शिव हैं निर्माण एवं नवजीवन के प्रेरक...

भगवान शिव आदिदेव हैं, देवों के देव हैं, महादेव हैं। सभी देवताओं में वे सर्वोच्च हैं, महानतम हैं, दु:खों को हरने वाले हैं। वे कल्याणकारी हैं, तो संहारकर्ता भी हैं।

 
प्रतिवर्ष महाशिवरात्रि का पर्व फाल्गुण मास की कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी को मनाया जाता है, जो शिवत्व का जन्मदिवस है। यह शिव से मिलन की रात्रि का सुअवसर है। इसी दिन निशिथ अर्द्धरात्रि में शिवलिंग का प्रादुर्भाव हुआ था इसीलिए यह पुनीत पर्व संपूर्ण देश एवं दुनिया में उल्लास और उमंग के साथ मनाया जाता है।

 
यह पर्व सांस्कृतिक एवं धार्मिक चेतना की ज्योति किरण है। इससे हमारी चेतना जाग्रत होती है, जीवन एवं जगत में प्रसन्नता, गति, संगति, सौहार्द, ऊर्जा, आत्मशुद्धि एवं नवप्रेरणा का प्रकाश परिव्याप्त होता है। यह पर्व जीवन के श्रेष्ठ एवं मंगलकारी व्रतों, संकल्पों तथा विचारों को अपनाने की प्रेरणा देता है।
 
भगवान शिव भोले भंडारी हैं और जग का कल्याण करने वाले हैं। सृष्टि के कल्याण हेतु जीर्ण-शीर्ण वस्तुओं का विनाश आवश्यक है। इस विनाश में ही निर्माण के बीज छुपे हुए हैं इसलिए शिव संहारकर्ता के रूप में निर्माण एवं नवजीवन के प्रेरक भी हैं। सृष्टि पर जब कभी कोई संकट पड़ा तो उसके समाधान के लिए वे सबसे आगे रहे।

 
जब भी कोई संकट देवताओं एवं असुरों पर पड़ा तो उन्होंने शिव को ही याद किया और शिव ने ही उनकी रक्षा की। समुद्र मंथन में देवता और राक्षस दोनों ही लगे हुए थे। सभी अमृत चाहते थे, अमृत मिला भी लेकिन उससे पहले हलाहल विष निकला जिसकी गर्मी, ताप एवं संकट ने सभी को व्याकुल कर दिया एवं संकट में डाल दिया। विष ऐसा कि पूरी सृष्टि का नाश कर दे। प्रश्न था कि कौन ग्रहण करे इस विष को? भोलेनाथ को याद किया गया। वे उपस्थित हुए और इस विष को ग्रहण कर सृष्टि के सम्मुख उपस्थित संकट से रक्षा की। उन्होंने इस विष को कंठ तक ही रखा और वे 'नीलकंठ' कहलाए। 
 
इसी प्रकार गंगा को पृथ्वी पर लाने के लिए भोले बाबा ने ही सहयोग किया, क्योंकि गंगा के प्रचंड दबाव और प्रवाह को पृथ्वी कैसे सहन करे, इस समस्या के समाधान के लिए शिव ने अपनी जटाओं में गंगा को समाहित किया और फिर अनुकूल गति के साथ गंगा का प्रवाह उनकी जटाओं से हुआ। ऐसे अनेक सृष्टि से जुड़े संकट और उसके विकास से जुड़ी घटनाएं हैं जिनके लिए शिव ने अपनी शक्तियों, तप और साधना का प्रयोग करके दुनिया को नवजीवन प्रदान किया।

 
'शिव' का अर्थ ही कल्याण है, वही शंकर है और वही रुद्र भी है। शंकर में 'शं' का अर्थ कल्याण है और 'कर' का अर्थ करने वाला। रुद्र में 'रु' का अर्थ दु:ख और 'द्र' का अर्थ हरना- हटाना है। इस प्रकार 'रुद्र' का अर्थ हुआ दु:ख को दूर करने वाले अथवा कल्याण करने वाले।
 
भौतिक एवं भोगवादी भागदौड़ की दुनिया में शिवरात्रि का पर्व भी दु:खों को दूर करने एवं सुखों का सृजन करने का प्रेरक है। भोलेनाथ भाव के भूखे हैं। कोई भी उन्हें सच्ची श्रद्धा, आस्था और प्रेम के पुष्प अर्पित कर अपनी मनोकामना पूर्ति की प्रार्थना कर सकता है। दिखावे, ढोंग एवं आडंबर से मुक्त विद्वान-अनपढ़, धनी-निर्धन कोई भी अपनी सुविधा तथा सामर्थ्य से उनकी पूजा और अर्चना कर सकता है। 
 
