परशुराम जयंती पर विशेष : ब्राह्मण होने का अर्थ

- सुशील शर्मा 


 
 
ब्राह्मण होने का अधिकार सभी को है चाहे वह किसी भी जाति, प्रांत या संप्रदाय से हो, लेकिन ब्राह्मण होने के लिए कुछ नियमों का पालन करना होता है। 
 
प्रश्न यह उठता है कि ब्राह्मण कौन है? क्या वह जीव है अथवा कोई शरीर है अथवा जाति अथवा कर्म अथवा ज्ञान अथवा धार्मिकता है?
 
1. क्या धार्मिक, ब्राह्मण हो सकता है? यह भी सुनिश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता है; क्योंकि क्षत्रिय आदि बहुत से लोग स्वर्ण आदि का दान-पुण्य करते रहते हैं अत: केवल धार्मिक भी ब्राह्मण नहीं हो सकता है।
 
2. क्या कर्म को ब्राह्मण माना जाए? नहीं ऐसा भी संभव नहीं है; क्योंकि समस्त प्राणियों के संचित, प्रारब्ध और आगामी कर्मों में साम्य प्रतीत होता है तथा कर्माभिप्रेरित होकर ही व्यक्ति क्रिया करते हैं अत: केवल कर्म को भी ब्राह्मण नहीं कहा जा सकता है।

3. क्या ज्ञान को ब्राह्मण माना जाए? ऐसा भी नहीं हो सकता; क्योंकि बहुत से क्षत्रिय (राजा जनक) आदि भी परमार्थ दर्शन के ज्ञाता हुए हैं (होते हैं)।

4. क्या जाति ब्राह्मण है (अर्थात ब्राह्मण कोई जाति है)? नहीं, यह भी नहीं हो सकता; क्योंकि विभिन्न जातियों एवं प्रजातियों में भी बहुत से ऋषियों की उत्पत्ति वर्णित है।

5. क्या शरीर ब्राह्मण (हो सकता) है? नहीं, यह भी नहीं हो सकता। चांडाल से लेकर सभी मानवों के शरीर एक जैसे ही अर्थात पांचभौतिक होते हैं, उनमें जरा-मरण, धर्म-अधर्म आदि सभी समान होते हैं। ब्राह्मण- गौर वर्ण, क्षत्रिय- रक्त वर्ण, वैश्य- पीत वर्ण और शूद्र- कृष्ण वर्ण वाला ही हो।

6. जीव को ही ब्राह्मण मानें (कि ब्राह्मण जीव है) तो यह संभव नहीं है; क्योंकि भूतकाल और भविष्यतकाल में अनेक जीव हुए होंगे। उन सबका स्वरूप भी एक जैसा ही होता है। जीव एक होने पर भी स्व-स्व कर्मों के अनुसार उनका जन्म होता है और समस्त शरीरों में, जीवों में एकत्व रहता है इसलिए केवल जीव को ब्राह्मण नहीं कह सकते।
 
जो आत्मा के द्वैत भाव से युक्त न हो; जाति गुण और क्रिया से भी युक्त न हो; षड उर्मियों और षड भावों आदि समस्त दोषों से मुक्त हो; सत्य, ज्ञान, आनंदस्वरूप, स्वयं निर्विकल्प स्थिति में रहने वाला, अशेष कल्पों का आधार रूप, समस्त प्राणियों के अंतस में निवास करने वाला, अंदर-बाहर आकाशवत संव्याप्त; अखंड आनंद्वान, अप्रमेय, अनुभवगम्य, अप्रत्यक्ष भासित होने वाले आत्मा का करतल आमलकवत परोक्ष का भी साक्षात्कार करने वाला; काम-राग द्वेष आदि दोषों से रहित होकर कृतार्थ हो जाने वाला; शम-दम आदि से संपन्न; मात्सर्य, तृष्णा, आशा, मोह आदि भावों से रहित; दंभ, अहंकार आदि दोषों से चित्त को सर्वथा अलग रखने वाला हो, वही ब्राह्मण है; ऐसा श्रुति, स्मृति-पुराण और इतिहास का अभिप्राय है। 

