श्रीनगर। रविवार को श्रीनगर-बडगाम लोकसभा क्षेत्र में हुई हिंसा ने कई बातों को स्पष्ट कर दिया है। हिंसा के स्तर ने उन दावों की तो धज्जियां ही उड़ा दीं जो कश्मीर में शांति के लौट आने के प्रति थी। दावे पानी के बुलबुलों की तरह फूट गए। पहली बार इतनी कम वोटिंग ने सभी को हैरान कर दिया है। जिस तरह से पत्थरबाजों और आम नागरिकों की भीड़ ने मतदान केंद्रों पर हमले बोल कर ईवीएम मशीनों को तोड़ फोड़ डाला या लूट लिया, उससे यह साबित होता है कि कश्मीरी जनता पूरी तरह से अलगाववदियों के साथ हो चली है जिनकी फिर से कश्मीर में तूती बोलने लगी है।
गठबंधन सरकार के पांव तले से जमीन खिसक चुकी है। राजनीतिक गतिविधियों के लौट आने की बातें यूं हवा में धूल के गुब्बार की तरह छंट जाएंगी, किसी ने सोचा नहीं था। कश्मीर में लोकसभा की दो सीटों, श्रीनगर और अनंतनाग, में उप चुनाव की घोषणा के साथ ही हिंसा की आशंका प्रकट की जा रही थी पर वह आशंका आतंकियों से जुड़ी हुई थी और जो हिंसा कल कश्मीर में हुई उसके प्रति कभी किसी ने सोचा भी नहीं था।
स्पष्ट शब्दों में कहें तो गठबंधन सरकार की पकड़ कश्मीर में खत्म हो चुकी है। अगर किसी की पांचों अंगुलियां घी में हैं तो वे अलगाववादी नेता हैं। इतना जरूर था कि अलगाववादी नेताओं के करीबी सूत्र भी अपने चुनाव विरोधी अभियान के इतने पैमान पर रिस्पांस से हैरान हैं। उन्होंने भी शायद कभी इतना समर्थन मिलने की उम्मीद नहीं रखी थी।
कश्मीर में आतंकवाद के इतिहास में पिछले सभी चुनावों में पोलिंग स्टाफ को हमेशा ही आतंकी हमलों से डर लगता था। इस बार उनका डर दोहरा था। एक तो आतंकियों का और दूसरा पत्थरबाजों का। कल पत्थरबाज जिस कद्र कश्मीर के परिदृश्य पर छाए थे, उसने आतंकियों के काम को आसान कर दिया है। अधिकारी आप मानते हैं कि पाकिस्तान भी अब आतंकियों की बजाय पत्थरबाजों का पोषण करने में जुटा हुआ है। यह बात अलग है कि ऐसी खबरें हैरान करने वाली हैं कि पत्थरबाजी में सीमा पार से आने वाले आतंकी भी शामिल हैं।
कल की हिंसा ने अब 12 अप्रैल को अनंतनाग में होने जा रहे मतदान को अपनी चपेट में ले लिया है। पत्थरबाजों का डर और अलगाववादियों का चुनाव विरोधी अभियान किस कद्र सिर चढ़कर बोलने लगा है, अनंतनाग लोकसभा सीट से किस्मत आजमा रहे मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती के भाई और मुफ्ती मुहम्मद सईद के बेटे तस्सद्दुक हुसैन का वह बयान है जिसमें उन्होंने चुनाव आयोग से चुनाव स्थगित करने की अपील की है।
कश्मीर में चुनावों के इतिहास में यह भी पहला अवसर है कि सत्ताधारी पार्टी के उम्मीदवार ऐसी अपील करने को मजबूर हुए हैं। यह भी पहला अवसर था कि कश्मीर में चुनावी हिंसा की बागडोर आतंकियों के हाथों में नहीं बल्कि पत्थरबाजों के हाथों में थी।
सत्ताधारी गठबंधन सरकार की परेशानी का आलम यह है कि इस हिंसा के बाद विपक्षी दलों और राजनीतिक पंडितों के आरोपों का जवाब देने कोई आगे नहीं आया है। ऊपर से तस्सद्दुक हुसैन की अपील उनकी बोलती बंद कर चुकी है। पर इन सबसे अलगाववादी नेता बेहद खुश हैं। उन्हें तो जैसे नई लाइफ मिल गई हो। दरअसल इस तरह के रिस्पांस की आशा उन्होंने भी नहीं की थी।
हिंसा का परिणाम भी सामने है। कश्मीर में अलगाववादियों की फिर से बोल रही तूती की कमर को तोड़ पाना बहुत मुश्किल हो गया है। जनसमर्थन कहें या फिर पत्थरबाजों का समर्थन, उनके साथ होने का परिणाम यह है कि कश्मीर हिंसा के नए दौर की ओर अग्रसर है। चाहे महबूबा मुफ्ती कितना भी दावा करती रहे कि कश्मीर से बंदूक कल्चर खत्म हो गया है पर पत्थरबाजी का कल्चर कश्मीर को कहां लेकर जाएगा कोई नहीं जानता।