ना हो, फिर किसी बहन के चेहरे पर तेजाब न फेंका जाए और ... कोई बहन पेड़ पर न लटकाई जाए, कोई बहन सरे राह नग्न न फेंकी जाए... और फिर कोई बहन 'खाप' के फैसले से भाई के ही हाथों मारी ना जाए।
यह त्योहार तभी सही मायनों में खूबसूरत होगा जब बहन का सम्मान और भाई का चरित्र दोनों कायम रहे। यह रेशमी धागा सिर्फ धागा नहीं है। राखी की इस महीन डोरी में विश्वास, सहारा और प्यार गुंथा हैं और कलाई पर बंंधकर यह डोरी प्रतिदान में भी यही तीन अनुभूतियां चाहती हैं। पैसा, उपहार, आभूषण, कपड़े तो कभी भी, किसी भी समय लिए-दिए जा सकते हैं लेकिन इन तीन मनोभावों के लेन-देन का तो यही एक पर्व है - रक्षाबंधन!