समस्त देवगण और देवियां भी उस नृत्य में सहयोगी बनकर विभिन्न प्रकार के वाद्य बजाने लगे। वीणावादिनी मां सरस्वती वीणा-वादन करने लगीं, विष्णु भगवान् मृदंग बजाने लगे, देवराज इंद्र बंशी बजाने लगे, ब्रह्माजी हाथ से ताल देने लगे और लक्ष्मीजी गायन करने लगीं। अन्य देवगण, गंधर्व, किन्नर, यक्ष, उरग, पन्नग, सिद्ध, अप्सराएं, विद्याधर आदि भाव-विह्वल होकर भगवान् शिव के चतुर्दिक् खड़े होकर उनकी स्तुति में तल्लीन हो गए।
भगवान् शिव ने उस प्रदोष काल में उन समस्त दिव्य विभूतियों के समक्ष अत्यंत अद्भुत, लोक-विस्मयकारी तांडव-नृत्य का प्रदर्शन किया। उनके अंग-संचालन-कौशल, मुद्रा-लाघव, चरण, कटि, भुजा, ग्रीवा के उन्मत्त किंतु सुनिश्चित विलोल-हिल्लोल के प्रभाव से सभी के मन और नेत्र दोनों एकदम अचंचल हो उठे।
सभी ने नटराज भगवान् शंकरजी के उस नृत्य की सराहना की। भगवती महाकाली तो उन पर अत्यंत ही प्रसन्न हो उठीं। उन्होंने शिवजी से कहा- 'भगवन्! आज आपके इस नृत्य से मुझे बड़ा आनंद हुआ है, मैं चाहती हूं कि आप आज मुझसे कोई वर प्राप्त करें।'
उनकी बातें सुनकर लोकहितकारी आशुतोष भगवान् शिव ने नारदजी की प्रेरणा से कहा- 'हे देवी ! इस तांडव-नृत्य के जिस आनंद से आप, देवगण तथा अन्य दिव्य योनियों के प्राणी विह्वल हो रहे हैं, उस आनंद से पृथ्वी के सारे प्राणी वंचित रह जाते हैं। हमारे भक्तों को भी यह सुख प्राप्त नहीं हो पाता। अतः आप ऐसा करिए कि पृथ्वी के प्राणियों को भी इसका दर्शन प्राप्त हो सके। किंतु मैं अब तांडव से विरत होकर केवल 'रास' करना चाहता हूं।'
भगवान् शिव की बात सुनकर तत्क्षण भगवती महाकाली ने समस्त देवताओं को विभिन्न रूपों में पृथ्वी पर अवतार लेने का आदेश दिया। स्वयं वह भगवान् श्यामसुंदर श्रीकृष्ण का अवतार लेकर वृंदावन धाम में पधारीं। भगवान् श्री शिवजी ने ब्रज में श्रीराधा के रूप में अवतार ग्रहण किया। यहां इन दोनों ने मिलकर देवदुर्लभ, अलौकिक रास-नृत्य का आयोजन किया।