शिव न काठ में रहता है, न पत्थर में, न मिट्टी की मूर्ति में, न मंदिर की भव्यता में- वे तो भावों में निवास करते हैं। यह पर्व महाकाल शिव की आराधना का महापर्व है। ऐसी मान्यता है कि इस दिन पूजा एवं अभिषेक करने पर उपासक को समस्त तीर्थों के स्नान का फल प्राप्त होता है। शिवरात्रि का व्रत करने वाले इस लोक के समस्त भोगों को भोगकर अंत में शिवलोक में जाते हैं। शिवरात्रि की पूजा रात्रि के चारों प्रहर में करनी चाहिए।

 
शिव को बिल्वपत्र, धतूरे के पुष्प तथा प्रसाद में भांग अतिप्रिय हैं। लौकिक दृष्टि से दूध, दही, घी, शकर, शहद- इन 5 अमृतों (पंचामृत) का पूजन में उपयोग करने का विधान है। महामृत्युंजय मंत्र शिव आराधना का महामंत्र है। शिवरात्रि वह समय है, जो पारलौकिक, मानसिक एवं भौतिक तीनों प्रकार की व्यथाओं, संतापों, पाशों से मुक्त कर देता है।
 
शिव की रात शरीर, मन और वाणी को विश्राम प्रदान करती है। शरीर, मन और आत्मा को ऐसी शांति प्रदान करती है जिससे कि शिव तत्व की प्राप्ति संभव हो पाती है। शिव और शक्ति का मिलन गतिशील ऊर्जा का अंतरजगत से एकात्म होना है।
 
लौकिक जगत में लिंग का सामान्य अर्थ चिह्न होता है जिससे पुल्लिंग, स्त्रीलिंग और नपुंसक लिंग की पहचान होती है। शिवलिंग लौकिक के परे है। इसी कारण यह एकलिंगी है। आत्मा है। शिव संहारक हैं। वे पापों के संहारक हैं। शिव की गोद में पहुंचकर हर व्यक्ति भय-ताप से मुक्त हो जाता है।

 
शिवरात्रि जागृति का पर्व है जिसमें आत्मा का मंगलकारी शिव से मिलन होता है। यह आत्मस्वरूप को जानने की रात्रि है। यह स्वयं के भीतर जाकर अथवा अंतश्चेतना की गहराइयों में उतरकर आत्मसाक्षात्कार करने का दुर्लभ प्रयोग है। यह आत्मयुद्ध की प्रेरणा है, क्योंकि स्वयं को जीत लेना ही जीवन की सच्ची जीत है, शिवत्व की प्राप्ति है। काल के इस क्षण की सार्थकता शिवमय हो जाने में है। शक्ति माया नहीं है, मिथ्या नहीं है, प्रपंच नहीं है। इसके विपरीत शक्ति, सत्य है। जीव और जगत भी सत्य है। सभी तत्वत: सत्य हैं। सभी शिवमय हैं।

 
शिव शक्ति के प्रतीक ज्योतिर्लिंग का प्रादुर्भाव फाल्गुन कृष्ण चतुर्दशी के निशिथ काल में हुआ था। शिवपुराण के अनुसार सृष्टि के आरंभ में ब्रह्मा ने इसी दिन रुद्ररूपी शिव को उत्पन्न किया था। शिव एवं हिमालय पुत्री पार्वती का विवाह भी इसी दिन हुआ था अत: यह शिव एवं शक्ति के पूर्ण समरस होने की रात्रि भी है। वे सृष्टि के सर्जक हैं। वे मनुष्य जीवन के ही नहीं, सृष्टि के निर्माता, पालनहार एवं पोषक हैं। उन्होंने मनुष्य जाति को नया जीवन-दर्शन दिया। जीने की शैली सिखलाई।

