यात्रा वृत्तांत : आस्था और श्रद्धा का प्रतीक है देवघर

संजय सिन्हा 
यूं तो पूरा भारत ही आस्था श्रद्धा और विश्वास का एक मुख्य केंद्र है। यहां मंदिरों, मस्जिदों, गुरुद्वारों और गिरजाघरों के ऐतिहासिक भवन व स्थल हैं जहां साल भर सैलानियों और श्रद्धालुओं का तांता लगा रहता है। इसी क्रम में अगर देवघर का नाम लिया जाए तो अनायास ही मन श्रद्धा एवं भक्तिभाव से भर जाता है।
झारखंड स्थित देवघर का नाम आज विश्व-फलक पर अंकित है। यहां का सबसे महत्वपूर्ण एवं महान आस्था का केंद्र है वैद्यनाथ मंदिर। भगवान शंकर का यह मंदिर ऐतिहासिक तो है ही, यहां के चप्पे-चप्पे में एक अद्भुत आकर्षण है। इसी आकर्षण और आस्था से वशीभूत होकर मैं निकल पड़ा देवघर  की यात्रा पर। यह यात्रा मेरे लिए एक आम यात्रा न होकर उल्लेखनीय एवं यादगार यात्रा बन गई।
 
जसीडीह रेलवे स्टेशन पहुंचकर मैं सीधे निकल पड़ा देवघर के वैद्यनाथ मंदिर की ओर। स्टेशन से मंदिर जाने के लिए टैक्सी और ऑटोरिक्शा की व्य्वस्था है। इनके सहारे आप आसानी से मंदिर तक पहुंच सकते हैं।
 
वैद्यनाथ मंदिर
देवघर का वैद्यनाथ मंदिर विश्वप्रसिद्ध तीर्थ-स्थल है। पूजा-सामग्रियों से भरी दुकानों को पार करते हुए शिव मंदिर के मुख्य-द्वार पर पहुंचते ही तन-मन में एक   असीम श्रद्धा का संचार होने लगता है। इसी असीम श्रद्धा से वशीभूत होकर मैंने अंदर की तरफ कदम बढ़ाया तो देखा कि मंदिर में भक्ति भाव की अद्भुत गंगा बह रही है। इसी बीच शीश झुकाकर मैंने मंदिर परिसर में मौजूद भोले बाबा सहित समस्त देवताओं को प्रणाम किया। इसके बाद मुझे मिल गए मंदिर के ही एक पुजारी। पुजारियों को यहां 'पंडा' कहते हैं। मंदिर के आस-पास पंडा परिवारों की काफी आबादी है। ये लोग मंदिर की सेवा में लगे रहते हैं। पंडा जी ने बताया कि इस मंदिर कि महिमा अपरंपार है। यहां अगर सच्चे दिल से कुछ मांगेंगे तो ईश्वर की कृपा से जरूर पूरी होती है।
इस मंदिर को वैद्यनाथ धाम के नाम से भी जाना जाता है। चूंकि यहां भगवान शिव के अलावा समस्त देवताओं का वास है, इसलिए इसे 'देवघर' का नाम दिया गया है। यहां ज्योतिर्लिंग स्थापित है, इस कारण इस स्थान का विशेष महत्व भी है। इस लिंग को श्रद्धालु 'कामना लिंग' कहकर भी बुलाते हैं। ऐसी मान्यता है कि यहां हर मनोकामना पूरी होती है। पंडा जी ने बताया कि यह ज्योतिर्लिंग वास्तव में सिद्धपीठ है।
 
