हाल ही में उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने राजस्थान के अलवर के मालाखेड़ा में एक चुनावी सभा में कहा कि 'बजरंग बली ऐसे लोकदेवता हैं जो स्वयं वनवासी हैं, गिरवासी हैं दलित हैं वंचित हैं। सीएम योगी के इस बयान के बाद ब्राह्मण समाज खासा नाराज है। राजस्थान ब्राह्मण सभा ने सीएम योगी पर भगवान को जाति में बांटने का आरोप लगाते हुए उन्हें कानूनी नोटिस भेजा है।
दरअसल, योगी आदित्यनाथ के बयान को सुना जाए तो समझ में आएगा कि वे हनुमानजी की जाति नहीं बता रहे थे, बल्कि उनकी प्रतीकात्मकता की बात कर रहे थे, लेकिन लोगों ने उनके बयान को जाति से जोड़ दिया जिसके चलते राष्ट्रीय अनुसूचित जनजाति आयोग (एनसीएसटी) के अध्यक्ष नंद कुमार साय ने दावा किया है कि वह अनुसूचित जनजाति के आदिवासी थे।
साय ने लखनऊ में एक कार्यक्रम के दौरान कहा, 'मैं स्पष्ट करना चाहता हूं...लोग सोचते हैं कि भगवान राम की सेना में वानर, भालू, गिद्ध थे। ओरांव आदिवासी से संबद्ध लोगों द्वारा बोली जाने वाली कुरुख भाषा में 'टिग्गा (एक गोत्र है यह) का अर्थ वानर होता है। कंवार आदिवासियों में, जिनसे मेरा संबंध है, एक गोत्र है जिसे हनुमान कहा जाता है। इसी प्रकार, गिद्ध कई अनुसूचित जनजातियों में एक गोत्र है। अतएव मेरा मानना है कि वे आदिवासी समुदाय से थे और उन्होंने इस बड़ी लड़ाई में भगवान राम का साथ दिया।
इसके बाद केंद्रीय मंत्री सत्यपाल सिंह ने दावा किया कि न दलित, न एसटी, हनुमान जी 'आर्य' थे। इसके पीछे उनका तर्क है कि उस समय आर्य जाति थी और हनुमान जी उसी आर्य जाति के महापुरुष थे। केंद्रीय मंत्री ने कहा कि भगवान राम और हनुमान जी के युग में इस देश में कोई जाति व्यवस्था नहीं थी। कोई दलित, वंचित, शोषित नहीं था। वाल्मीकी रामायण और रामचरितमानस को आप अगर पढ़ेंगे तो आपको मालूम चलेगा कि उस समय कोई जाति व्यवस्था नहीं थी।
अब यह जानना जरूरी हो गया कि हनुमानजी आखिर क्या थे?
प्राचीनकाल में दलित, आदिवासी, अनुसूचित जनजाति जैसे शब्द नहीं थे। केंद्रीय मंत्री सत्यपाल सिंह ने कहा कि वे आर्य जाति के थे तो उनका यह दावा भी गलत है। दरअसल आर्य जातिसूचक शब्द नहीं है। आर्य नाम की कभी कोई जाति नहीं रही। प्राचीनकाल से ही आर्य उसको कहते रहे हैं जो कि वैदिक परंपरा को मानने वाला होता था। वह फिर किसी भी जाति या समाज का व्यक्ति हो सकता है। आर्य का अर्थ होता है श्रेष्ठ।
प्राचीनकाल में 'चार वर्ण' जातियों की संज्ञा से नहीं जाने जाते थे। उन वर्णों का चयन कोई भी व्यक्ति अपनी योग्यता से करता था। जैसे कि वर्तमान में किसी को डॉक्टर बनना है, सेना में जाना है या व्यापार करना है तो वह स्वतंत्र हैं। उसी तरह उस काल में भी कोई भी व्यक्ति ब्राह्मण, छत्रिय, वैश्य या शूद्र होने के लिए स्वतंत्र था।
राम का वनवार और वानर जाति :
भगवान राम को 14 वर्ष का जब वनवास हुआ तो वनवास के दौरान उन्होंने देश के सभी वन में रहने वाले लोगों को संगठित करने और शिक्षित करने का कार्य किया। आज के संदर्भ में उन लोगों को आदिवासी, पिछड़ा, दलित या वंचित कहा जाता है। इस दौरान राम खुद भी उन्हीं लोगों की वेशभूषा में रहते थे।
हनुमान का जन्म कपि नामक वानर जाति में हुआ था। शोधकर्ता कहते हैं कि आज से 9 लाख वर्ष पूर्व एक ऐसी विलक्षण वानर जाति भारतवर्ष में विद्यमान थी, जो आज से 15 से 12 हजार वर्ष पूर्व लुप्त होने लगी थी और अंतत: लुप्त हो गई। इस जाति का नाम कपि था। हनुमानजी के संबंध में यह प्रश्न प्राय: सर्वत्र उठता है कि 'क्या हनुमानजी बंदर थे?'