 

 
इस (अभिप्राय) के अतिरिक्त अन्य किसी भी प्रकार से ब्राह्मणत्व सिद्ध नहीं हो सकता। आत्मा सत-चित और आनंद स्वरूप तथा अद्वितीय है। इस प्रकार ब्रह्मभाव से संपन्न मनुष्यों को ही ब्राह्मण माना जा सकता है। यही उपनिषद का मत है। जो समस्त दोषों से रहित, अद्वितीय, आत्मतत्व से संपृक्त है, वह ब्राह्मण है, क्योंकि आत्मतत्व सत्, चित्त, आनंद रूप ब्रह्म भाव से युक्त होता है इसलिए इस ब्रह्म भाव से संपन्न मनुष्य को ही (सच्चा) ब्राह्मण कहा जा सकता है।
 
देह शूद्र है, मन वैश्य है, आत्मा क्षत्रिय है और परमात्मा ब्राह्मण इसलिए ब्रह्म परमात्मा का नाम है। ब्रह्म से ही ब्राह्मण बना है। जन्म के साथ अपने को ब्राह्मण समझ लेना अज्ञान है। बुद्ध, जैनों के चौबीस तीर्थंकर, राम, कृष्ण; सब क्षत्रिय थे। क्यों? होना चाहिए सब ब्राह्मण, मगर थे सब क्षत्रिय, क्योंकि ब्राह्मण होने के पहले क्षत्रिय होना जरूरी है। भोग यानी शूद्र। तृष्णा यानी वैश्य। संकल्प यानी क्षत्रिय। और जब संकल्प पूरा हो जाए, तभी समर्पण की संभावना है। तब समर्पण यानी ब्राह्मण। ब्राह्मण वह है जो शांत, तपस्वी और यजनशील हो, जैसे वर्षपर्यंत चलने वाले सोमयुक्त यज्ञ में स्तोता मंत्र-ध्वनि करते हैं, वैसे ही मेंढक भी करते हैं। जो स्वयं ज्ञानवान हो और संसार को भी ज्ञान देकर भूले-भटकों को सन्मार्ग पर ले जाता हो, ऐसों को ही ब्राह्मण कहते हैं 
 
वयं राष्ट्रे जागृयाम पुरोहिताः। यजुर्वेद
 
ब्राह्मणत्व एक उपलब्धि है जिसे प्रखर प्रज्ञा, भाव-संवेदना, और प्रचंड साधना से और समाज की निःस्वार्थ अराधना से प्राप्त किया जा सकता है। ब्राह्मण एक अलग वर्ग तो है ही जिसमें कोई भी प्रवेश कर सकता है, बुद्ध क्षत्रिय थे, स्वामी विवेकानंद कायस्थ थे, पर ये सभी अति उत्कृष्ट स्तर के ब्रह्मवेत्ता ब्राह्मण थे। 'ब्राह्मण' शब्द उन्हीं के लिए प्रयुक्त होना चाहिए जिनमें ब्रह्मचेतना और धर्मधारणा जीवित और जाग्रत हो, भले ही वो किसी भी वंश में क्यूं न उत्पन्न हुए हों।
 
मनुस्मृति और ब्राह्मण 
 
मनुस्मृति जन्मना समाज व्यवस्था का कहीं भी समर्थन नहीं करती। महर्षि मनु ने मनुष्य के गुण, कर्म व स्वभाव पर आधारित समाज व्यवस्था की रचना कर के वेदों में परमात्मा द्वारा दिए गए आदेश का ही पालन किया है। (देखें- ऋग्वेद- 10.10.11-12, यजुर्वेद-31.10-11, अथर्ववेद-19.6.5-6)।
 