कैसे हुई ज्योतिर्लिंग की स्थापना?
देवघर के ज्योतिर्लिंग यानी सिद्धपीठ की स्थापना को लेकर एक रोचक इतिहास है। कहा जाता है कि शिव को प्रसन्न करने हेतु राक्षसराज रावण हिमालय पहुंचे और घोर तपस्या में लीन हो गए। घोर तपस्या के बाद राक्षसराज रावण ने अपने नौ मस्तक शिवलिंग पर चढ़ा डाले तो दयालु भोलेबाबा प्रकट हो गए और दसवां सिर काटने से रोकते हुए कहा - 'बस करो वत्स! तुम्हारी घोर तपस्या और भक्ति-भाव से मैं अत्यंत प्रसन्न हूं। 'भगवन शिव के इतना बोलते ही रावण के सारे कटे सिर पुनः जुड़ गए और वह पहले की तरह हो गए। उन्होंने कहा - 'प्रभु, मैं हिमालय में स्थापित आपके इस लिंग को लंका ले जाकर स्थापित करना चाहता हूं। 'इसपर भोलेबाबा ने रावण को शिवलिंग लंका ले जाने की आज्ञा दे तो दे दी लेकिन एक चेतावनी भी दे डाली कि - 'इस शिवलिंग को यदि मार्ग में कहीं रख दिया गया तो यह वहीं अचल हो जाएगा। फिर चाह कर भी इसे कहीं और ले जाना मुश्किल होगा। 
 
रावण शिवलिंग लेकर चल पड़े। रास्ते में रावण को लघुशंका का एहसास हुआ तो उन्होंने शिवलिंग एक ग्वाले को थमा दी और खुद लघुशंका के लिए चले गए। दरअसल यह स्थान एक चिताभूमि थी। रावण को लघुशंका से लौटते-लौटते काफी देर हो गई। इधर ग्वाले ने शिवलिंग को भूमि पर रख दिया। वापस आकर रावण ने शिवलिंग को उखाड़ने का हर संभव प्रयास किया, मगर शिवलिंग टस-से-मस नहीं हुआ। रावण निराश हो गए। उन्होंने शिवलिंग पर अपना अंगूठा गड़ाया और थक-हार कर लंका चले गए। इधर देवताओं ने आकर शिवलिंग की पूजा-अर्चना की और उसे वहीं पूरे विधि-विधान के साथ प्रतिस्थापित कर दिया। इसके बाद शिव की स्तुति करते हुए सभी स्वर्ग को चले गए। यही स्थान आज देवघर है।

ऐसी मान्यता है कि यहां साक्षात् शिव हैं, इसलिए यहां आकर शिव की आराधना और जलाभिषेक करने से हर मनोकामना पूरी होती है। यही वजह है कि सिर्फ श्रावण माह में ही नहीं, बल्कि साल भर यहां शिव-भक्तों और श्रद्धालुओं का तांता लगा रहता है। यहां भोले बाबा का भव्य मंदिर है और पास ही मां पार्वती सहित अनेक देवी-देवताओं के मंदिर भी हैं, लेकिन सबसे प्राचीन शिव-मंदिर ही है। प्रत्येक वर्ष यहां श्रावणी-मेला लगता है जिसमें देश के कोने-कोने से श्रद्धालु 'बोल-बम' का नारा लगाते हुए पहुंचते हैं एवं ज्योतिर्लिंग पर जलाभिषेक करते हैं।

श्रद्धालुओं की कांवड़-यात्रा 
सावन का पवित्र महीना शुरू होते ही श्रद्धालु बाबा के दर्शन को यहां पहुंचने लगते है। ज्यादातर श्रद्धालु कांवड़ लेकर यहां तक आते हैं। इनकी पवित्र यात्रा शुरू होती है सुल्तानगंज से। श्रद्धालु गंगा-जल लेकर पैदल देवघर के लिए 'बोल-बम' के नारे के साथ प्रस्थान करते हैं। कांवर में जल लेकर चलते समय यह ध्यान रखा जाता है कि पात्र भूमि से न सटे। सौ किलोमीटर की कठिन यात्रा के बाद कांवड़िए देवघर पहुंचते हैं और यहां शिवलिंग पर जलाभिषेक करते हैं। इस दौरान श्रद्दालुओं के पांवों में छाले पड़ जाते हैं, लेकिन जलाभिषेक के बाद असीम शांति मिलती है और श्रद्धालु अपना दर्द भूल जाते हैं।
 