इसके लिए कुछ लोग रामायणादि ग्रंथों में लिखे हनुमानजी और उनके सजातीय बांधव सुग्रीव अंगदादि के नाम के साथ 'वानर, कपि, शाखामृग, प्लवंगम' आदि विशेषण पढ़कर उनके बंदर प्रजाति का होने का उदाहरण देते हैं। वे यह भी कहते हैं कि उनकी पुच्छ, लांगूल, बाल्धी और लाम से लंकादहन का प्रत्यक्ष चमत्कार इसका प्रमाण है। यह भी कि उनकी सभी जगह सपुच्छ प्रतिमाएं देखकर उनके पशु या बंदर जैसा होना सिद्ध होता है। रामायण में वाल्मीकिजी ने जहां उन्हें विशिष्ट पंडित, राजनीति में धुरंधर और वीर-शिरोमणि प्रकट किया है, वहीं उनको लोमश ओर पुच्छधारी भी शतश: प्रमाणों में व्यक्त किया है।
हनुमानजी की माता का नाम अंजना और पिता का नाम केसरी है, जो वानर जाति के थे। केसरीजी को कपिराज कहा जाता था, क्योंकि वे कपि क्षेत्र के राजा थे। कपिस्थल कुरु साम्राज्य का एक प्रमुख भाग था। कहते हैं कि हरियाणा का कैथल ही पहले कपिस्थल था। कुछ लोग मानते हैं कि यही हनुमानजी का जन्म स्थान है। इसके अलावा गुजरात के डांग जिले के आदिवासियों की मान्यता अनुसार डांग जिले के अंजना पर्वत में स्थित अंजनी गुफा में ही हनुमानजी का जन्म हुआ था। दूसरी ओर कुछ लोग मानते हैं कि हनुमानजी का जन्म झारखंड राज्य के उग्रवाद प्रभावित क्षेत्र गुमला जिला मुख्यालय से 20 किलोमीटर दूर आंजन गांव की एक गुफा में हुआ था।
एक अन्य मान्यता अनुसार 'पंपासरोवर' अथवा 'पंपासर' होस्पेट तालुका, मैसूर का एक पौराणिक स्थान है। यहीं पर शबरी के गुरु मतंग ऋषि के नाम पर प्रसिद्ध 'मतंगवन' था। यहां हंपी में ऋष्यमूक के पास स्थित पहाड़ी आज भी मतंग पर्वत के नाम से जानी जाती है। कहते हैं कि मतंग ऋषि के आश्रम में ही हनुमानजी का जन्म हआ था। मतंग नाम की आदिवासी जाति से हनुमानजी का गहरा संबंध रहा है। मातंग ऋषि के शिष्य थे हनुमानजी। मातंग ऋषि के यहां माता दुर्गा के आशीर्वाद से जिस कन्या का जन्म हुआ था वह मातंगी देवी थी। दस महाविद्याओं में से नौवीं महाविद्या देवी मातंगी ही है। यह देवी भारत के आदिवासियों की देवी है। दस महाविद्याओं में से एक तारा और मातंग देवी की आराधना बौद्ध धर्म में भी की जाती हैं। बौद्ध धर्म में मातंगी को मातागिरी कहते हैं।
आखिर हनुमानजी किसी जाति के थे?
