जावरा की हुसैन टेकरी का इतिहास

Shruti AgrawalWD
जावरा के नवाब मोहम्मद इस्माईल अली खाँ की रियासत में दशहरा और मोहर्रम एक ही दिन आया। जुलूस निकालने के लिए दोनों कौमों में झगड़ा होने लगा। तब नवाब ने तय किया कि वे दशहरे के जुलूस में शामिल होंगे और मोहर्रम का जुलूस दशहरे के जुलूस के बाद में निकाला जाएगा।

इस बात से ताजियेदार नाराज हो गए और जुलूस आधा-अधूरा निकला। उसके अगले दिन हीरा नामक औरत ने देखा कि हुसैन टेकरी की जगह कई रूहानी लोग वुजू कर मातम मना रहे हैं। हीरा ने यह बात नवाब को बताई।

नवाब ने ताजियों को फिर से बनवाया और पूरी शानो-शौकत से जूलूस निकाला। जब जुलूस हुसैन टेकरी पहुँचा तो सभी को रूहानी सुकून देने वाली खुशबू का अहसास हुआ। नवाब ने जितनी जगह से खुशबू आ रही थी, उसे रेखांकित कर एक दायरे में महफूज़ कर दिया। इसी जगह पर यकायक एक चश्मा भी निकलने लगा।

बाद में लोगों ने महसूस किया इस चश्मे का पानी पीने से बीमारियाँ दूर हो जाती हैं। फिर धीरे-धीरे यह बात फैलने लगी कि यहाँ बदरूहों से छुटकारा मिल जाता है। फिर क्या था, यहाँ हर गुरुवार को लोगों का मेला लगने लगा। मोहर्रम के चालीसवें दिन और होलिका दहन के समय यहाँ होने वाले मेले में हजारों लोग शरीक होते हैं। यूँ देखा जाए तो यह टेकरी हिंदू-मुस्लिम एकता की मिसाल है।

हुसैन टेकरी का आँखों देखा हाल

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