प्रत्येक वर्ष सावन के महीने में यहां श्रावण-मेले का आयोजन किया जाता है, जिसमें दूर-दूर से श्रद्धालु अपनी मनोकामनाएं लेकर पहुंचते हैं। मंदिर के निकट एक तालाब भी है, जो आकर्षण का केंद्र है।
 
वैद्यनाथ धाम में पंचशूल की पूजा की जाती है। दरअसल भारत में 12 ज्योतिर्लिंग है जिनमें देवघर स्थित वैद्यनाथ मंदिर भी शामिल है। आमतौर पर विश्व के सभी शिव मंदिरों के ऊपर त्रिशूल लगा रहता है, मगर यहां त्रिशूल की बजाए आपको शिव मंदिर के शीर्ष पर पंचशूल दिखेगा। सिर्फ शिव भगवन ही नहीं बल्कि आस-पास के सभी मंदिरों के ऊपर पंचशूल लगे हैं। पुजारी ने बताया कि महाशिवरात्रि से 2 दिनों पहले सभी मंदिरों से पंचशूल उतारे जाते हैं और इसे स्पर्श करने के लिए श्रद्धालुओं का तांता लगा रहता है। कहते हैं इस पांचल का स्पर्श भी अपने आप में काफी अद्भुत है।

इसी दौरान पंचशूलों की पूजा पुरे विधि-विधान से की जाती है। इसके बाद सभी पंचशूलों को यथास्थान लगा दिया जाता है। इस बीच भगवन शिव एवं पार्वती मंदिर के गठबंधन को बदल दिया जाता जाता है। मंदिर में प्रवेश करते ही आप देख सकते हैं शिव और पार्वती मंदिर के गठबंधन को। दूर से ही यह नजारा भक्तों को मंत्रमुग्ध करता है। हर वर्ष महाशिवरात्रि के दिन यह गठबंधन बदला जाता है। पुराने गठबंधन के कपड़े का एक छोटा-सा अंश प्राप्त करने के लिए भी भक्तों की भीड़ लगी रहती है। कहा जाता है कि इसे घर में रखने से सुख-शांति और समृद्धि बनी रहती है।
 
वैद्यनाथ-धाम नाम के पीछे भी एक कारण है। दरअसल जब रावण शिवलिंग को लेकर हिमालय से लंका की ओर जा रहे थे तभी रस्ते में उन्हें लघुशंका लगी और उन्होंने शिवलिंग को एक चरवाहे को पकड़ा दिया और स्वयं लघुशंका के लिए चले गए। काफी देर होने पर भी जब रावण नहीं लौटे तो चरवाहे ने शिवलिंग को भूमि पर रख दिया। इसके बाद शिवलिंग वहीं स्थापित हो गया। उस चरवाहे का नाम वैद्यनाथ था लिहाजा यह स्थान वैद्यनाथ धाम के नाम से प्रचलित हुआ।
 
वैद्यनाथ-मंदिर से पश्चिम दिशा में तीन और मंदिर भी हैं। बैजू मंदिर के नाम से प्रसिद्ध ये मंदिर देवघर बाजार में हैं। यहां तक आसानी से पहुंचा जा सकता है। यहां के तीनों मंदिरों में शिवलिंग स्थापित किया गया है। बताया जाता है वैद्यनाथ मंदिर के पुजारियों के पूर्वजों ने ही इन मंदिरों की स्थापना की थी।
 
