श्रावण माह के शुक्ल पक्ष की पंचमी को नागपंचमी का त्योहार मनाते हैं। तक्षक नाग प्रमुख नागों में से एक था। यह बड़ा ही भयंकर नाग है। आओ जानते हैं कि क्यों राजा परीक्षित को तक्षक नाग ने मार दिया था।
पाण्डवों के स्वर्गारोहण के बाद अभिमन्यु के पुत्र परीक्षित ने शासन किया। उसके राज्य में सभी सुखी और संपन्न थे। एक बार राजा परीक्षित शिकार खेलते-खेलते बहुत दूर निकल गए। उन्हें प्यास लगी तो वे वन में स्थित एक आश्रम में चले गए। वहां उन्हें मौन अवस्था में बैठे शमीक नाम के ऋषि दिखाई दिए। राजा परीक्षित ने उनसे बात करनी चाहिए, लेकिन मौन और ध्यान में होने के कारण ऋषि ने कोई जबाव नहीं दिया। ये देखकर परीक्षित बहुत क्रोधित हुए और उन्होंने एक मरा हुआ सांप उठाकर ऋषि के गले में डाल दिया और वहां से चले गए।
यह बात जब शमीक ऋषि के पुत्र श्रृंगी को पता चली तो उन्होंने श्राप दिया कि आज से सात दिन बात तक्षक नाग राजा परीक्षित को डंस लेगा, जिससे उनकी मृत्यु हो जाएगी। बाद में जब शमीक ऋषि का ध्यान टूटा तो उन्हें इस घटनाक्रम का पता चला तो उन्होंने अपने पुत्र से कहा कि तुमने राजा परीक्षित को श्राप देकर अच्छा नहीं किया। वह राजा न्यायप्रीय और जनता का सेवक है। उसकी मृत्यु हो जाने से राज्य का बहुत नुकसान होगा। उसने इतना बड़ा अपराध भी नहीं किया था कि उसे इतना बड़ा शाप दिया जाए। शमीक को बहुत पश्चाताप हुआ।
परंतु श्राप को वापस नहीं लिया जा सकता था। ऋषि शमीक तुरंत ही राजमहाल जाकर राजा परीक्षित को यह बता बताते हैं कि मेरे पुत्र ने भावना में बहकर तुम्हें श्राप दे दिया है। इसमें तुम्हारा दोष नहीं, दोष तो समय का है। इसलिए हमारे मन में यह सोचकर पीड़ा हो रही है कि जिसका दोष है उसे दंड नहीं मिलेगा लेकिन तुम्हें मिलेगा। ऋषि शमिक अपने पुत्र ऋषि श्रृंगी के शाप के बारे में बताते हैं कि आज से सातवें दिन तक्षक नाग के काटने से तुम्हारी मृत्यु हो जाएगी राजन। यह सुनकर रानी रोने लगती है। शमिक ऋषि कहते हैं कि विधि के धनुष से दुर्भाग्य का यह बाण निकल चुका है वह वापस नहीं होगा। मैं यही बताने आया हूं कि अब तुम्हारे पास जितना समय बचा है उसका उपयोग करो। अपने गुरुजनों से परामर्श करो। जिससे वह तुम्हें संमार्ग दिखाएं। राजन भगवान तुम्हारी आत्मा को शांति दें।
तब राजा परीक्षित रात्रि में ही अपने गुरु के पास पहुंचते हैं और अपनी व्यथा बताकर कहते हैं कि मैं 7 दिन में ऐसा क्या करूं कि मेरा परलोक सुधर जाए। तब गुरु कहते हैं कि भक्ति करो। जो फल योग, तपस्या और समाधी से नहीं मिलता कलियुग में वह फल श्री हरिकीर्तन अर्थात श्रीकृष्ण लीला का गान करने से सहज ही मिल जाता है। इसलिए तुम श्रीमद्भागवत कथा का श्रवण और कीर्तन करो। उसमें श्रीकृष्ण की दिव्य लीलाओं का पवित्र वर्णन है। उसी के श्रवण से उत्पन्न हुई भक्ति ही तुम्हारे मोक्ष का कारण होगी। तुम वेदव्यासजी के पुत्र शूकदेवजी के पास जाओ वे तुम्हें यह कथा सुनाएंगे।
तब राजा परीक्षित बालक शूकदेव के पास जाकर उनके चरणों को धोकर उनसे श्रीमद्भागवत कथा सुनाते हैं।
इसके बाद 7वें दिन तक्षक नाग राजा परीक्षित को डंस लेता है। राज परीक्षित की मृत्यु का कारण जब उनके पुत्र जनमेजय को पता चला तो उन्होंने संकल्प लिया की मैं एक ऐसा यज्ञ करूंगा जिसके चलते सभी नाग जाति का समूलनाश हो जाएगा। जनमेजय के यज्ञ के चलते एक एक करके सभी नाग यज्ञ की शक्ति से खिंचाकर उसमें भस्म होते जा रहे थे।
जब लाखों सर्प यज्ञ की अग्नि में गिरने प्रारंभ हो गए, तब भयभीत तक्षक ने इन्द्र की शरण ली। वह इन्द्रपुरी में रहने लगा। वासुकि की प्रेरणा से एक ब्राह्मण आस्तीक परीक्षित के यज्ञस्थल पर पहुंचा और यजमान तथा ऋत्विजों की स्तुति करने लगा। उधर जब ऋत्विजों ने तक्षक का नाम लेकर आहुति डालनी प्रारंभ की तब मजबूरी में इन्द्र ने तक्षक को अपने उत्तरीय में छिपाकर वहां लाना पड़ा। वहां वे तक्षक को अकेला छोड़कर अपने महल में लौट गए। ऐसे समय माता मनसादेवी के पुत्र विद्वान् बालक आस्तिक (आस्तीक) से प्रसन्न होकर जनमेजय ने उसे एक वरदान देने की इच्छा प्रकट की तो उसने वरदान में यज्ञ की तुरंत समाप्ति का वर मांगा। बस इसी कारण तक्षक भी बच गया क्योंकि उसके नाम के आह्वान के समय वह बस अग्नि में करने ही जा रहा था और यज्ञ समाप्ति की घोषणा कर दी गई।
कद्रू और कश्यप के पुत्र वासुकी की बहन देवी मनसा ने नागों की रक्षार्थ जन्म लिया था। अधिकतर जगहों पर मनसा देवी के पति का नाम ऋषि जरत्कारु बताया गया है और उनके पुत्र का नाम आस्तिक (आस्तीक) है जिसने अपनी माता की कृपा से सर्पों को जनमेयज के यज्ञ से बचाया था।