मनुस्मृति में वर्ण व्यवस्था को ही बताया गया है और जाति व्यवस्था को नहीं, इसका सबसे बड़ा प्रमाण यह है कि मनुस्मृति के प्रथम अध्याय में कहीं भी जाति या गोत्र शब्द ही नहीं है बल्कि वहां 4 वर्णों की उत्पत्ति का वर्णन है। यदि जाति या गोत्र का इतना ही महत्व होता तो मनु इसका उल्लेख अवश्य करते कि कौन सी जाति ब्राह्मणों से संबंधित है, कौन सी क्षत्रियों से, कौन सी वैश्यों और शूद्रों से।
 
इसका मतलब हुआ कि स्वयं को जन्म से ब्राह्मण या उच्च जाति का मानने वालों के पास इसका कोई प्रमाण नहीं है। ज्यादा से ज्यादा वे इतना बता सकते हैं कि कुछ पीढ़ियों पहले से उनके पूर्वज स्वयं को ऊंची जाति का कहलाते आए हैं। ऐसा कोई प्रमाण नहीं है कि सभ्यता के आरंभ से ही ये लोग ऊंची जाति के थे। जब वे यह साबित नहीं कर सकते तो उनको यह कहने का क्या अधिकार है कि आज जिन्हें जन्मना शूद्र माना जाता है, वे कुछ पीढ़ियों पहले ब्राह्मण नहीं थे? और स्वयं जो अपने को ऊंची जाति का कहते हैं वे कुछ पीढ़ियों पहले शूद्र नहीं थे?

 

ब्राह्मण के भेद- स्मृति-पुराणों में ब्राह्मण के 8 भेदों का वर्णन मिलता है- मात्र, ब्राह्मण, श्रोत्रिय, अनुचान, भ्रूण, ऋषिकल्प, ऋषि और मुनि। 8 प्रकार के ब्राह्मण श्रुति में पहले बताए गए हैं। इसके अलावा वंश, विद्या और सदाचार से ऊंचे उठे हुए ब्राह्मण 'त्रिशुक्ल' कहलाते हैं। ब्राह्मण को धर्मज्ञ विप्र और द्विज भी कहा जाता है।
 
पुराणों के अनुसार पहले विष्णु के नाभि कमल से ब्रह्मा हुए। ब्रह्मा का ब्रह्मर्षि नाम कर के एक पुत्र था। उस पुत्र के वंश में पारब्रह्म नामक पुत्र हुआ। उससे कृपाचार्य हुए। कृपाचार्य के दो पुत्र हुए। उनका छोटा पुत्र शक्ति था। शक्ति के 5 पुत्र हुए। उसमें से प्रथम पुत्र पाराशर से पारीक समाज बना। दूसरे पुत्र सारस्वएत से सारस्वयत समाज, तीसरे ग्वाकला ऋषि से गौड़ समाज, चौथे पुत्र गौतम से गुर्जर गौड़ समाज, पांचवें पुत्र श्रृंगी से उनके वंश शिखवाल समाजा, छठे पुत्र दाधीच से दायमा या दाधीच समाज बना। 
 
जन्म से ब्राह्मण होना संभव नहीं हैं। कर्म से कोई भी ब्राह्मण बन सकता है, यह भी उतना ही सत्य हैं। इसके कई प्रमाण वेदों और ग्रंथो में मिलते हैं, जैसे...
 
1. मातंग चांडाल पुत्र से ब्राह्मण बने।
2. वाल्मीकि चांडाल पुत्र से ब्राह्मण बने। 
3. रैदास ने शूद्र कुल में जन्म लेकर ब्राह्मणत्व प्राप्त किया। 
4. सत्यकाम जाबाल गणिका (वेश्या) के पुत्र थे, परंतु वे ब्राह्मणत्व को प्राप्त हुए।
5. क्षत्रिय कुल में जन्मे शौनक ने ब्राह्मणत्व प्राप्त किया। (विष्णुपुराण 4.8.1)
6. ऐतरेय ऋषि दास अथवा अपराधी के पुत्र थे, परंतु उच्च कोटि के ब्राह्मण बने और उन्होंने ऐतरेय ब्राह्मण और ऐतरेय उपनिषद की रचना की। ऋग्वेद को समझने के लिए ऐतरेय ब्राह्मण अतिशय आवश्यक माना जाता है।
 
