सुख-साहबी, अभ्युदय पाने हेतु

हेतु- सुख-साहबी मिलती है, अभ्युदय होता है।

छत्र त्रयं तव विभाति शशांक कान्तमुच्चैः स्थितं स्थगित भानु-कर-प्रतापम्‌ ।
मुक्ताफल-प्रकर-जाल-विवृद्ध शोभं, प्रख्यापयत्त्रिजगतः परमेश्वरत्वम्‌ ॥ (31)

मणि-मोतियों की आभा से उजले-उजले आपके मस्तक पर रहे हुए ये तीन छत्र कितने मोहक प्रतीत हो रहे हैं! सूरज की किरणों के तीखे स्पर्श को रोकते हुए ये शशांक से सुंदर छत्र जब झूलते हैं, तो लगता है ये आपके परमेश्वरत्व को तीनों लोक में प्रख्यापित कर रहे हैं।

ऋद्धि- ॐ ह्रीं अर्हं णमो घोरगुणपरक्कमाणं ।

मंत्र- ॐ उपसग्गहरं पासं, पासं वंदामि कम्मघणमुक्कं विसहर विसणिप्पासं मंगल-कल्लाण-आवासं ॐ ह्रीं नमः स्वाहा ।

गंभीर-तार-रव-पूरित-दिग्विभाग- स्त्रैलोक्य-लोक-शुभ-संभम-भूमि-दक्ष: ।
सद्‍धर्मराज-जय-घोषण-घोषक: सन् खे दुन्दुभिर्ध्वनति ते यशस: प्रवादी ।। (32)

मन्दार-सुंदर-नमेरु-सुपारिजात-सन्तानकादि-कुसुमोत्कर-वृष्टि-रुद्धा।
गन्धोद-बिंदु-शुभं-मन्द-मरुत्प्रपाता दिव्या दिव: पतति ते वचसां ततिर्वा।। (33)

शुम्भत्प्रभा-वलय-भूरि-विभा-विभोस्ते लोक-त्रये द्युतिमतां द्युतिमाक्षिपन्ती।
प्रोद्यद्दिवाकर-निरंतर-भूरि-संख्या दीप्त्या जयत्यपि निशामपि सोम-सौम्याम् ।। (34)

स्वर्गापवर्ग -गम-मार्ग-विमार्गणेष्ट: सद्धर्म-तत्त्व-कथनैक-पटुस्त्रिलोक्या:।
दिव्य-ध्वनिर्भवति ते विशदार्थ-सर्व- भाषा-स्वभाव-परिणाम-गुणै-र्प्रयोज्य: ।। (35)

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