 
शिवरात्रि भोगवादी मनोवृत्ति के विरुद्ध एक प्रेरणा है- संयम की, त्याग की, भक्ति की, संतुलन की। सुविधाओं के बीच रहने वालों के लिए सोचने का अवसर है कि वे आवश्यक जरूरतों के साथ जीते हैं या जरूरतों से ज्यादा आवश्यकताओं की मांग करते हैं। इस शिवभक्ति एवं उपवास की यात्रा में हर व्यक्ति में अहंकार नहीं, बल्कि शिशुभाव जागता है। क्रोध नहीं, क्षमा शोभती है। कष्टों में मन का विचलन नहीं, सहने का धैर्य रहता है। यह तपस्या स्वयं के बदलाव की एक प्रक्रिया है। यह प्रदर्शन नहीं, आत्मा के अभ्युदय की प्रेरणा है। इसमें भौतिक परिणाम पाने की महत्वाकांक्षा नहीं, सभी चाहों का संन्यास है।

 
शिव ने संसार और संन्यास दोनों को जीया है। उन्होंने जीवन को नई और परिपूर्ण शैली दी। पृथ्वी, पानी, अग्नि, वायु, वनस्पति की जीवन में आवश्यकता और उपयोगिता का प्रशिक्षण दिया। कला, साहित्य, शिल्प, मनोविज्ञान, विज्ञान, पराविज्ञान और शिक्षा के साथ साधना के मानक निश्चित किए। सबको धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष की पुरुषार्थ चतुष्टयी की सार्थकता सिखलाई। वे भारतीय जीवन-दर्शन के पुरोधा हैं।
 
आज उनका संपूर्ण व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व सृष्टि के इतिहास का एक अमिट आलेख बन चुका है। उनका संपूर्ण जीवन प्रेरणास्रोत है। लेकिन हम इतने भोले हैं कि अपने शंकर को ही नहीं समझ पाए। उनको समझना, जानना एवं आत्मसात करना हमारे लिए स्वाभिमान और आत्मविश्वास को बढ़ाने वाला अनुभव सिद्ध हो सकता है। मानवीय जीवन के सभी आयाम शिव से ही पूर्णत्व को पाते हैं।

 
आज चारों ओर अनैतिकता, आतंक, अराजकता और अनुशासनहीनता का बोलबाला है। व्यक्ति, समाज एवं राष्ट्र हर कहीं दरारें ही दरारें हैं, हर कहीं टूटन एवं बिखराव है। मानवीय दृष्टि एवं जीवन-मूल्य खोजने पर भी नहीं मिल रहे हैं। मनुष्य आकृति से मनुष्य रह गया है और उसकी प्रकृति तो राक्षसी हो चली है। मानवता क्षत-विक्षत होकर कराह रही है। इन सबका कारण है कि हमने अपने आत्मपक्ष को भुला दिया है। इन विकट स्थितियों में महादेव ही हमें बचा सकते हैं, क्योंकि शिव ने जगत की रक्षा हेतु बार-बार और अनेक बार उपक्रम किए।

 
वस्तुत: अपने विरोधियों एवं शत्रुओं को मित्रवत बना लेना ही सच्ची शिवभक्ति है। जिन्हें समाज तिरस्कृत करता है उन्हें शिव गले लगाते हैं। तभी तो अछूत सर्प उनके गले का हार है, अधमरूपी भूत-पिशाच शिव के साथी एवं गण हैं। समाज जिनकी उपेक्षा करता है, शंकर उन्हें आमंत्रित करते हैं। शिव की बारात में आए नंग-धड़ंग, अंग-भंग, भूत-पिशाच इसी तथ्य को दृढ़ करते हैं। इस लिहाज से शिव सच्चे पतित-पावन हैं। उनके इसी स्वभाव के कारण देवताओं के अलावा दानव भी शिव का आदर करते हैं। सचमुच! धन्य है उनकी तितिक्षा, कष्ट-सहिष्णुता, दृढ़-संकल्पशक्ति, धैर्यशीलता, आत्मनिष्ठा और अखंड साधनाशीलता।

 
भारतीय संस्कृति की भांति शिव परिवार में भी समन्वयकारी गुण दृष्टिगोचर होते हैं। वहां जन्मजात विरोधी स्वभाव के प्राणी भी शिव के प्रताप से परस्पर प्रेमपूर्वक निवास करते हैं। शंकर का वाहन बैल है तो पार्वती का वाहन सिंह, गणेश का वाहन चूहा है तो शिव के गले का हार सर्प एवं कार्तिकेय का वाहन मयूर है। ये सभी परस्पर वैरभाव को छोड़कर सहयोग एवं सद्भाव से रहते हैं। शिव परिवार का यह आदर्श रूप प्रत्येक परिवार एवं समाज के लिए ग्राह्य है। आज समाज एवं राष्ट्र में ऐसे ही सद्भाव, सौहार्द एवं समन्वय की आवश्यकता है। 
 

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