हिमालय के चमत्कारिक महात्मा की रहस्यमय दास्तां

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प्राकृतिक व्यतिक्रम से ही रोग उत्पन्न होते हैं। तथा समानुपातन से उनका निदान भी हो जाता है। यह एक शाश्वत एवं स्वयं सिद्ध नियम है। यह केवल शास्त्र या पुराणों का ही कथन नहीं है। जब भी नैसर्गिक संचरण में भेद पैदा होगा, कोई न कोई अनपेक्षित या कृत्रिम घटना-दुर्घटना जन्म लेगी ही। इसी बात या तह को कोई बहुत पढ़कर समझता है। तथा कोई प्रकृति की गोद में बैठ निरंतर अनुभव के द्वारा संग्रहीत करता है।

ऊधमपुर (जम्मू) से लगभग सौ किलोमीटर की दूरी पर स्थित एक स्थान है जिसे शिवखेरी के नाम से जाना जाता है। यहां पर भगवान शिव का एक बहुत पुराना स्थान है। यह बहुत ही दुर्गम स्थान पर है। इसमें जाना सबके बस की बात नहीं है। फिर भी यहां पर श्रद्धालुओं की भारी भीड़ जमा होती है। जम्मू से सीधे यहां के लिए बस सेवा है। चाहे जो भी हो, यह एक अति मनोरम स्थान है।

शिवखेरी से लगभग सात किलोमीटर पहले मुख्य रास्ते से पश्चिमोत्तर दिशा में एक स्थान है देवजल। बिल्कुल संकरी चतुर्दिक सघन पहाड़ियों से घिरा चीड़ एवं देवदार के घने वृक्षों से ढका यह स्थान बड़ा ही डरावना दीख पड़ता है। वैसे भी यहां पर घूमने जाना वर्जित है। क्योकि यहां बड़े बड़े बाघ एवं भालू जैसे हिंसक जीव पाए जाते हैं।

इन पहाड़ियों के बीच में एक बिल्कुल खाली एवं साफ सुथरा लगभग पचासों एकड़ में फैला स्थान है। बिल्कुल सपाट एवं समतल स्थान है। यहां तक पहुंचने के लिए एक अति संकरी पगडंडी जो पहाड़ियों के बीच से होकर पेड़ो एवं घनी झाड़ियों से गुजराती है, उसी से आना होता है।

सुगंध से ही पता चलता है इस स्थान पर महात्मा जी आने वाले हैं,

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प्रत्येक माह के शुक्ल पक्ष की दशमी एवं कृष्ण पक्ष की अष्टमी को एक महात्मा जी यहां आते हैं। कभी कभी नहीं भी आते हैं। मैंने कई बार कोशिश की, लोगों के साथ जाता था लेकिन निराश होकर लौटना पड़ता था। किन्तु एक बार दर्शन हो ही गए।

नाम मात्र के वस्त्र शरीर पर, रंग बिल्कुल काला, आंखे बड़ी-बड़ी बहुत ही चमकदार एवं तीव्र वेधन क्षमता वाली रोशनी से भरी हुई, बड़ी बड़ी दाढी मूंछें, लगभग सात फिट से भी ज्यादा लम्बाई, पूरे शरीर पर कोई बहुत ही खुशबूदार भस्म लपेटे हुए, बहुत ही भद्दी-मोटी शरीर की चमड़ी किन्तु चेहरे पर साहस, सफलता एवं खुशी का ओज।

एक सफेद चट्टान जो मैदान के एक किनारे पर एक बड़े चिनार जैसे बड़े चपटे पत्तों वाले पेड़ के नीचे था, उसी पर बैठ जाते थे। किसी से डोगरी भाषा में, किसी से पश्तों तथा किसी से हिंदी में बाते बड़ी आसानी से करते हैं।

एक चमड़े की झोली उनके कंधे पर लटकी रहती है। लोग कहते थे कि हर बार उनकी झोली बदल जाती है। मुझे लगता था कि वह किसी जानवर के ताजा चमड़े से बनी झोली थी। वह कहां से और किस रास्ते से आते हैं, किसी ने नहीं देखा है।

ऐसा सुनने में आया है कि उसी मैदान में किसी किनारे से एक सुरंग निकलती है जो जम्मू में बड़ीब्रह्मणा नामक जगह पर खुलती है। मान्यता है कि जाम्बवंत जी इसी सुरंग से आते जाते थे।

खैर मैंने सुरंग नहीं देखी, किन्तु उनके आने जाने को कोई नहीं देख पाता है। केवल सुगंध से ही पता लगता है कि अब महात्मा जी आने वाले हैं। वहां पर लाइन लगाने की जरूरत नहीं है। चाहे आप कहीं भी बैठे, वह जरूरतमंद को दूर से भी बुला लेते हैं।

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लेकिन एक बात आज भी प्रत्यक्ष है कि उस सौ किलोमीटर की दूरी में कोई भी व्यक्ति दमा, टीबी, गठिया, संधिवात, कुष्ठ, आमवात या किसी अस्थि रोग से पीड़ित नहीं है। महात्मा बहुत ही अचूक औषधि वह प्रदान करते हैं। एक रोग के लिए एक दिन में वह मात्र तीन या चार रोगी को ही दवा देते हैं। अर्थात गठिया के चार रोगी, कुष्ठ के चार रोगी आदि।