बहुत प्राचीनकाल में लोग हिमालय के आसपास ही रहते थे। वेद और महाभारत पढ़ने पर हमें पता चलता है कि आदिकाल में प्रमुख रूप से ये जातियां थीं- देव, दैत्य, दानव, राक्षस, यक्ष, गंधर्व, भल्ल, वसु, अप्सराएं, पिशाच, सिद्ध, मरुदगण, किन्नर, चारण, भाट, किरात, रीछ, नाग, विद्याधर, मानव, वानर आदि।
मानव और वानरों को अलग-अलग माना जाता था। हनुमानजी जब मानव नहीं थे तो फिर वे मानवों की किसी भी जाति से संबंध नहीं रखते हैं। ऐसा माना जाता है कि वर्तमान में उनकी जाति के लोग लुप्त हो गए हैं। अब जहां तक सवाल आदिवासी शब्द का है तो यह समझना जरूर है कि आदिवासी मानव भी होते हैं और वानर भी। आदि का अर्थ प्रारंभिक मानव या वानरों के समूह।
वानर सम्राज्य : वानर का शाब्दिक अर्थ होता है 'वन में रहने वाला नर।' लेकिन मानव से अलग। क्योंकि वन में ऐसे भी नर रहते थे जिनको पूछ निकली हुई थी। शोधकर्ता कहते हैं कि आज से 9 लाख वर्ष पूर्व एक ऐसी विलक्षण वानर जाति भारतवर्ष में विद्यमान थी, जो आज से 15 से 12 हजार वर्ष पूर्व लुप्त होने लगी थी और अंतत: लुप्त हो गई। इस जाति का नाम कपि था। हनुमान का जन्म कपि नामक वानर जाति में हुआ था।
दरअसल, आज से 9 लाख वर्ष पूर्व मानवों की एक ऐसी जाति थी, जो मुख और पूंछ से वानर समान नजर आती थी, लेकिन उस जाति की बुद्धिमत्ता और शक्ति मानवों से कहीं ज्यादा थी। अब वह जाति भारत में तो दुर्भाग्यवश विनष्ट हो गई, परंतु बाली द्वीप में अब भी पुच्छधारी जंगली मनुष्यों का अस्तित्व विद्यमान है जिनकी पूछ प्राय: 6 इंच के लगभग अवशिष्ट रह गई है। ये सभी पुरातत्ववेत्ता अनुसंधायक एकमत से स्वीकार करते हैं कि पुराकालीन बहुत से प्राणियों की नस्ल अब सर्वथा समाप्त हो चुकी है।
भारत में वानरों के साम्राज्य की राजधानी किष्किंधा थी। सुग्रीव और बालि इस सम्राज्य के राजा थे। यहां पंपासरोवर नामक एक स्थान है जिसका रामायण में जिक्र मिलता है। 'पंपासरोवर' अथवा 'पंपासर' होस्पेट तालुका, मैसूर का एक पौराणिक स्थान है। हंपी के निकट बसे हुए ग्राम अनेगुंदी को रामायणकालीन किष्किंधा माना जाता है। तुंगभद्रा नदी को पार करने पर अनेगुंदी जाते समय मुख्य मार्ग से कुछ हटकर बाईं ओर पश्चिम दिशा में, पंपासरोवर स्थित है।
भारत के बाहर वानर साम्राज्य कहां?
