वाल्मीकि कृत रामायण और रामचरित मानस सहित सभी रामायण में विभीषण को रावण पक्ष की ओर से लंका का द्रोही बताया गया है। वर्तमान में भी लोग मानते हैं कि विभीषण ने अपने भाई को धोखा दिया था। इसीलिए एक कहावत आज भी प्रचलित है कि घर का भेदी लंका ढाये। अर्थात बाहर वाला कोई व्यक्ति हमारा कुछ नुकसान नहीं पंहुचा सकता जब तक की कोई अपना उस बाहरी व्यक्ति की सहायता न करे, लेकिन क्या यह सच है? विभीषण बुरा था? आओ जानते हैं सचाई।
1. भाइयों में मतभेद : रामायण में एक ओर राम तो दूसरी ओर रावण था। एक ओर जहां प्रभु श्रीराम को उनके भाई भगवान मानते थे तो दूसरी ओर रावण के भाई उसको अपराधी, घमंडी और अहंकारी मानते थे। यह फर्क था सबसे बड़ा। रावण के सगे भाई कुंभकर्ण और विभीषण ने उसको बहुत समझाया कि तुम जो कर रहे हो वह गलत है। रावण के सौतेले भाई भी थी जिनमें से एक कुबेर से उसने लंका छीन ली थी बाकि खर, दूषण और अहिरावण ने उसकी सहायता की थी। उसकी सगी बहन सूर्पणखा और सौतेली बहन कुम्भिनी ने भी रावण की सहायता की थी। रावण का अपने सभी भाइयों से शक्ति के बल पर संबंध था जबकि राम का अपने भाइयों से प्रेम और समर्पण के बल पर संबंध था।
2. रावण को समझाया : रावण ने जब सीता जी का हरण किया, तब विभीषण पराई स्त्री के हरण को महापाप बताते हुए सीता जी को श्री राम को लौटा देने की सलाह दे कर हमेशा धर्म की शिक्षा देता था लेकिन रावण उसकी एक नहीं सुनता था। क्या विभीषण का यह कार्य धर्म विरुद्ध था? विभीषण ही नहीं बल्की रावण को उसकी पत्नी मंदोदरी, उसके नाना माल्यवान और उसके श्वसुर मयासुर भी वही बात करते थे जो कि विभीषण करता था। दरअसल, विभीषण अपने भाई को बचाना चाहता था।
3. विभीषण को निकाला लंका से : विभीषण ने हर मौके पर रावण को रोकने का प्रयास कर धर्म की शिक्षा दी, लेकिन अंतत: रावण ने क्रोधित होकर विभीषण को लंका से बेदघल कर दिया। उसे देश निकाला दे दिया। यदि वह ऐसा नहीं करता तो संभवत: विभीषण को लंका में ही रहकर राम से युद्ध करने के लिए जाना होता।
4. राम के शरणागत हुए विभीषण : रावण के निकाले जाने के बाद विभीषण के पास और कोई चारा नहीं था। वे प्रभु श्री राम की शरण में चले गए। वे चाहते थे कि निर्दोष लंकावासी न मारे जाएं और लंका में न्याय का राज्य स्थापित हो। विभीषण राम की शरण में इसलिए नहीं गए थे कि उन्हें लकाधिपति या लंकेश बनना था। उनका उद्देश्य तो कुछ और ही था।
विभीषण के शरण याचना करने पर सुग्रीव ने श्रीराम से उसे शत्रु का भाई व दुष्ट बताकर उनके प्रति आशंका प्रकट की और उसे पकड़कर दंड देने का सुझाव दिया। हनुमानजी ने उन्हें दुष्ट की बजाय शिष्ट बताकर शरणागति देने की वकालत की। इस पर श्रीरामजी ने विभीषण को शरणागति न देने के सुग्रीव के प्रस्ताव को अनुचित बताया और हनुमानजी से कहा कि आपका विभीषण को शरण देना तो ठीक है किंतु उसे शिष्ट समझना ठीक नहीं है।
इस पर श्री हनुमानजी ने कहा कि तुम लोग विभीषण को ही देखकर अपना विचार प्रकट कर रहे हो मेरी ओर से भी तो देखो, मैं क्यों और क्या चाहता हूं...। फिर कुछ देर हनुमानजी ने रुककर कहा- जो एक बार विनीत भाव से मेरी शरण की याचना करता है और कहता है- 'मैं तेरा हूं, उसे मैं अभयदान प्रदान कर देता हूं। यह मेरा व्रत है इसलिए विभीषण को अवश्य शरण दी जानी चाहिए।'
5. धर्म का साथ देना जरूरी : कई लोग कहते हैं कि कुंभकर्ण ने अपने भाई का साथ देकर भाई का धर्म निभाया, मेघनाद ने अपने पिता का साथ देकर अपने पुत्र होने का धर्म निभाया। इसलिए लोगों में उनके प्रति सहानुभूति देखी गई लेकिन कोई यह नहीं सोच पाया कि विभीषण ने राम का साध देकर सही मायने में ईश्वर के धर्म का धर्म निभाया। दरअसल, आत्मिक जगत में न कोई किसी का भाई है और न पुत्र, न माता और न पिता। आत्मिक और आध्यात्मिक जगत में तो प्रभु या ईश्वर ही हमारे सबकुछ होते हैं। उनकी ओर से युद्ध लड़ना ही हमारा धर्म होना चाहिए। धर्मरक्षार्थ युद्ध करना ही सच्चा धर्म निभाना होता है।
यदि वजह थी कि रावण, मेघनाद और कुंभकर्ण जैसे कई योद्ध महान शक्तिशाली होकर भी कुछ नहीं थे लेकिन विभीषण कुछ नहीं होकर भी सबकुछ थे। क्योंकि भगवान श्री राम ने विभीषण को अजर-अमर होने का वरदान दिया। विभीषण जी सप्त चिरंजीवियों में एक हैं और अभी तक विद्यमान हैं। विभीषण को भी हनुमानजी की तरह चिरंजीवी होने का वरदान मिला है। वे भी आज सशरीर जीवित हैं। विभीषण धर्मज्ञानी और दिव्यदृष्टि प्राप्त व्यक्ति थे। इसी से सिद्ध होता है कि विभीषण न तो घर के भेदी थे और ना ही लंका द्रोही। वे तो प्रभु के सेवक थे।