पौराणिक कथा के अनुसार एक समय शनिदेव भगवान शंकर के धाम हिमालय पहुंचे। उन्होंने अपने गुरुदेव भगवान शंकर को प्रणाम कर उनसे आग्रह किया, 'हे प्रभु! मैं कल आपकी राशि में आने वाला हूं अर्थात मेरी वक्र दृष्टि आप पर पड़ने वाली है।'
शनिदेव बोले, 'हे नाथ! कल सवा प्रहर के लिए आप पर मेरी वक्र दृष्टि रहेगी।'
शनिदेव की बात सुनकर भगवान शंकर चिंतित हो गए और शनि की वक्र दृष्टि से बचने के लिए उपाय सोचने लगे। शनि की दृष्टि से बचने हेतु अगले दिन भगवान शंकर मृत्युलोक आए। भगवान शंकर ने शनिदेव और उनकी वक्र दृष्टि से बचने के लिए एक हाथी का रूप धारण कर लिया। भगवान शंकर को हाथी के रूप में सवा प्रहर तक का समय व्यतीत करना पड़ा तथा शाम होने पर भगवान शंकर ने सोचा कि अब दिन बीत चुका है और शनिदेव की दृष्टि का भी उन पर कोई असर नहीं होगा। इसके उपरांत भगवान शंकर पुन: कैलाश पर्वत लौट आए। भगवान शंकर प्रसन्न मुद्रा में जैसे ही कैलाश पर्वत पर पहुंचे, उन्होंने वहां शनिदेव को उनका इंतजार करते पाया।
यह सुनकर शनिदेव मुस्कराए और बोले, 'मेरी दृष्टि से न तो देव बच सकते हैं और न ही दानव, यहां तक कि आप भी मेरी दृष्टि से बच नहीं पाए।'
यह सुनकर भगवान शंकर आश्चर्यचकित रह गए। शनिदेव ने कहा, 'मेरी ही दृष्टि के कारण आपको सवा प्रहर के लिए देवयोनी को छोड़कर पशुयोनी में जाना पड़ा। इस प्रकार मेरी वक्र दृष्टि आप पर पड़ गई और आप इसके पात्र बन गए।