मैंने पूछा भी था, किन्तु उन्होंने बड़ी सौम्यता से उत्तर दिया कि इतनी ही औषधि वह एकत्र ही कर पाते हैं। उनको यह बताने की आवश्यकता नहीं है कि कौन दूर से आया है तथा कौन फिर दोबारा या तिबारा भी आ सकता है। इसीलिए लोग परस्पर झगड़ा भी नहीं करते हैं। क्योंकि चाहे कितना भी परस्पर वाद विवाद कर लो, उन्हें जिसको औषधि देनी होगी, उसे ही वह देंगे। चाहे कोई कुछ भी कर लें।

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लोग बताते हैं कि एक बार शेख अब्दुल्ला जो वहां के मुख्यमंत्री थे, अपने किसी रिश्तेदार को लेकर आए। उस दिन वह महात्मा आए ही नहीं। लगभग चार-पांच बार ऐसा हुआ, किन्तु वह महात्मा नहीं आए।

लोगों को लगा कि शायद उन्हें किसी हिंसक जानवर ने मार डाला। सात महीने बाद वह फिर दिखाई दिए। लोग आने-जाने लगे। फिर शेख अब्दुल्ला पहुंचे। किन्तु वह उस दिन नहीं आए। ऐसा कई बार हुआ। अंत में लोगों ने महात्मा जी से इसका कारण पूछा।

उन्होंने बताया कि यदि कोई लाव लस्कर के साथ उनके पास आएगा तो वह नहीं आएंगे। कुछ आतंकवादियों ने वहां अपना डेरा बनाना चाहा। किन्तु सभी बारी-बारी मरते रहे। इसीलिए डर के मारे उस पहाड़ी की तरफ आतंकवादी भी नहीं जाते हैं। अंत में शेख अब्दुल्ला की रिश्तेदार वह महिला अन्य लोगों के साथ पैदल चलकर वहां पहुंची तथा औषधि लेकर गई।

एक चमत्कार से बदल गई महिला द्वारा महात्माजी को दी गई भेंट....पढ़ें अगले पेज पर


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उस महिला ने महात्माजी के उस बैठने वाले चट्टान को हटवा कर वहां पर ग्यारह कुंतल वजन के चांदी का बहुत ही नक्काशीदार आसन बनवा कर रखवाया। किन्तु महात्मा जी के बैठते ही वह काले मिट्टी में बदल गया।

उन्होंने लोगों से उसे हटाने को कहा। लोग हटाने लगे तो वह टूटकर रेत की तरह बिखर गया। फिर महात्माजी ने अकेले उतने बड़े भारी पत्थर को जिस पर वह बैठते थे, धकेल कर वही पर लाए जहां पर वह पहले बैठते थे और फिर उसी पर बैठने लगे।

संभवतः अभी भी वह आते हैं, लेकिन किस महीने आएंगे, यह ठीक पता नहीं है। मैंने उनसे इसका भी कारण पूछा तो उन्होंने बताया कि अभी औषधियां बहुत कम मिल रही है तथा लोग अब दुर्लभ औषधियों की काला बाजारी भी करने लगे हैं। उन्होंने यह बात अच्छी तरह समझ ली थी कि मैं कोई मरीज नहीं बल्कि उत्सुकतावश केवल जानकारी लेने के लिए गया हुआ था।

ऐसे कौन-सी जड़ी है जिससे हड्डी जुड़ जाती थी... आगे पढ़े


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महात्माजी झोली में ढेर सारी जड़ी-बूटियां भर कर लाते थे। किन्तु उन्होंने बता रखा था कि उनके पास श्वसन तथा अस्थि तंत्र के अलावा अन्य किसी भी व्याधि की औषधि नहीं है। फिर भी लोग अंधश्रद्धा एवं विश्वास के कारण नई व्याधियों से ग्रसित होने पर भी जाते ही थे।

आपको संभवतः यह जानकर और आश्चर्य होगा कि जम्मू तथा जम्मू से सटे किसी भी शहर या नगर के किसी भी अस्पताल में श्वसन या हड्डी के रोग से संबधित कोई भी मरीज नहीं मिलेगा। मैंने तो बहुत खोजा। किन्तु कहीं कोई मरीज नहीं मिला। बस वही आदमी भूले भटके इन अस्पतालों में चला जाएगा जो इस महात्मा के बारे में नहीं जानता हो। या फिर उस बीहड़ में जाने से डरता हो। या फिर वातानुकूलित जगह को छोड़ना नहीं चाहता हो।

महात्मा जी ने जो जडी-बूटियां कुछ मरीजों को दी थी, उन्हें मैंने देखा तो बहुत ज्यादा तो नहीं पहचान सका किन्तु ऐसा लगा कि भावार्थ रत्नाकर एवं शारंगधर संहिता में जो जड़ी-बूटियां बताई गई है, वे ही है। थोड़ा-बहुत अंतर दिखाई दे रहा था।