ब्राह्मण के गुण एवं कर्म- अंतरंग में ब्राह्मण वृत्ति जागते ही बहिरंग में साधु प्रवृत्ति का उभरना स्वाभाविक है। ब्राह्मण अर्थात लिप्सा से जूझ सकने योग्य मनोबल का धनी। प्रलोभनों और दबावों का सामना करने में समर्थ। औसत भारतीय स्तर के निर्वाह में काम चलाने से संतुष्ट। 
 
स्मृति ग्रंथों में ब्राह्मणों के मुख्य 6 कर्तव्य (षट्कर्म) बताए गए हैं- 1. पठन, 2. पाठन, 3 यजन, 4. याजन, 5. दान, 6. प्रतिग्रह।
 
शतपथ ब्राह्मण में ब्राह्मण के कर्तव्यों की चर्चा करते हुए उसके अधिकार इस प्रकार कहे गए हैं- 1. अर्चा 2. दान 3. अजेयता 4. अवध्यता। 
 
ब्राह्मण के कर्तव्य इस प्रकार हैं- 1. 'ब्राह्मण्य' (वंश की पवित्रता), 2. 'प्रतिरूपचर्या' (कर्तव्यपालन) 3. 'लोकपक्ति' (लोक को प्रबुद्ध करना)
 
ब्राह्मण के 9 गुण- 1. सम, 2. दम, 3. तप, 4. शौच, 5. क्षमा, 6. सरलता, 7. ज्ञान, 8. विज्ञान, 9. आस्तिकता
 
ब्राह्मण के 16 संस्कार- 1. ऋतु स्नान, 2. गर्भाधान, 3. सुती स्नान, 4. चंद्रबल, 5. स्तन पान, 6. नामकरण, 7. जात कर्म, 8. अन्नप्राशन, 9. तांबूल भक्षणम, 10. कर्ण भेद (कान छेदना), 11. चूड़ाकर्म, 12. मुंडन, 13. अक्षर आरंभ, 14. व्रत बंद (यज्ञोपवीत), 15. विद्यारंभ और 16 विवाह। 
 


ब्राह्मणों के संरक्षक महर्षि परशुराम 
 

 

 
जब भृगुवंशी महर्षि जमदग्नि-पत्नी रेणुका के गर्भ से परशुराम का जन्म हुआ। यह वह समय था, जब सरस्वती और हषद्वती नदियों के बीच फैले आर्यावर्त में युद्ध और पुरु, भरत और तृत्सु, तर्वसु और अनु, द्रह्यू और जन्हू तथा भृगु जैसी आर्य जातियां निवासित थीं, जहां वशिष्ठ, जमदग्नि, अंगिरा, गौतम और कण्डव आदि महापुरुषों के आश्रमों से गुंजरित दिव्य ऋचाएं आर्य धर्म का संस्कार-संस्थापन कर रही थीं। 
 
लेकिन दूसरी ओर संपूर्ण आर्यावर्त नर्मदा से मथुरा तक शासन कर रहे हैहयराज सहस्रार्जुन के लोमहर्षक अत्याचारों से त्रस्त था। ऐसे में युवावस्था में प्रवेश कर रहे परशुराम ने आर्य संस्कृति को ध्वस्त करने वाले हैहयराज की प्रचंडता को चुनौती दी और अपनी आर्यनिष्ठा, तेजस्विता, संगठन-क्षमता, साहस और अपरिमित शौर्य के बल पर वे विजयी हुए।
 
