कविता : श्रृंगार पथिक (वियोग श्रृंगार)

ये प्यार की विधाएं समझे नहीं समझता,
कब अश्रु जल बरसता, कब प्रेम रस सरसता।


 
अब तो हुआ हूं बेसुध बिलकुल नहीं सम्हलता,
कब प्यार में भटकता, कब दिल मेरा तड़पता।
 
ये दिल है कि दर्द मंजर जो बढ़ती रही विकलता,
यहां दिल नहीं बदलता, वहां वो नहीं बदलता।
ये कौन सी सजा है, वो कौन सी विवशता,
या मैं नहीं समझता, या वो नहीं समझता।।
 
अब हाय पपिहरा बन बिलख रहा, हर बूंद गिराई इतर-उतर,
मैं चातक चाह तड़पता रहा, वह मचल रही हर बदली पर।
पा न सका तुमको पाकर भी, पर मेरा यह अपराध नहीं है।
फिर भी रिश्तों में श्रेष्ठ तुम्हीं हो, कहता मेरा प्रेम यही है।।
 
तन-मन जीवन सब अर्पित कर, याचक बन कुछ मांग रहा हूं,
बरसा दो वह प्रेम सुधा बदली, जिस हेतु प्रिये मैं तड़प रहा हूं।
दिखती हो हर पल तुम मुझको, फिर ऐसे क्यों ढूंढ रहा हूं। 
यदि मैं निश्चल प्रेम पथिक हूं, तब कर्तव्यों से विमूढ़ कहां हूं।। 
 
अब जीवन भी बसता तुम में, फिर कैसे मैं जी पाऊंगा, 
अगर तड़प ऐसी ही भोगी तो सावन नहीं बिताऊंगा।
 
तो सावन नहीं बिताऊंगा... तो सावन नहीं बिताऊंगा...!

 

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