बासुकीनाथ मंदिर 
देवघर जाकर अगर वैद्यनाथ मंदिर के बाद बासुकीनाथ मंदिर का दर्शन नहीं किया तो आपकी यात्रा बेकार है। देवघर के वैद्यनाथ मंदिर से महज़ 42 किलोमीटर दूर स्थित है यह मंदिर। इस मंदिर तक पहुंचने  के लिए बसें एवं चारपहिया वाहन भी उपलब्ध हैं। वाहन की मदद से बासुकीनाथ बाबा के भव्य मंदिर तक पहुंचा जा सकता है। इस मंदिर की छटा भी काफी निराली है। यहां आकर चित्त को असीम शांति मिलती है। जरमुंडी गांव के समीप स्थित इस मंदिर में आप बासुकीनाथ बाबा का दर्शन कर सकते हैं। साथ ही कई और देवताओं की मनोहारी मूर्तियां यहां विद्यमान हैं। आप-पास कई छोटे-बड़े मंदिर हैं। इस मंदिर के इतिहास को नोनिहाल के घाटवाल से जोड़ा जाता है।
 
नवलखा मंदिर 
देवघर के बाहरी हिस्से में स्थित नवलखा मंदिर भी इस शहर का अभिन्न अंग है। राधाकृष्ण को समर्पित इस मंदिर का निर्माण रानी चारुशीला ने करवाया था। मंदिर का कलेवर काफी आकर्षक है। उत्कृष्ट वास्तु एवम स्थापत्य कला का अद्भुत नमूना है यह मंदिर। कहा जाता है कि इसे रानी चारुशीला ने बालानंद ब्रह्मचारी के एक शिष्य के साथ मिलकर नौ लाख रूपए की लागत से बनवाया था। वैद्यनाथ मंदिर से महज डेढ़ किलोमीटर दूर नवलखा मंदिर वेलूर के रामकृष्ण मंदिर से मिलता-जुलता है। इसके दर्शन मात्र से चित्त प्रसन्न हो जाता है। 
 
नंदन हिल्स 
वैद्यनाथ धाम और नवलखा मंदिर के दर्शन के बाद अगला पड़ाव था सुंदर नंदन हिल्स। देवघर से पश्चिम दिशा की ओर यह एक मनोहारी पर्यटक-स्थल है। यहां पहाड़ पर है एक शिव और नंदी मंदिर। पहाड़ के ऊपर पहुंचकर इन दोनों मंदिरों के दर्शन किए जा सकते हैं। यहां भी भक्तों क़ी भीड़ लगी रहती है। नंदन हिल्स पर चढ़कर आप शहर का मनोरम दृश्य देख सकते हैं। बच्चों के लिए भी यह काफी आकर्षक स्थान है। यहां पर्यटन विभाग क़ी ओर से पार्क का निर्माण कराया गया है। साथ ही बूट घर, भूत घर और दर्पण घर भी है जिसका आनंद बच्चे उठा सकते हैं। नौकाविहार और झूले का आनंद भी लिया जा सकता है।

 
त्रिकूट हिल्स 
देवघर की यात्रा त्रिकूट हिल्स के बिना अधूरी है। देवघर से दस किलोमीटर दूर स्थित है त्रिकुटाचल यानि त्रिकूट हिल्स। यह स्थान भी शिव मंदिर के लिए प्रसिद्ध है। यहां शिव का मंदिर 2470 फुट ऊपर त्रिकूट पर्वत पर है। यहां तीन मुख्य चोटियां हैं, यही वजह है कि इसका नाम त्रिकूट हिल्स पड़ा। यहां पहुंचकर नैसर्गिक आनंद प्राप्त कर सकते हैं आप।

पहाड़ियों के बीचों-बीच एक आश्रम भी है -त्रिकुटाचल आश्रम। इस आश्रम की स्थापना संपदानंद देव ने की थी। बाद में उनके अनुयायिओं ने इसकी देखभाल करनी शुरू की और आज भी सफलतापूर्वक इसका संचालन किया जा रहा है। यहां देवी त्रिशूली की एक वेदी भी है। पहाड़ियों पर चढ़ने के लिए ऑटोमैटिक झूले यानी रोप वे लगाए गए हैं। इस पर चढ़ना किसी रोमांच से काम नहीं है। कुल मिलाकर बहुत ही दर्शनीय स्थल है यह। यहां बंदरों के भी दर्शन किए जा सकते हैं। कुल मिलाकर देवघर यात्रा काफी रोमांचकारी है।

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