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जैसे डिडबेहडा- कहा जाता है कि यदि घोड़े की भी टांग टूट गई हो, तथा एक दिन से ज्यादा का विलंब नहीं हुआ हो तो इसे हल्दी के साथ पीस कर लगा देने से वह हड्डी तो जुड़ ही जाती है। अगले दिन वह घोड़ा फिर दौड़ने के लिए पूरी तरह तैयार होता है।

फिर दूसरा बघमकोय- सुश्रुत ने बघमकोय को रक्त रोग के लिए रामबाण बताया है। उन्होंने तो इसके बारे में यहां तक कह दिया है कि यदि बघमकोय से कुष्ठ रोग ठीक नहीं हुआ तो चाहे शुक्राचार्य या अश्विनीकुमार ही क्यों न चिकित्सा करें, वह ठीक नहीं हो सकता।

फिर तीसरा शीतलपाटी- बृहतसंहिता में कहा गया है कि जिस किसी कन्या को कुंडली में विषघात, विषकन्या या वैधव्य योग हो, या आर्द्रोपेत कणिकाओं जिसे आधुनिक चिकित्सा विज्ञान संभवतः अनुमान के सहारे स्यूडाफेड्रीलरी सेल्स कहता है, बेतरतीब अनियमित हो गई हो, या देहातों या ग्रामीण आंचल में कहते हैं कि किसी दुर्योग के कारण जब किसी लड़की की शादी नहीं हो पाती है तो इस झाड़ी के मूल, छिलके एवं पत्तियों के रस के विविध प्रयोग से अचूक सफलता मिलती है।

इसी शीतल पाटी वनस्पति से वर्तमान समय में 'साराभाई केमिकल्स' नाम की गुजरात स्थित दवा कंपनी अत्यंत महंगा कैप्सूल संभवतः उसका नाम 'ब्लेंटाडीन' है बनाती है। जो एक कैप्सूल लगभग सात हजार रुपए से भी ज्यादा का मिलता है।

मैंने महात्माजी से यह प्रार्थना की कि यदि यह औषधि सरकार बनाए तो इस पर और ज्यादा शोध होकर ज्यादा से ज्यादा लोगों के लिए प्रयुक्त हो सकती है। बहुत ही सोच कर एवं गंभीर मुद्रा में उन्होंने उत्तर दिया कि यदि इसे आज सरकार जान जाए तो इन गरीबों का क्या होगा जो सरकारी या बड़े-बड़े चिकित्सालयों का भारी-भरकम खर्च न उठा सकते हो? मैं निरूत्तर हो गया।

क्यों कैमरे में कैद नहीं हो पाता था महात्माजी का फोटो...अगले पन्ने पर पढ़‍िए


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आश्चर्य तब हुआ जब मैंने उनसे उनका फोटो खींचने का आग्रह किया। तो उन्होंने मंजूरी तो दे दी, किन्तु यह बता दिया कि शरीर पर लगे खुशबूदार भस्म पदार्थ के कारण उनका फोटो नहीं आ सकता। और बात भी सही थी, कोई फोटो नहीं आया।

मैं अपनी नौकरी की मजबूरी के कारण फिर दोबारा न जा सका, या फिर इसलिए भी नहीं प्रयत्न किया कि बार-बार इतना पैसा क्यों एवं कहां से खर्च करूं?

मैं ठहरा एक निश्चित वेतन पर काम करने वाला सरकारी नुमाइंदा। इसलिए फिर दोबारा उधर जाना नहीं हुआ। किन्तु इतना निश्चित है कि वह महात्मा कुछ विशेष प्राकृतिक जड़ी-बूटियों के बहुत ही उत्कृष्ट जानकार थे। जैसे उस सुगंध की ऐसी कौन-सी विशेषता थी कि उनके शरीर से टकरा कर आने वाली किरणें कैमरे में नहीं आ पाती थीं?

मैंने उस स्थान का कुछ चित्र ले रखा है। किन्तु मेरे सिम कार्ड में मात्र कुछ एमबी यूसेज ही बचा हुआ है। इसलिए मैं इन्हें अपलोड नहीं कर पा रहा हूं।

मैं वर्ष 2003-2004 में जम्मू में पोस्टेड था। तो तीन चार बार उनके दर्शन हुए। मेरे साथ काम करने वाले कुछ एक लोगों को उनकी औषधि से अचूक लाभ भी हुआ। जो सैनिक चिकित्सालय में कई वर्षों से चिकित्सा करा रहे थे। किन्तु सेना की नौकरी में इतनी छुट्टी कहां मिलती है?

इसलिए मैं फिर उसके बाद वहां नहीं जा सका। किन्तु फिर भी शिवखेरी के मेले में आज भी लोग कोने-कोने से जाते रहते हैं। तथा उस संकरी गुफा में बड़ी ही कठिनाई से प्रवेश कर आशुतोष भगवान भोलेनाथ का दर्शन कर उनका कृपा प्रसाद प्राप्त कर अधिभौतिक एवं अधिदैविक विपदाओं से त्राण पाते रहते हैं।

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