सेंट्रल अमेरिका के मोस्कुइटीए (Mosquitia) में शोधकर्ता चार्ल्स लिन्द्बेर्ग ने एक ऐसी जगह की खोज की है जिसका नाम उन्होंने ला स्यूदाद ब्लैंका (La Ciudad Blanca) दिया है जिसका स्पेनिश में मतलब व्हाइट सिटी (The White City) होता है, जहां के स्थानीय लोग बंदरों की मूर्तियों की पूजा करते हैं। चार्ल्स का मानना है कि यह वही खो चुकी जगह है जहां कभी हनुमान का साम्राज्य हुआ करता था।
एक अमेरिकन एडवेंचरर ने लिम्बर्ग की खोज के आधार पर गुम हो चुके ‘Lost City Of Monkey God’ की तलाश में निकले। 1940 में उन्हें इसमें सफलता भी मिली पर उसके बारे में मीडिया को बताने से एक दिन पहले ही एक कार दुर्घटना में उनकी मौत हो गई और यह राज एक राज ही बनकर रह गया।
आदिम जातियों पर शोध :
पृथ्वी पर आदिम दौर में चार मानव प्रजातियों का अस्तित्व था। तब तक आधुनिक इंसान का पता नहीं चला था। यूरोप में मिले इन अवशेषों को निएंडरथल कहते हैं, जबकि एशिया में रह रहे आदिम इंसानों को डेनिसोवांस कहते थे। एक प्रजाति इंडोनेशिया में मिले आदिम इंसानों की भी है, जिसे हॉबिट कहते हैं। इनके अलावा एक रहस्यमय चौथा समूह भी था, जो यूरोप और एशिया में रहते थे। यह समूह डेनिसोवांस का संकर समूह माना जाता था। अब चीन में नए जीवाश्म मिलने से शोध की दिशा बदल गई है।
इस जीवाश्म का पता पहली बार 1976 में शूजियाओ के गुफाओं में मिला। इसमें कुछ खोपड़ियों के टुकड़े और चार लोगों के नौ दांतों के जीवाश्म मिले थे। इसका पूरा विवरण अमेरिकी फिज़िकल एंथ्रापोलॉजी जर्नल में छपा है। यह विचित्र किस्म का जीवाश्म है, जो अब तक मालूम मानव प्रजाति के जीवाश्म से मेल नहीं खाता। मुमकिन है कि ये जीवाश्म किन्हीं दो मालूम प्रजातियों के बीच रूपांतरण काल का हो सकता है। हालांकि इतना साफ है कि ये जीवाश्म किसी आधुनिक मानव प्रजाति के दांतों से मेल नहीं खाते. मगर कुछ गुण निश्चित ही आदिम प्रजाति के इंसानों से मिलते हैं. कुछ अंश निएंडरथल से मेल खाते हैं। इसके डीएनए की जांच से पता चला कि निएंडरथल और आधुनिक मानवों से अलग हैं लेकिन इसमें दोनों की खूबियां शामिल हैं।
भारत रहस्यों से भरा देश रहा है। शोधानुसार लगभग 35 से 40 हजार वर्ष पहले से भारत में एक समृद्ध सामाजिक परंपरा रही है। इन वर्षों में भारत ने कई उतार-चढ़ाव देखे। प्राचीनकाल में सुर, असुर, देव, दानव, दैत्य, रक्ष, यक्ष, दक्ष, किन्नर, निषाद, वानर, गंधर्व, नाग, वानर और मानव आदि जातियां होती थीं। प्राचीन भारत में कुछ इस तरह के मानव और जीव हुए हैं जिनके बारे में आज भी शोध जारी है। हालांकि इनमें से कुछ के रहस्यों पर से अब पर्दा उठ गया है।
इस बात का सबूत है कि प्राचीनकाल में दो भिन्न-भिन्न प्रजातियों के मेल से विचित्र किस्म के जीव-जंतुओं और मानवों का जन्म हुआ होगा। रामायणकाल और महाभारत काल में जहां विचित्र तरह के मानव और पशु-पक्षी होते थे, वहीं उस काल में तरह-तरह के सुर और असुरों का साम्राज्य और आतंक था। हालांकि बहुत कम ही लोग होंगे, जो इस बात से सहमत हैं कि दुनिया में विचित्र प्राणी होते हैं?
हम यहां मत्स्य मानव, पक्षी मानव, अश्व मानव, नाग मानव आदि की बात नहीं कर रहे हैं। सच में जिनके मानवरूप होने की संभावनाओं को नकारना मुश्किल है उन्हीं की बात कर रहे हैं। आओ हम जानते हैं कि भारत में प्राचीन काल से लेकर मध्यकाल तक किस प्रकार के और कौन कौन से ऐसे मानव हुए जो सामान्य मानव से भिन्न थे। हम यहां किसी सिद्धि प्राप्त या चमत्कारिक मानवों की बात नहीं कर रहे हैं बल्कि ऐसे मानवों की जिनके मानव होने पर शक होता है।