परशुरामजी वैदिक और पौराणिक इतिहास के सबसे कठिन और व्यापक चरित्र हैं। उनका वर्णन सतयुग के समापन से कलियुग के प्रारंभ तक मिलता है। इतना लंबा चरित्र, इतना लंबा जीवन किसी और ऋषि, देवता या अवतार का नहीं मिलता। वे चिरंजीवियों में भी चिंरजीवी हैं। उनकी तेजस्विता और ओजस्विता के सामने कोई नहीं टिका। न शास्त्रास्त्र में और न शस्त्र-अस्त्र में।
 
वे अक्षय तृतीया को जन्मे हैं इसलिए परशुराम की शस्त्र-शक्ति भी अक्षय है और शास्त्र-संपदा भी अनंत है। विश्वकर्मा के अभिमंत्रित दो दिव्य धनुषों की प्रत्यंचा पर केवल परशुराम ही बाण चढ़ा सकते थे। यह उनकी अक्षय शक्ति का प्रतीक था यानी शस्त्र-शक्ति का 'परशु' प्रतीक है पराक्रम का। 'राम' पर्याय है सत्य सनातन का। इस प्रकार परशुराम का अर्थ हुआ पराक्रम के कारक और सत्य के धारक। वे शक्ति और ज्ञान के अद्भुत पुंज थे। 
 
परशुरामजी के प्रथम गुरु महर्षि विश्वामित्र ही थे जिन्होंने परशुरामजी को बचपन में शस्त्र संचालन की शिक्षा दी थी। महर्षि विश्वामित्रजी ने परशुरामजी को यह शिक्षा तब दी थी, जब विश्वामित्र महर्षि नहीं बने थे, वे तब तक गद्दी पर भी नहीं बैठे थे, केवल युवराज थे। 
 
कहने का आशय यह है कि परशुरामजी की वंश-परंपरा में ब्राह्मणों और क्षत्रियों में कोई भेद नहीं था। उनकी कुल परंपरा में ऋषियों और राजकन्याओं के बीच इतने विवाह-संबंध स्थापित हुए कि यह वर्गीकरण करना मुश्किल है कि कौन ब्राह्मण था और कौन क्षत्रिय। बावजूद इसके, कुछ लोग यह प्रचार करते हैं कि परशुरामजी ने क्षत्रियों के विरुद्ध अभियान छेड़ा और धरती को क्षत्रियविहीन करने का संकल्प लिया। यह प्रचार एकदम असत्य, झूठा और भारतीय समाज में वैमनस्य पैदा करने वाला है।
 
परशुराम ज्ञानार्जित वचन और पराक्रम दोनों से अपने विरोधी को श्रीहीन करने में पूर्णतया समर्थ थे। अतीत में एक लंबे समय तक चलने वाले देश के आंतरिक युद्ध के नायक थे परशुराम और इसलिए कई युगों तक उनका प्रभाव बना रहा। यह संभवत: वही दीर्घकालिक युद्ध था जिसमें कभी क्षत्रिय विश्वामित्र और महामुनि वशिष्ठ भी भिड़े थे और विश्वामित्र अकस्मात कह पड़े थे...
 
धिग बलम क्षत्रिय बलम ब्रह्म तेजो बलम बलम 
एकेन ब्रह्मदण्डेन सर्वस्त्राणि हतानि मे 
 
(वाल्मीकि रामायण) 
 
परशुरामजी का चरित्र भले ही पौराणिक हो, मगर उस चरित्र को सफल रूप में प्रस्तुत करना हमारी संस्कृति और सामाजिक स्वरूप के लिए नितांत आवश्यक है। आज यहां के जन्मना ब्राह्मण परशुराम को अपनी जाति का गौरव एवं शौर्य का प्रतीक माने हुए हैं, मगर उन्हें ऐसे महान नायक के गुणों का भी समावेश अपने में करना होगा। वर्तमान परिप्रेक्ष्य में इस महान व्यक्तित्व का आह्वान निश्चय ही मानव जाति के लिए कल्याणकारी होगा।


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