॥ कषायों को छोड़ो ॥ कषायों के बारे में महावीर स्वामी के उपदेश-
कोहं माणं च मायं च लोभं च पापवड्ढणं। वमे चत्तारि दोसे उ इच्छन्तो हियमप्पणो॥ जो आदमी अपना भला चाहता है, उसे क्रोध, मान, माया और लोभ को सदा के लिए छोड़ देना चाहिए। ये चारों दोष पाप बढ़ाने वाले हैं।
अहे वयन्ति कोहेणं माणेण अहमा गई। माया गई पडिग्घाओ लोहाओ दुहुओ भयं॥ क्रोध से मनुष्य नीचे गिरता है। अभिमान से अधम गति को पाता है। माया से सत्गति का नाश होता है तथा लोभ से इस लोक में भी और परलोक में भी भय रहता है।
कोहो य माणो य अणिग्गहीया माया य लोभो य पबड्ढमाणा। चत्तारि एए कसिणा कसाया सिंचन्ति मूलाइं पुणव्वयस्स॥ काबू में न लाया गया क्रोध और अभिमान, बढ़ती हुई माया और लोभ, ये चारों नीच कषाय पुनर्जन्मरूपी संसार वृक्ष की जड़ों को बराबर सींचते रहते हैं।
उवसमणे हणे कोहं माणं मद्दवया जिणे। मायं च अज्जवमावुण लोहं संतोसहो जिणे॥ क्रोध को शांति से, मान को नम्रता से, माया को सरलता से तथा लोभ को संतोष से जीतने का मार्ग महावीरजी ने सुझाया है।
कषायों के भेद कषाय चार हैं- 1. क्रोध 2. मान 3. माया और 4. लोभ। हर एक के चार-चार भेद हैं।
क्रोध के भेद : क्रोध के चार भेद निम्न हैं- 1. अनन्तानुबंधी क्रोध- पर्वत में पड़ी दरार जैसे जुड़ती नहीं, वैसे ही ऐसा क्रोध जीवनभर शांत नहीं होता। (अत्यंत ज्यादा क्रोध) 2. अप्रत्याख्यानी क्रोध- पृथ्वी में पड़ी दरार जैसे वर्षा आने पर पट जाती है, वैसे ही ऐसा क्रोध एक-आध साल में शांत हो जाता है। (ज्यादा क्रोध) 3. प्रत्याख्यानी क्रोध- रेत में खींची रेखा जैसे वायु के झोंके से मिट जाती है, वैसे ही ऐसा क्रोध एक-आध मास में शांत हो जाता है। (सामान्य क्रोध) 4. संज्वलन क्रोध- पानी में खींची रेखा जैसे शीघ्र नष्ट हो जाती है, वैसे ही ऐसा क्रोध जल्दी शांत हो जाता है। (हल्का क्रोध)
मान के भेद : मान के चार भेद निम्न हैं-
1. अनन्तानुबंधी मान- पत्थर के खंभे के समान, जो किसी प्रकार झुकता नहीं। 2. अप्रत्याख्यानी मान- हड्डी के समान, जो बड़ी कठिनाई से झुकता है। 3. प्रत्याख्यानी मान- काठ के समान, जो उपाय करने पर झुक सकता है। 4. संज्वलन मान- बेंत की लकड़ी के समान, जो आसानी से झुक जाता है।
माया के भेद : मान के चार भेद निम्न हैं-
1. अनन्तानुबंधी माया- बाँस की कठोर जड़ जैसी, जो किसी तरह टेढ़ापन नहीं छोड़ती। 2. अप्रत्याख्यानी माया- मेढ़े के सींग जैसी, जो बड़े प्रयत्न से अपना टेढ़ापन छोड़ती है। 3. प्रत्याख्यानी माया- बैल के मूत्र की धार जैसी, जो वायु के झोंके से मिट जाती है। 4. संज्वलन माया- बाँस की चीपट के समान।
लोभ के भेद : लोभ के चार भेद निम्न हैं-
1. अनन्तानुबंधी लोभ- किरमिच के रंग जैसा दाग, जो एक बार चढ़ने पर उतरता नहीं। (अत्यंत ज्यादा लालच) 2. अप्रत्याख्यानी लोभ- गाड़ी के कीट जैसे दाग, जो एक बार कपड़े को गंदा कर देने पर बड़े प्रयत्न से मिटता है। (ज्यादा लालच) 3. प्रत्याख्यानी लोभ- कीचड़ जैसा दाग, जो कपड़ों पर पड़ जाने पर साधारण प्रयत्न से छूट जाता है। (सामान्य लालच) 4. संज्वलन लोभ- हल्दी के रंग जैसा दाग, जो सूर्य की धूप लगते ही दूर हो जाता है। (कम लालच)